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बचपन की लाइब्रेरी

रश्मि लहर
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)
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आज यकायक हवा के 
सुरम्य झोंके के साथ,
चुपके से झाँकी 
वह बचपन की लाइब्रेरी, 
मेरे सपने की प्रहरी
किताबों की मीठी-सी लहरी।

मैं पढ़ती थी जहाँ,
प्रेमचंद, शरतचंद
और शिवानी को…,
माथे पर हाथ रख सोचा 
करती थी
जीवन की रवानी को!

आज हाथ में लेकर बैठी हूँ
अपनी पुस्तक…,
अपने किरदार
तो याद आईं वो पुरानी
असंख्य किताबें बार-बार।

वह पक्षियों की कलरव के साथ,
साइकिल पर पैंगे मारना
मन में शिवानी के ‘परबू’ को दोहराना,
कोई पात्र स्वाभिमान से जी जाता
तो कोई धीरे से ‘मॅंझली दीदी’
उठा लाता…।

अक्सर पाती थी
‘निर्मला’ को अपने पास,
गुम हो जाती थी यूँ ही कभी
‘देवदास’ के साथ!

बस इसी तरह…,
अनगिनत कुँवारे अक्षर 
बने अक्षत
दे चुके थे लेखनी को दस्तक।

स्मृतियों का मुखपृष्ठ,
उस पल तक सादा था 
जीवन को जितना जिया था,
वह भी लगा, भागा था।

अक्सर भावनाओं के खुले
आसमान के नीचे,
मेरी कविता जगह पाती है
अपने पसंदीदा पात्र फिर उठा लाती है।
और मेरे नि:स्वार्थ उजले मन-गृह में,
एक छोटी-सी लाइब्रेरी
फिर बन जाती है॥