डॉ. मुकेश ‘असीमित’
गंगापुर सिटी (राजस्थान)
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शिक्षक समाज का दर्पण…
हर साल ५ सितंबर को जब ‘शिक्षक दिवस’ मनाया जाता है, तो हमें बचपन के वो सुनहरे दिन याद आ जाते हैं, जब शिक्षक सिर्फ शिक्षक हुआ करते थे, बाज़ार के विक्रेता नहीं। तब शिक्षा एक पवित्र कर्म थी, जिसे प्रदान करने वाले गुरु कहलाते थे, लेकिन आज के दौर में जब हर चीज़ का बाजारीकरण हो चुका है, तो शिक्षक की भूमिका भी बाजार की मांगों के अनुसार बदल गई है। शिक्षक अब ज्ञान का सृजनकर्ता नहीं, बल्कि एक उत्पाद विक्रेता बना दिया गया है, और शिक्षा, जिसे कभी संजीवनी समझा जाता था, अब केवल एक बिकाऊ वस्तु बनकर रह गई है। शिक्षा महंगी, महंगी किताबें, नोट्स आदि कुंजियों के रूप में सर्व होने लगी।
शिक्षा का बाजारीकरण एक ऐसा जादुई किला है, जिसने शिक्षक को कक्षा से निकालकर कोचिंग सेंटर, आभासी कक्षा और शैक्षणिक एप्स के जरिए मुनाफे कमाने के तिलिस्मी किले में कैद कर दिया है। जहां एक समय शिक्षक अपने विद्यार्थियों के चरित्र निर्माण के लिए समर्पित होते थे, वहीं आजकल उनकी प्राथमिकता फीस वसूली, तरक्की और कोचिंग पैकेज की ब्रांडिंग में बदल गई है। शिक्षक अब विद्यार्थियों को ज्ञान के बजाय परीक्षा में ज्यादा अंक दिलाने का ठेका लेते हैं।
ऐसा नहीं है कि एक ही तराजू में सभी को तोला जाए। आज भी कुछ शिक्षक हैं, जो अपना शिक्षक धर्म बखूबी निभा रहे हैं, लेकिन उनकी हालत और शिक्षा की गुणवत्ता पर तो जैसे सरकार ने अपनी आँखें बंद ही कर ली है।
चाहे निजी शिक्षक हो या सरकारी, सभी की अपनी-अपनी समस्याएं हैं।
शिक्षक दिवस पर बड़े-बड़े विद्यालयों में होने वाले कार्यक्रमों में शिक्षकों का सम्मान किया जाता है, लेकिन यह सम्मान कितना सच्चा है ? शिक्षक को १ दिन फूलों की माला पहना देने से उनकी आर्थिक, सामाजिक और मानसिक चुनौतियाँ खत्म नहीं हो जातीं। शिक्षक के जीवन की हकीकत वह नहीं है, जो शालाओं के मंच पर नजर आती है। असल में वह एक ऐसा योद्धा बन चुका है जो शिक्षा के आदर्शों को बचाने के लिए दिन-रात संघर्ष कर रहा है, लेकिन बाजारीकरण की इस आँधी में उसकी आवाज़ कहीं खो गई है।
आजकल के शिक्षकों से उम्मीद की जाती है कि वे ‘आधुनिक’ और ‘प्रगतिशील’ बनें। इसका मतलब यह है कि वे डिजिटल प्लेटफॉर्म, स्मार्ट क्लासरूम और ऑनलाइन कोर्स के विशेषज्ञ हों, लेकिन क्या यह सब करने के बाद भी वे अपने मूल कर्तव्य, यानी विद्यार्थियों को मानवीय मूल्यों का पाठ पढ़ाने में सक्षम हैं ? आज की शिक्षा प्रणाली में शिक्षक को एक सामग्री वाहक (कंटेंट डिलीवरर) बना दिया गया है, जहां वह केवल सूचनाएं प्रदान करता है, ज्ञान नहीं। शिक्षक का कार्य अब केवल ‘पाठ्यक्रम पूरा कराने’ तक सीमित हो गया है।
एक समय था जब शिक्षक समाज के नैतिक और सांस्कृतिक आधारों को मजबूत करने का माध्यम हुआ करते थे, लेकिन आज वे स्वयं उस समाज का हिस्सा बन गए हैं जो नैतिकता और मूल्यों को अपने फायदे के लिए मोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ता। शिक्षक, जो कभी विद्यार्थियों के लिए प्रेरणा का स्रोत हुआ करते थे, अब खुद अपने जीवन में प्रेरणा की तलाश में भटकते फिर रहे हैं। शिक्षक दिवस का यह समारोह क्या हमें यह सोचने पर मजबूर नहीं करता कि हम किस दिशा में जा रहे हैं ?
बाजारीकरण ने शिक्षा को एक ऐसा उद्योग बना दिया है, जहां शिक्षक भी एक कर्मचारी मात्र बन कर रह गया हैं। विद्यालय और महाविद्यालय अब शिक्षा के मंदिर नहीं, बल्कि व्यावसायिक संस्थान बन गए हैं, जहां शिक्षकों से मुनाफा कमाने के लिए उत्पादकता और क्षमता की उम्मीद की जाती है। यह वह दौर है जब शिक्षकों का मूल्यांकन उनकी शिक्षण क्षमता से नहीं, बल्कि उनके विद्यार्थियों के परीक्षा परिणाम और उनकी आभासी लोकप्रियता से किया जाता है।
इस बदलते परिदृश्य में शिक्षक के समक्ष एक नया सवाल उठता है-क्या वह शिक्षा के वास्तविक उद्देश्यों से भटक गया है ? या उसे मजबूरन भटकाया जा रहा है ! दोषी कौन ? क्या इस तंत्र को जिम्मेदार नहीं ठहराना चाहिए।
क्या उसकी प्राथमिकता अब समाज के निर्माण में योगदान देने की बजाय, अपने कैरियर को सुरक्षित रखना बन गई है ? आए दिन लक्ष्य प्राप्त कराने का दबाव, निलंबन की तलवार, आर्थिक तरक्की और प्रोत्साहन की कमी से जूझ रहे शिक्षक, कौन सुनेगा इनकी ?
आज के शिक्षकों से समाज केवल परिणाम चाहता है, साधनों की परवाह किसी को नहीं है। शिक्षक दिवस पर जब हम शिक्षक की भूमिका और उसकी चुनौतियों पर विचार करते हैं, तो यह समझना होगा कि शिक्षक भी इंसान हैं, और उन्हें भी एक ऐसा वातावरण चाहिए जहां वे अपने कर्तव्यों को सही तरीके से निभा सकें, लेकिन आज का वातावरण ऐसी प्रतिस्पर्धा से भरा हुआ है, जहां शिक्षक को खुद को साबित करने के लिए निरंतर दबाव में रहना पड़ता है। शिक्षकों के इस संघर्ष में उनका आत्मसम्मान और शिक्षा के प्रति उनका समर्पण कहीं खो-सा गया है।
आज के दौर में शिक्षक को एक नई दृष्टि की जरूरत है। उसे केवल पाठ्यक्रम पूरा कराने वाले शिक्षक से ऊपर उठकर एक मार्गदर्शक और प्रेरक की भूमिका निभानी होगी, लेकिन इसके लिए समाज को भी शिक्षकों की महत्वता को समझना होगा और उन्हें वह सम्मान देना होगा जिसके वे वास्तव में हकदार हैं। शिक्षक दिवस केवल एक दिन का उत्सव नहीं, बल्कि मौका है, मनन-चिंतन करने का, जब हम यह सोचें कि हम अपने शिक्षकों से क्या चाहते हैं और उन्हें क्या दे रहे हैं। यह जरूरी है कि हम शिक्षकों की उन चुनौतियों को समझें, जो वे बाजारीकरण के इस दौर में झेल रहे हैं। हमें यह भी सोचना होगा कि शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य क्या है और हम इसे कैसे प्राप्त कर सकते हैं। शिक्षक केवल एक कर्मचारी नहीं, बल्कि समाज के निर्माता हैं। उन्हें वह स्थान और सम्मान मिलना चाहिए, जो उनका हक है। वरना एक दिन ऐसा आएगा, जब शिक्षा केवल एक व्यापार बनकर रह जाएगी और शिक्षक केवल एक विक्रेता। इस बार यही हमारा संकल्प होना चाहिए कि हम शिक्षा के इस पवित्र कार्य को बाजारीकरण की आंधी से बचाएं और शिक्षकों को वह सम्मान और सहयोग दें, जिसके वे वास्तव में हकदार हैं।