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जीवन-यापन के लिए भीख मांगने की आवश्यकता नहीं

ममता तिवारी ‘ममता’
जांजगीर-चाम्पा(छत्तीसगढ़)
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भिखारियों को भिक्षा देनी चाहिए या नहीं, इसी के साथ यह भी जोड़ देती हूँ कि खुले में घूमते अनाथ पशुओं को (गाय माता) को अपने घर के सामने बुला कर या गली चौबारे में जूठा, बचा-खुचा या शुद्ध कोरा ही खिलाना पिलाना चाहिए या नहीं!
मेरा विचार और उत्तर है- कदापि ‘नहीं।’ इस ‘नहीं’ का कारण यह कि
प्रशासन आज गरीबोन्मूलन के लिए इतनी सारी योजनाएँ चला रहा है कि देश के किसी भी जायज नागरिक को जायज जीवन-यापन के लिए भीख मांगने की आवश्यकता नहीं है। जहाँ पर भी ४ झोपड़ी है, वहाँ शासकीय विद्यालय है और दोपहर में मुफ्त का लंच, पुस्तक-कापी, वस्त्र मुफ्त। इतने उद्योग-धंधे, प्लांट फैक्टरी, व्यवसाय है, जिससे आराम से सरकारी योजनाओं साथ गुजर-बसर हो सकती है। यदि अपंग असहाय है, तो इतने बालाश्रम, अनाथालय, वृद्धाश्रम, शासकीय और व्यक्तिगत हैं जो खाली पड़े हैं, किन्तु इन्हें भीख मांगनी है, भीख मंगाने वाली गैंग के लिए या किसी व्यसन के लिए‌। दूसरी बात, जब कुछ भी दो समय खाने-खिलाने को नहीं है तो बच्चा क्यों जन्म देते हैं ? भिखमंगा और अपराधी बनाने हेतु! इसके लिए प्रशासन को भीख मांगना प्रतिबंधित कर और भी अधिक बाल, वृद्ध, अनाथ और दिव्यांग आश्रय हर गाँव-नगर में खुलवाना चाहिए, जिसमें शिक्षा के साथ अपने सामर्थ्य अनुसार श्रम, शिल्प या अन्य उपार्जन करे और देश की समृद्धि में बाधक नहीं, प्रत्येक हाथ साधक बने। देश में एक भी अकर्मण्य मनुष्य नहीं होना चाहिए।
इन भिखमंगों से तो कचरा बीन कर पेट पालने वाले सम्माननीय हैं, जो वातावरण स्वच्छ कर देश और जनहित कर रहे हैं।
भीख देना बंद करके हम बहुत सारे अपराधों पर भी नकेल कस सकते हैं। महानगरों में फैली तस्करी, मानव अंग व्यापार और बहुत-सी बीमारियाँ भी कम हो सकती है।
कोई यह भी कह सकता है कि प्राचीन काल से इस देश में भिक्षाटन का चलन रहा है। ब्राम्हण भिक्षा मांग कर जीवन निर्वाह करते थे। सभी को यह ज्ञात होना चाहिए कि यह विप्र भिखारी नहीं, समाज से स्वीकृत याचक थे। वे अपना समय और ज्ञान देकर बदले में आश्रम और जीविकोपार्जन हो, उतनी ही भिक्षा लेते थे। जमा कर धन्ना सेठ बनने हेतु नहीं। बौद्ध भिक्षुओं की प्रतिष्ठा है।
भिखारी और याचक या भीख और भिक्षा में केवल शब्दों का अंतर नहीं है। एक सम्राट याचक हो सकता है, भिखारी नहीं। किसी से वस्तु या वचन की भिक्षा मांग सकता है, भीख नहीं।
गाय माता को खिलाकर दुनिया पुण्य कमाती है। मैंने क्यों कहा गाय को न खिलाएं, इसका कारण है,-जो गाय पालते हैं, इन्हें दूध निकाल कर सड़कों-गलियों में भूखा छोड देते हैं और ये कचरा व पॉलिथीन खाती रहती है, जिससे बीमार होती है। दूसरी बात, सड़कों को घेर कर बैठती है, जिससे इनकी और राहगीरों की दुर्घटना का अंदेशा बना रहता है।
पहले और अब भी गाँवों में गैया रखते थे, उसके लिए सामूहिक चरवाहा रखते हैं, जो सुबह गाँव भर की गैया-बकरी चराने ले जाते थे, शाम को हर घर में छोड़ देते थे। प्रत्येक व्यक्ति के मन में गौ के लिए इनके गुणों और उपकारों के बदले पूज्यनीय भाव था। दूध दे या न दे या बूढी हो जाए, घर से नहीं निकालते थे। बैल तो खेती के काम आने से और भी महत्वपूर्ण था, किन्तु अब शहरों में इन्हें खुले छोड़ देते हैं, जो बहुत भारी समस्या का रूप ले चुका है। इसके लिए इनके मालिक पर दबाव बनाया जाए। शासकीय गौशालाओं का निर्माण हो और सुचारू व्यवस्था एवं कर्मचारी होने चाहिए। हर घर से गऊ सेवा, गौ चारा हेतु निश्चित राशि या दान जाना चाहिए।

परिचय–ममता तिवारी का जन्म १अक्टूबर १९६८ को हुआ है। वर्तमान में आप छत्तीसगढ़ स्थित बी.डी. महन्त उपनगर (जिला जांजगीर-चाम्पा)में निवासरत हैं। हिन्दी भाषा का ज्ञान रखने वाली श्रीमती तिवारी एम.ए. तक शिक्षित होकर समाज में जिलाध्यक्ष हैं। इनकी लेखन विधा-काव्य(कविता ,छंद,ग़ज़ल) है। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आपकी रचनाएं प्रकाशित हैं। पुरस्कार की बात की जाए तो प्रांतीय समाज सम्मेलन में सम्मान,ऑनलाइन स्पर्धाओं में प्रशस्ति-पत्र आदि हासिल किए हैं। ममता तिवारी की लेखनी का उद्देश्य अपने समय का सदुपयोग और लेखन शौक को पूरा करना है।