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पुरुषों का अस्तित्व बड़ा प्रश्न

ललित गर्ग

दिल्ली
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‘अन्तर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस’ (१९ नवम्बर) विशेष…

दुुनिया में अब महिला दिवस की भांति पुरुष दिवस प्रभावी रूप में बनाए जाने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी है। पुरुष भी अपने शोषण एवं उत्पीड़ित होने की बात उठा रहे हैं। अब पुरुषों पर भी उपेक्षा, उत्पीड़न एवं अन्याय की घटनाएं पनपने की बात की जा रही है। अब पूरे विश्व में ‘अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस’ भी मनाया जाने लगा है। पहला दिवस १९९९ में १९ नवंबर को डॉ. जेरोम टीलकसिंह ने त्रिनिदाद और टोबैगो में मनाया था। यह ऐसा एक वैश्विक उत्सव है, जो पुरुषों के सकारात्मक योगदान और उपलब्धियों का जश्न मनाता है, साथ ही पुरुषों के स्वास्थ्य, कल्याण और लैंगिक समानता को प्रभावित करने वाले महत्वपूर्ण मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करता है।

कुछ वर्ष पूर्व भारत में सक्रिय अखिल भारतीय पुरुष एसोसिएशन ने भारत सरकार से एक खास मांग की कि महिला विकास मंत्रालय की भांति पुरुष विकास मंत्रालय का भी गठन किया जाए। इसी तरह उप्र में भारतीय जनता पार्टी के कुछ सांसदों ने यह मांग उठाई थी कि राष्ट्रीय पुरुष आयोग जैसी भी एक संवैधानिक संस्था बननी चाहिए। सांसदों ने इस बारे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र भी लिखा था। प्रश्न है कि आखिर पुरुष इस तरह की अपेक्षाएं क्यों महसूस कर रहे हैं ? लगता है पुरुष अब अपने ऊपर आघातों एवं उपेक्षाओं से निजात चाहता है। तरह-तरह के कानूनों ने उसके अस्तित्व एवं अस्मिता को धुंधलाया है, जबकि आज बदलते वक्त के साथ पुरुष अधिक जिम्मेदार और संवेदनशील हो चुका है। कई युवा पुरुष समाज-निर्माण की बड़ी जिम्मेदारियों को उठा रहे हैं तथा अपनी काबिलियत व जुनून से यह साबित भी कर रहे हैं।
आज का पुरुष सिर्फ खुद को नहीं, बल्कि महिलाओं के साथ कदम मिलाकर आगे बढ़ता है। वह यह सुनिश्चित कर रहा है कि उन्हें भी आगे बढ़ने के समान अवसर मिलें व उन्हें किसी भी भेदभाव का सामना न करना पड़े। यह परिवर्तन आज सभी उद्योगों (जैसे मीडिया, हॉस्पिटैलिटी, बैंकिंग, व्यापार आदि) में स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है, जहाँ महिलाएं शीर्ष पदों पर काम कर रही हैं। सिर्फ यही नहीं, पुरुषों को अब महिलाओं के नेतृत्व में कार्य करने में भी झिझक महसूस नहीं होती। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी इस दिवस को मान्यता देते हुए इसकी आवश्यकता को बल दिया एवं सहायता दी है।
कुछ वर्ष पूर्व की बात करें तो पुरुषों को लेकर समाज में ढेरों रुढ़िवादी विचार थे, महिलाओं केे शोषण एवं उसे दोयम दर्जा दिए जाने का आरोप उस पर लगता रहा है, जिनमें अब तेजी से परिवर्तन हो रहे हैं। पुरुष एक ऐसा शब्द, जिसके बिना किसी के जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। नारी जहाँ जीवन को परिपूर्णता देती है, वहीं पुरुष ही इसका आधार है। नारी जन्मदात्री है तो पुरुष जीवन-निर्माता है।
भारतीय समाज में “मर्द को दर्द नहीं होता” या फिर जब कोई पुरुष रोता है तो “मर्द बनो और रोना बंद करो” जैसी बातें बोली जाती हैं। कई सालों से पुरुषों की समाज में संघर्षशील व कठोर छवि को प्रस्तुत किया गया है, लेकिन मुख्य सवाल है कि आखिर मर्द या पुरुष हैं कौन ? जो घोड़े दौड़ाता है, शिकार करता है, या फिर जो अच्छे सूट में, चमचमाती कार में ऑफिस जाता है और घर पर भी अपनी तारीफ ही सुनना चाहता है। एक रौबदार छवि, आक्रांता, शोषक, असंवेदनशीलता एवं अत्याचारी वाली उसकी छवि क्या वास्तविक छवि है ? असल में पिछले कुछ वर्षों में मर्द की परिभाषा में एक उदारवादी एवं संवेदनशील बदलाव देखने को मिला है। अब पुरुष ऐसा आधार स्तंभ है, जो जिम्मेदारी उठाता है, जो समाज व देश को भी चमकदार बनाने के लिए आगे आता है, परिवार की जिम्मेदारियों को ढोता है।
यह दिन हमें याद दिलाता है कि लैंगिक समानता एक सामूहिक प्रयास है, जिससे पुरुष और महिला दोनों को लाभ होता है, तथा पुरुषों की भलाई पर ध्यान देना इस यात्रा का एक अनिवार्य हिस्सा है। समाज रूपी गाड़ी को सही से चलाने के लिए यह बेहद जरूरी है कि महिलाएं उसका विरोधी होने के बजाय सहयोगी बनें। मानवीय रिश्तों में दुनिया में सबसे बड़ा स्थान माँ के रूप में नारी को दिया जाता है, पर एक बच्चे को बड़ा और सभ्य बनाने में पिता के रूप में पुरुष का योगदान कम नहीं आँका जा सकता। महिला से स्वर्ग है, बैकुंठ, महिला से ही चारों धाम है, पर इन सबका द्वार तो पुरुष ही है। उन्हीं पुरुषों के सम्मान में यह मनाया जाता है।
दुनिया के दूसरे देशों की तरह भारत भी घरेलू हिंसा की समस्या से जूझ रहा हैं। महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा को रोकने के लिए कठोर कानून भी बने हैं, लेकिन पुरुष भी घरेलू हिंसा का शिकार होते हैं। भारत में अभी तक ऐसा कोई सरकारी अध्ययन या सर्वेक्षण नहीं हुआ है, जिससे इस बात का पता लग सके कि घरेलू हिंसा में शिकार पुरुषों की तादाद कितनी है लेकिन कुछ गैर सरकारी संस्थान इस दिशा में जरूर काम कर रहे हैं। गैर सरकारी संस्थाओं के एक अध्ययन में यह बात सामने आई है कि भारत में नब्बे फीसद से ज्यादा पति ३ साल के रिश्ते में कम से कम १ बार घरेलू हिंसा का सामना कर चुके होते हैं। यह भी तथ्य सामने आया है कि पुरुषों ने जब इस तरह की शिकायतें पुलिस में या फिर किसी अन्य मंच पर करनी चाही तो लोगों ने विश्वास नहीं किया और शिकायत करने वाले पुरुषों को हँसी का पात्र बना दिया गया। यह एक सच्चाई है कि अब पुरुष भी हिंसा एवं उपेक्षा के शिकार हैं। वे भी अपने अस्तित्व की सुरक्षा एवं सम्मान के लिये आवाज उठाना चाहते हैं। बड़ा सच है कि जीवन में जब भी निर्माण की आवाज उठेगी, पौरुष की मशाल जगेगी, सत्य की आँख खुलेगी तब हम, हमारा वो सब कुछ जिससे हम जुड़े होंगे, वो सब पुरुष का कीमती उपहार होगा। इस अहसास को जीवंत करके ही हम पुरुष-दिवस को मनाने की सार्थकता पा सकेंगे।