संजय एम. वासनिक
मुम्बई (महाराष्ट्र)
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आतंक, विनाश और ज़िंदगी (पहलगाम हमला विशेष)…
वो आए और लोगों में मिल गए,
रोज घूमने भी जाते होंगे
सैलानियों के साथ सैलानियों की तरह,
किसी को कोई शक करने की
कोई गुंजाइश ही नहीं थी,
उनके मक़सद पर…।
वो पैदा होते ही इसी लिए शायद,
सरहद पार के मदरसा नाम के
पेड़ पर फलते हैं-फूलते हैं,
विषैले फूल
करवाते हैं उनसे शारीरिक और
मानसिक तैयारियाँ,
वहीं गोल टोपी के नीचे
बोए जाते हैं द्वेष के विषैले बीज,
एक-एक मस्तिष्क अंदर…।
वहीं सिखाई जाती है,
पहनावा देखकर इंसानों-इंसानों में
भेद करने की कला,
दिए जाते हैं धर्मांधता के
डोज और इंजेक्शन,
नस-नस में भर दिए जाते हैं
यह भी सिखाया जाता है,
जो उनके जैसा नहीं है
उसे जीने का हक नहीं है…।
बिना किसी शिखर या तलहटी के,
केवल एक ईश्वर की पुकार से
हृदय में निर्मित होता है
धर्मव्यवस्था के पाखंड का जहर,
चले आते हैं मचाने आतंक,
बददिमाग़, बेतरतीब तरीके से
केवल हव्वा जताने
ले लेते हैं कई मासूमों की जान,
वहीं पर जहां होता है
सैलानियों का सैलाब
बहा देते हैं रक्त पानी की तरह,
वहीं जहां होती नहीं समुचित सुरक्षा
निकल जाते हैं बड़े ही आराम से
आतंक फैलाकर।
फिर शुरू होती है बहस देशभर में,
अपना दामन बचाने के हथकंडे
अपनाए जाते हैं मीडिया पर,
चीखती चिल्लाती रहती है
आम जनता सोशल मीडिया पर,
आतंकवादी हो या राजनीतिक नेताओं को क्या फर्क पड़ता है ? कुछ जानें जाने से…
अरे उनके लिए तो वो एक संख्या होती है,
लेकिन किसी घर का कोई व्यक्ति
जब आतंकवाद का,
धर्मांन्धता का,
जातिवाद का,
शिकार बनता है।
तब दोस्तों उनकी तो,
दुनिया ही उजड़ जाती है
उनकी तो दुनिया ही उजड़ जाती है॥