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आतंक की घाटी में लहूलुहान उम्मीदें

डॉ. मुकेश ‘असीमित’
गंगापुर सिटी (राजस्थान)
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आतंक, विनाश और ज़िंदगी (पहलगाम हमला विशेष)…

वो सिर्फ पहाड़ नहीं थे, उम्मीदें थीं जो चूर-चूर हुईं। वो सड़कें सिर्फ रास्ते नहीं थीं, बल्कि उन पर चलती ज़िंदगियाँ थीं-जो कभी घर लौटने के लिए निकली थीं, अब नाम तक के साथ स्मृति बन चुकी हैं।
२२ अप्रैल २०२५ की तारीख, कैलेंडर में सिर्फ एक तारीख नहीं रही, वो एक खूबसूरत सुबह थी, जब पर्यटक पहलगाम की वादियों में जीवन का उत्सव मनाने पहुंचे थे-तभी आतंक की काली परछाई ने उस उत्सव को मातम में बदल दिया।
गोलियों की आवाज़ें इंसानी आवाज़ों को निगल गईं, और एक बार फिर यह सवाल उठा-क्या धर्म अब पहचान-पत्र से बड़ा हो चुका है ?
उस दिन कोई यह नहीं पूछ रहा था कि तुम्हारा नाम क्या है, पेशा क्या है, वोट किसे दिया था या तुम कहाँ से आए हो ? सिर्फ एक सवाल था-“तुम किस धर्म के हो ?”
और इस सवाल का जवाब अगर “उनकी किताब” से मेल नहीं खाता था, तो ट्रिगर दब गया।
आतंकवाद अब सिर्फ हिंसा नहीं रह गया है, वह अब एक विचार है, जो बंदूक की नली से नहीं-सोच की गहराई से निकलता है। और यह सोच समाज की उस जड़ता से खाद-पानी पाती है, जो मानवीय करुणा से कोसों दूर है।
हाँ, यह हमला नहीं, एक प्रयोग था। आतंकवाद की रचित प्रयोगशाला ! यह परखा जा रहा था, कि क्या इस बार भी समाज खेमों में बंटेगा ? क्या इस बार भी कोई कहेगा “ये तो साजिश थी”, और कोई बोलेगा “ये तो बहकाए गए युवा थे ?”
क्या इस बार भी देशभक्ति और मानवता के बीच एक नई बहस खड़ी होगी ?
क्या इस बार भी कुछ मौतें ‘संख्या’ बन जाएँगी और कुछ ‘ट्रेंड ?’
शांति अब एक पर्यटन पैकेज की तरह बिक रही है!
जिस पहलगाम की वादियाँ कभी प्रेम का गान थीं, वो अब अस्थायी शांति की डोर से बंधी हैं। पर्यटक वहाँ जाते हैं, जहां सेना उन्हें घेरे रहती है, और कैमरे उस लम्हे को कैद करते हैं, जब कोई बच्चा सैनिक को मुस्कुरा कर देखता है-क्योंकि ‘इंसानियत’ अब एक फोटो फ्रेम में ही सुरक्षित है।
सरकार की प्रतिक्रिया क्या मानें- सख्ती या पटकथित रणनीति ?
सरकार की तरफ से सख्त बयान आए, सीमाएँ बंद हुईं, वीजा रोके गए, दूतावास खाली हुए-लेकिन यह सब-कुछ वैसा ही है, जैसा हर बार होता है। फर्क बस इतना है कि इस बार भी ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ शब्द चर्चा में है, और जनता फिर से आँखों में बदले की चमक लिए पूछ रही है-“अबकी बार क्या होगा ?”
और क्या होना चाहिए ?
क्या हर आतंकी हमले के बाद हम केवल २ बातें दोहराएंगे-‘कड़ी निंदा’ और ‘संवेदनाएं ?’ या हम इस प्रश्न से भी दो-चार होंगे-कि आखिर कब तक किसी की धार्मिक पहचान उसके जीवन-मरण का आधार बनी रहेगी ?

बस कुछ सवाल, जिनके जवाब अभी आने बाकी हैं,-क्या पहलगाम की वादियाँ फिर हरी होंगी ? नदियाँ फिर बहेंगी ?पर्यटक फिर लौटेंगे ?, लेकिन यह तो निश्चित है जो माँ अपने बेटे की राखी के इंतज़ार में बैठी थी, जो पति अपनी पत्नी को अगली छुट्टी पर वादियाँ दिखाने का वादा कर रहा था-उनकी कहानियाँ अब सिर्फ अधूरी रहेंगी।
धर्म अगर पहचान की पहली सीढ़ी बन जाए, तो आतंकवाद बस एक हथियार नहीं रह जाता-वह एक मानसिक महामारी बन जाता है।
और इस महामारी का इलाज सिर्फ ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ नहीं, बल्कि ‘वैचारिक टीकाकरण’ है।

अब समय आ गया है, कि हम न सिर्फ जवाब दें, बल्कि सवाल भी पूछें। वरना अगली बार घाटी नहीं, शायद सपाट मैदान भी रोएंगे।