राधा गोयल
नई दिल्ली
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वैसे तो इस आधुनिक जीवन-शैली में रिश्तों के मायने लगभग खत्म हो हो गए हैं, क्योंकि आजकल ज्यादातर लोग आभासी दुनिया में जी रहे हैं। हर वक्त सोशल साइट्स से जुड़े रहना, वहाँ नए-नए अनजाने मित्र बनाना, उनके बारे में कुछ न जानते हुए भी अपना मोबाइल नम्बर-पता आदि देना और फिर अपनी भावनाओं का आदान-प्रदान करना। कुछ लोग कहीं जाते हैं, या नहीं भी जाते तो फेसबुक पर अपनी तस्वीर ही ताजा करने में लगे रहते हैं। परिवार में कोई समारोह हो और वहाँ लोग इकट्ठे हों तो बजाए उनसे संवाद करने के सभी अपने मोबाइल या टैब में व्यस्त रहते हैं। उन्हें यही पता नहीं होता, कि उस समारोह में कौन-कौन आया है ? यानी मेले में भी अकेले और मोबाइल पर अकेले व्यस्त रहकर देश-दुनिया के झमेले और दुनिया के मेले में रमेले।
यह तो हुई सोशल नेटवर्किंग साइट की दुनिया। अब आते हैं वास्तविक दुनिया की तरफ। आजकल पाश्चात्य संस्कृति की होड़ में एकल परिवारों का चलन बहुत तेजी से चल पड़ा है। बस ‘हम दो और हमारे दो’ यही परिवार है। दादा-दादी, नाना-नानी, मामी, मौसी, बुआ सभी रिश्ते गौण हो गए हैं। संयुक्त परिवार में कोई भी नहीं रहना चाहता। रहने की बात तो छोड़ो, वे उनसे संपर्क में भी बहुत कम रहते हैं। केवल अपने दोस्तों की दुनिया में ही मगन रहते हैं, या अपनी स्वयं की दुनिया में। इस एकल परिवार की सभ्यता ने संस्कृति को, बच्चों को कितना बर्बाद किया है, यह एकल परिवार के इच्छुक पति-पत्नी समझना ही नहीं चाहते। इस सोच के कारण
परिवार किस प्रकार टूट रहे हैं और
बच्चे कितने संस्कारविहीन होते जा रहे हैं।
बच्चे भी हर वक्त आभासी दुनिया में रहने के आदी हो गए हैं। पहले दादी-नानी की कहानियाँ कितनी प्रचलित थीं। उससे अनजाने ही बच्चों में संस्कार भी आते थे और एक-दूसरे से जुड़ने की भावना भी प्रबल होती थी, जो अब बिल्कुल लुप्त होती जा रही है।
पति-पत्नी के रिश्ते में भी बराबरी की होड़ लगी हुई है और इस बराबरी की होड़ ने सारे रिश्तों को ताक पर रख दिया है। पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण ने कितने घर तोड़े हैं। जोड़ा तो एक भी नहीं, सिर्फ तोड़े ही हैं। और उसके कारण बच्चों की जिंदगी का जो हश्र हुआ है, वह दोनों में से किसी को महसूस नहीं होता, क्योंकि दोनों अपने दंभ में रहते हैं। केवल अपने दंभ के कारण कोई थोड़ा- सा भी झुकना नहीं चाहता, समझौता नहीं करना चाहता, रिश्तों को सहेजना नहीं आता, रिश्तों को संभालना नहीं आता। पत्नी सोचती है कि मैं क्या पति से कम हूँ। मैं भी तो कमाती हूँ, मेरा भी बराबरी का हक है। किसने मना किया कि बराबरी का हक नहीं है, बल्कि स्त्री हर मामले में पुरुष से कहीं बढ़-चढ़कर है। बस स्वयं को कमतर आँकने की भूल करती है और ज्यादा समझने का दंभ करती है। यहीं पर वह भूल कर जाती है। भूल जाती है कि शुंभ-निशुंभ का वध एक स्त्री ने किया था। मधु-कैटभ, चण्ड-मुण्ड, रक्तबीज, महिषासुर जैसे राक्षसों का वध स्त्रियों द्वारा ही किया गया था। सागर मंथन के समय अमृत बाँटने का काम चाहे श्री विष्णु ने किया हो, किंतु स्त्री का रूप धारण करके ही करना पड़ा। स्त्री तो हर मामले में पुरुषों से बढ़कर ही है।
जैसे-नदी, मिलती तो सागर में है, किन्तु उससे उसका स्वयं का अस्तित्व खोता नहीं है। अपना स्वयं का अस्तित्व कायम रखते हुए सागर में जाकर मिल जाती है। तो नदी का अस्तित्व स्वतंत्र भी है और सागर में मिलने के कारण वह संपूर्ण भी हो जाती है। रामायण में एक बड़ा सुंदर प्रसंग आता है- वनवास के दौरान एक ठूँठ वृक्ष पर लिपटी हुई एक लता को देखकर श्री राम सीता से कहते हैं कि “प्रिये देखो! इस सुंदर लता के कारण यह ठूँठ वृक्ष भी कितनी शोभा पा रहा है।” तो सीता का उत्तर था कि “आर्यपुत्र! यह वृक्ष लता के कारण शोभा नहीं पा रहा, अपितु इस वृक्ष ने लता को सहारा दे रखा है, जिसके कारण यह लता इस प्रकार से पुष्पित-पल्लवित हो सकी है।”
तात्पर्य यह है कि स्त्री, पुरुष एक- दूसरे के पूरक हैं। एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं। स्त्री-पुरुष के बिना सृष्टि की उत्पत्ति संभव नहीं है। स्त्री, पुरुष से हमेशा ऊपर ही रही है। वह अबला नहीं, सबला है। वह साक्षात शक्ति है। वह सिद्धार्थ की भाँति कुछ पाने की चाह में अपने कर्तव्य से पलायन नहीं करती।समाज की समस्त लांछनाओं को सहते हुए अपने पुत्र का पालन- पोषण करने का बल रखती है। पुरुष में इतना साहस कहाँ, कि वह अकेला गृहस्थी को संभाल सके। जब पति की मृत्यु होती है तो स्त्री अनपढ़ होकर भी अपने बच्चों को पाल लेती है, किंतु पुरुष पढ़ा-लिखा होने के बावजूद भी अपने बच्चों को नहीं पाल सकता। वह किसी ना किसी रूप में बच्चों को पालने के लिए अपनी माँ, बहन, दादी किसी का भी सहारा लेता है अथवा दूसरा विवाह कर लेता है। मैंने तो अपनी जिंदगी में शायद ही कोई पुरुष देखा हो जिसने अकेले अपने बलबूते पर अपने बच्चों का पालन-पोषण किया हो।
जरूरत है कि आधुनिक जरूर बनो, किन्तु अन्धानुकरण की दौड़ में मत दौड़ो। हमारी संस्कृति ने हमें विरासत में बेहिसाब संस्कार दिए हैं। उन्हें भी पढ़ो, गुनो और अनुसरण करो।