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गिरीश कर्नाड:एक विचारशील विद्रोही की रंगमंचीय यात्रा

डॉ.शैलेश शुक्ला
बेल्लारी (कर्नाटक)
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पुण्यतिथि विशेष…

गिरीश कर्नाड भारतीय रंगमंच, सिनेमा और साहित्य के उन शिखर पुरुषों में गिने जाते हैं, जिन्होंने केवल एक कलाकार के रूप में नहीं, बल्कि विचारक, सामाजिक कार्यकर्ता और सांस्कृतिक हस्ताक्षर के रूप में भी अपने को स्थापित किया। उनका जीवन और कृतित्व भारतीय आधुनिकता के एक ऐसे प्रारूप को प्रस्तुत करता है, जो परम्परा और नवाचार के बीच संतुलन बनाते हुए सामाजिक यथार्थ एवं मानवीय मूल्यों की तलाश करता है। १९ मई १९३८ को माथेरान (अब महाराष्ट्र) में जन्मे गिरीश कर्नाड का पालन-पोषण एक बहुभाषी परिवेश में हुआ-कोंकणी, मराठी, कन्नड़ और अंग्रेज़ी भाषाएँ उनके आत्मसात अनुभव का हिस्सा बनीं। प्रारंभिक जीवन में ही उन्होंने लोकनाट्य यक्षगान के माध्यम से भारतीय परंपराओं को आत्मसात किया और ऑक्सफोर्ड में दर्शन शास्त्र, राजनीति विज्ञान और अर्थशास्त्र की पढ़ाई ने उनके बौद्धिक क्षितिज को वैश्विक दृष्टिकोण से समृद्ध किया। इस प्रकार उनकी रचनाशीलता ने पूर्व और पश्चिम के समन्वय से एक ऐसा आत्म-चिंतन विकसित किया, जो भारतीयता को आधुनिक संदर्भों में परिभाषित करता है।
श्री कर्नाड का पहला नाटक ‘ययाति’ (१९६१) एक पौराणिक कथा के माध्यम से आधुनिक अस्मिता और दायित्व के द्वंद्व को उजागर करता है। यह उनकी उस शैली की शुरूआत थी, जिसमें वे इतिहास, मिथक और समकालीन यथार्थ के त्रिकोणीय संबंधों को मंच पर पुनर्सृजित करते थे, लेकिन उनकी ख्याति को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पहचान ‘तुग़लक’ (१९६४) से मिली, जिसमें उन्होंने मोहम्मद बिन तुग़लक के चरित्र के माध्यम से आदर्शवाद, यथार्थ और राजनीतिक विफलताओं के त्रिकोण को एक रूपक में बदला। यह नाटक भारतीय राजनीति की विडंबनाओं का आलोचनात्मक दस्तावेज बना, जिसे बाद में इब्राहिम अल्काज़ी के निर्देशन में मंचित कर एक ऐतिहासिक प्रस्तुति बना दिया गया। ‘तुग़लक’ की कथा, उसका प्रतीकात्मक ढांचा और साँप-शतरंज जैसे बिम्बों का प्रयोग आज भी सत्ता और नैतिकता के विमर्श में प्रासंगिक बना हुआ है।
‘हयवदन’ (१९७१) श्री कर्नाड के रचनात्मक उत्कर्ष का वह बिंदु है, जहाँ उन्होंने पारंपरिक लोकनाट्य और आधुनिक मनोविश्लेषण को एकसाथ पिरोया। इसे भारतीय मिथकीय चेतना में ढाल कर उन्होंने एक नई संरचना दी। देवदत्त, कपिल और पद्मावती के प्रेम त्रिकोण के माध्यम से ‘मन बनाम शरीर’ की बहस, स्त्री अस्मिता और मानसिक द्वंद्व को उन्होंने अत्यंत संवेदनशीलता से उठाया। पद्मावती को उन्होंने उस समय की रूढ़ स्त्री छवि से अलग एक कामनात्मक और आत्मनिर्णायक स्त्री के रूप में प्रस्तुत किया, जो भारतीय रंगमंच में स्त्रीवाद की दिशा में एक क्रांतिकारी हस्तक्षेप था। वहीं, ‘हयवदन’-जिसके पास मनुष्य का शरीर और घोड़े का सिर है-एक अधूरी पहचान और सामाजिक अस्वीकृति का प्रतीक बन जाता है, जो आधुनिक मनुष्य के भीतर चल रहे आत्मसंघर्ष का चित्रण है। यह नाटक लोककथा, मिथक और मनोविज्ञान के समन्वय का एक आदर्श उदाहरण बन गया है।
१९८८ में प्रकाशित ‘नागमंडल’ ने गिरीश कर्नाड को भारतीय नारीवाद के सबसे सशक्त रंगमंचीय लेखकों में स्थान दिलाया। यह नाटक एक लोककथा के माध्यम से स्त्री स्वाधीनता और सामाजिक रूढ़ियों को चुनौती देता है। रानी, नायिका, एक प्रेमविहीन विवाह में फँसी स्त्री है जो एक नाग के रूप में आए प्रेम के माध्यम से अपनी अस्मिता को पुनः प्राप्त करती है। यह नाग केवल एक पुरुष नहीं, बल्कि स्त्री की अधूरी इच्छाओं का प्रतीक है। रानी की अग्निपरीक्षा, नाग की सहायता और अंततः सामाजिक स्वीकृति-ये सभी घटनाएं श्री कर्नाड की लेखनी की प्रतीकात्मक गहराई को दर्शाते हैं। कथा और नाटक की दोहरी संरचना, लोकगीतों का प्रयोग और सांस्कृतिक प्रतीकों की उपस्थिति इसे समकालीन भारतीय रंगमंच का बेहतरीन बनाती है, जो परंपरा और विद्रोह के बीच संवाद स्थापित करता है।
‘तलेदंड’ (१९९०) या ‘रक्त कल्याण’ गिरीश कर्नाड का वह नाटक है जिसमें उन्होंने जातिवादी सामाजिक ढांचे को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में रखते हुए आलोचना की। यह नाटक आज के संदर्भ में भी उतना ही प्रासंगिक है, जहाँ जातिवाद और सामाजिक भेदभाव की जड़ें अब भी गहरी हैं। यह दर्शाता है कि केवल उपदेश या नीति नहीं, बल्कि साहसिक कार्यवाही से ही समाज में परिवर्तन संभव है, चाहे उसकी कीमत कितनी भी बड़ी क्यों न हो।
गिरीश कर्नाड ने साहित्य और रंगमंच के अतिरिक्त सिनेमा को भी सामाजिक विमर्श का माध्यम बनाया। ‘संस्कार’ (१९७०) और ‘वंश वृक्ष’ (१९७१) जैसी फिल्मों ने भारतीय समानांतर सिनेमा को एक वैचारिक दिशा दी। इन फिल्मों में श्री कर्नाड का अभिनय, निर्देशन और विचार तीनों ही एकत्रित रूप से सशक्त सामाजिक सिनेमा का निर्माण करते हैं। इस नई फिल्म-धारा ने यह सिद्ध किया कि सिनेमा केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि विचारों का वाहक भी हो सकता है।
फ़िल्म ‘ओंडोनंडु कलदल्लि’
(किसी समय की बात है’) भारतीय सिनेमा में एक नया मोड़ थी। इसे भारतीय समुराई फिल्म कहा गया, क्योंकि इसकी संरचना जापानी निर्देशक अकीरा कुरोसावा की शैली से प्रेरित थी, लेकिन गिरीश कर्नाड ने इसे भारतीय नैतिकता, युद्धनीति और सांस्कृतिक मूल्यों में ढालकर एक अनूठा अनुभव बना दिया।
गिरीश कर्नाड ने हिंदी सिनेमा में भी अपनी विशिष्ट छाप छोड़ी। इनकी ‘निशांत’, ‘मंथन’, ‘स्वामी’ जैसी फ़िल्में सामाजिक और राजनीतिक यथार्थ की पड़ताल करती हैं। इन फिल्मों में गंभीर और विवेचनात्मक भूमिकाएं निभाईं, जो दर्शकों को विचार के लिए प्रेरित करती थीं। बाद की व्यावसायिक फिल्मों जैसे ‘एक था टाइगर’ और ‘टाइगर ज़िंदा है’ में भी उन्होंने मानवीय और विवेकपूर्ण चरित्रों को जीवंत किया, जिससे यह स्पष्ट हुआ कि वे न केवल वैचारिक सिनेमा के नायक थे, बल्कि मुख्यधारा में भी सामाजिक सरोकारों को जीवित रख सकते थे।
संस्थागत नेतृत्व के क्षेत्र में भी गिरीश कर्नाड का योगदान अत्यंत उल्लेखनीय रहा। उन्होंने फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एफटीआईआई) के निदेशक के रूप में कार्य किया और भारतीय फिल्म शिक्षा की गुणवत्ता को नई ऊँचाई दी। इसके अतिरिक्त संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष के रूप में पारंपरिक नाट्य और नृत्य शैलियों के संरक्षण और पुनरुद्धार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बेंगलुरु में ‘रंगशंकरा’ जैसे रंगमंच की स्थापना कर उन्होंने युवा रंगकर्मियों को मंच प्रदान किया। उनके नेतृत्व में कला को केवल सौंदर्य नहीं, बल्कि विचार और संवाद का माध्यम माना गया।
गिरीश कर्नाड को मिले पुरस्कार उनकी बहुआयामी उपलब्धियों का प्रमाण हैं। उन्हें पद्मश्री, पद्मभूषण और ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुए, जो न केवल उनकी कला और साहित्यिक प्रतिभा का सम्मान हैं, बल्कि उनके सामाजिक योगदान का भी संकेतक हैं। उन्होंने दूरदर्शन के ‘टर्निंग पॉइंट’ कार्यक्रम के माध्यम से विज्ञान, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता जैसे विषयों को सरल भाषा में प्रस्तुत कर जनसाधारण को जागरूक करने का कार्य किया। उनकी यह भूमिका कलाकार और शिक्षक दोनों के रूप में प्रेरणादायक रही।
गिरीश कर्नाड की सामाजिक सक्रियता उनके समग्र व्यक्तित्व का महत्वपूर्ण पक्ष रही है। उन्होंने समय-समय पर सांप्रदायिकता, भाषाई कट्टरता और असहिष्णुता के विरुद्ध मुखर होकर अपनी बात रखी। एक लोकतांत्रिक समाज के पक्षधर बने रहे। उन्होंने साबित किया कि एक कलाकार का मौन भी एक अपराध होता है।
१० जून २०१९ को उनके निधन पर देशभर में शोक की लहर दौड़ गई। उनका अंतिम संस्कार धार्मिक विधियों से हटकर आत्मनिर्णय के आधार पर किया गया, जो उनके जीवन-दर्शन की आधुनिकता और मानवता का परिचायक था। आज गिरीश कर्नाड केवल एक नाम नहीं, बल्कि भारतीय रंगमंच, सिनेमा और साहित्य में विवेकशील विद्रोह का प्रतीक हैं। उनकी कृतियाँ और विचार हमारे समय की चेतना का अविभाज्य हिस्सा बन चुकी हैं।