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कविता बनाना और रचना

डॉ. मुकेश ‘असीमित’
गंगापुर सिटी (राजस्थान)
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‘कविता’ बनाना,
जैसे मिट्टी को चाक पर घुमाना,
देर तक आकार ढूंढते रहना
हर रेखा, हर उभार
किसी और की नजरों को खुश करने का साधन।

यहाँ भावनाएँ नहीं,
सिर्फ शब्दों का हिसाब है
एक गणितीय समीकरण,
जिसमें भावनाओं का योग जरूरी नहीं
‘कविता’ रचना,
जैसे बारिश में भीगी मिट्टी की गंध।
कोई चाक नहीं,
कोई ढांचा नहीं, कोई साधते हाथ नहीं
बस मन की लहरें,
शब्दों के किनारे छूकर लौट जाती हैं
हर बिंब, हर उपमा,
जैसे आत्मा के आईने में झलके।

‘कविता’ बनाना,
मानो शब्दों का बाजार सजाना
जिन्हें पसंद आए, वो खरीद ले जाएँ,
शब्द चमकदार, लेकिन अर्थ फीके।

‘कविता’ रचना, आत्मा की चुप्पी को सुनना,
जहां शब्द खुद आकार लेते हैं,
जहां भावनाएँ अपना अर्थ खुद ढूंढती हैं
यह वह मौन है,
जो चीख बनकर गूँजता है।
यह वह सत्य है,
जो बनावट से सर्वथा परे है।

क्या अब भी संशय क्षण मात्र भी,
क्या तुम्हें ‘कविता’ बनानी है ?
या ‘कविता’ रचनी है ?
क्या शब्दों की सीढ़ी चढ़नी है ?
या भावनाओं के सागर में डूबना है ?
चुनाव तुम्हारा है।
बस रहे स्मरण-
‘कविता’ नहीं बनती चाक पर कभी,
वह तो मन की गहराई में स्वयं ही रची जाती है॥