लोकार्पण…
मुम्बई (महाराष्ट्र)।
भारत में शास्त्रीय एवं साहित्यिक मीमांसा की एक लंबी परंपरा है। यह पुस्तक उसी परंपरा को आगे बढ़ाती है।इस तरह के आलोचकों-समीक्षकों के कारण ही साहित्यिक कृतियों पर पाठक एवं समाज का ध्यान जाता है। यदि लेखक, कवि, कथाकार रचना की आत्मा है तो आलोचक उसके शरीर की तरह है, जिसके द्वारा उस कृति के भीतर के अर्थ निकलते हैं।
महाराष्ट्र के राज्यपाल भगतसिंह कोश्यारी ने यह बात मुंबई विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के प्राध्यापक डाॅ.करुणाशंकर उपाध्याय की पुस्तक ‘कथा साहित्य का पुनर्पाठ’ का लोकार्पण करते हुए कही। राज्यपाल के कर कमलों द्वारा डाॅ. उपाध्याय की सद्यःप्रकाशित पुस्तक का लोकार्पण राजभवन सभागार में किया गया। इस अवसर पर एकेडेमिस्तान के अध्यक्ष दीपक मुकादम ने अतिथियों का स्वागत किया। सुप्रसिद्ध समाज सेवी और भाजपा प्रवक्ता श्रीमती सुमीता सुमनसिंह आमंत्रित अतिथि के रूप में उपस्थित थीं। अपने वक्तव्य में राज्यपाल ने अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार प्राप्त करने के उपलक्ष्य में गीतांजलि श्री को बधाई देते हुए कहा कि गीतांजलि श्री की उपलब्धि हिंदी ही नहीं, संपूर्ण भारतीय साहित्य के लिए गौरव लेकर आई है। संयोगवश इस पुस्तक में भी उनकी चर्चा है।
इस मौके पर डाॅ.उपाध्याय ने कहा कि इसमें हिंदी के पहले उपन्यास और पहली कहानी के विवाद को समाप्त करने का प्रयास किया गया है। इस पुस्तक में हिंदी के सभी महत्वपूर्ण कथाकारों की कहानी एवं उपन्यासों का एक नया पाठ तैयार किया गया है। विगत सौ से डेढ़ सौ वर्षों के बीच हिंदी कथा साहित्य में सबसे बड़ा बदलाव यही हुआ है कि प्रसाद, प्रेमचंद और जैनेन्द्र के पात्र अब स्वयं लेखक बनकर आ गए हैं। अब सहानुभूति का स्थान स्वानुभूति ने ले लिया। इस कारण स्त्री विमर्श, दलित, आदिवासी, वृद्ध और किन्नर विमर्श कथा साहित्य के मुख्य उपजीव्य बन गए हैं।
प्रख्यात चिंतक वीरेंद्र याज्ञिक ने सूत्र-संचालन किया। ओमप्रकाश तिवारी ने अतिथियों का आभार माना।
(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन,मुंबई)