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संसद ही नहीं, देश भी शर्मिंदा

ललित गर्ग

दिल्ली
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संविधान-निर्माता डॉ. भीमराव आम्बेडकर को लेकर भारतीय संसद में जो दृश्य पिछले कुछ दिनों में देखने को मिले हैं, वे न केवल शर्मसार करने वाले हैं, बल्कि संसदीय गरिमा को धुंधलाने वाले हैं। डॉ. आम्बेडकर को लेकर भाजपा और कांग्रेस आमने-सामने हैं। दोनों पक्षों ने संसद परिसर में विरोध प्रदर्शन किया। इस दौरान हाथापाई भी हुई, जिसमें भाजपा से २ सांसद घायल हो गए। लोकसभा के अध्यक्ष ओम बिरला ने सांसदों को चेतावनी देते हुए कहा कि सभी को नियमों का पालन करना पड़ेगा। संसद की मर्यादा और गरिमा सुनिश्चित करना सबकी जिम्मेदारी है। भारतीय संसद के प्राँगण में जिस तरह की अशोभनीयता उत्पन्न हुई है, वो हर लिहाज से दुखद, विडम्बनापूर्ण और निंदनीय है। आरोप-प्रत्यारोप की वजह से परिवेश ऐसा बन गया है, मानो सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच शुद्ध शत्रुता, द्वेष, नफरत की स्थितियाँ उग्रतर हो गई हो। और तो और धक्का-मुक्की, दुर्व्यवहार जैसे आरोपों को लेकर पुलिस में मामला दर्ज होना वास्तव में दुर्भाग्यपूर्ण है। इन दुखद एवं अशालीन स्थितियों का उपचार न किया गया, तो संसद में काफी कुछ अप्रिय होने की आशंकाएं बलशाली होगी।

कहना न होगा, कि देश की संसद लोकतंत्र के वैचारिक शिखर और देश की संप्रभुता को रेखांकित करने वाला शिखर संस्थान है। इसलिए इसकी गरिमा बनाए रखना सभी सांसदों का मूल कर्तव्य बन जाता है। इसके लिए जनप्रतिनिधियों से यह अपेक्षा होती है, कि वे गरिमा को भंग न करें। अपना आचरण शुद्ध, शालीन एवं व्यवस्थित रखें और व्यर्थ की बयानबाजी, धक्का-मुक्की, दुर्व्यवहार की जगह सार्थक बहस की संभावनाओं को उजागर करें। भारत की परंपरा कहती है कि वह सभा, सभा नहीं, जिसमें शालीनता एवं मर्यादा न हो। वह संसद संसद नहीं, जो लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा न करे। वह धर्म, धर्म नहीं, जिसमें सत्य न हो। वह सत्य, सत्य नहीं, जो कपटपूर्ण हो। आज संसद में सांसदों का व्यवहार शर्म की पराकाष्ठा तक पहुँच गया है। पूरे देश की जनता ने बड़ा भरोसा जताते हुए अपने प्रतिनिधियों को चुनकर लोकसभा में भेजा है, ताकि वे देश की भलाई के लिए नीति एवं नियम बनाएं और जन-जीवन को सुरक्षित तथा खुशहाल बनाते हुए देश का विकास करें। संसद की सदस्यता की शपथ लेते समय सांसदगण इन सब बातों को ध्यान में रखने की कसम भी खाते हैं, लेकिन उनकी कसम बेबुनियाद ही होते हुए संसद की मर्यादाओं को आहत कर रही है। बीते कुछ समय से धरना-प्रदर्शन के साथ सड़क पर राजनीतिक दम-खम दिखाने वाले नजारे संसद के दोनों सदनों में भी दिखने लगे हैं। भौतिक रूप से छीना-झपटी और हाथापाई की नौबत भी दिखती रही है। इससे संसद का मूल्यवान समय बर्बाद हो रहा है, यह इससे स्पष्ट होता है कि पहली लोकसभा में हर साल १३५ दिन बैठकें आयोजित हुई थीं, पर आज स्थिति नाजुक हो गई है। पिछली लोकसभा में हर साल औसतन ५५ दिन ही बैठकें हुईं। नयी लोकसभा की स्थिति तो और भी दयनीय है। संसद में काम न होना, बार-बार संसदीय अवरोध होना तो त्रासद है ही, लेकिन धक्का-मुक्की तक नौबत पहुँचना ज्यादा चिन्ताजनक है। कोई भी दल हो, उन्हें यह संदेश देने की जरूरत है कि संसद ऐसे किसी संघर्ष का अखाड़ा नहीं है। संसद देश की आवाजों और दलीलों का मंच है, यह किसी भी प्रकार की शारीरिक जोर-आजमाइश का मंच न बने, इसी में देश की भलाई है, लोकतंत्र की अक्षुण्णता है। सार्थक और उत्पादक संवाद के लिए हर सांसद को संविधान का ज्ञान, संसदीय परंपराओं की जानकारी एवं उनके प्रति प्रतिबद्धता भी होनी चाहिए। दुर्भाग्य से बहुत कम सांसद ही इस ओर ध्यान देते हैं। मुखर प्रवक्ता के रूप में विपक्ष के कई सांसद अक्सर बेलगाम, फूहड एवं स्तरहीन आरोप-प्रत्यारोप दर्ज कराने में जुट जाते हैं। आधी-अधूरी सूचनाओं या गलत जानकारी के साथ विपक्ष के नेता सरकारी पक्ष को आरोपित करने में जुट जाते हैं, बयानों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करते हैं। निश्चित ही विपक्ष लगातार अपनी जिम्मेदारी से विमुख होता दिख रहा है। लगता है विपक्ष का मकसद यही हो गया है कि संसद की कार्यवाही सुचारु रूप से न चल सके और सरकार की विफलता दर्ज हो। इस तरह की विपक्ष की बौखलाहट का बड़ा कारण भाजपा की लगातार चमत्कारी जीत है।
सांसदों को समग्रता में सोचना चाहिए कि अगर संसद हिंसा का अखाड़ा होकर बात एफआईआर की राजनीति तक बढ़ेगी, तो संसद का संचालन जटिल से जटिलतर होता जाएगा।
संसद में तनाव कोई नई बात नहीं है। पक्ष-विपक्ष में आरोप-प्रत्यारोप लगेंगे, पर ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि सच सामने आए। यदि सच सामने न आए, तो कम से कम सभी सांसद ऐसी स्थिति फिर न बनने दें, इसके लिए संकल्पित हों।पता नहीं, किसके आरोपों में कितनी सच्चाई है, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि उक्त घटना संसद ही नहीं, देश को भी शर्मिंदा करने वाली है। राजनीति का स्तर इतना नहीं गिरना चाहिए कि वह मर्यादा से विहीन दिखने लगे। ऐसी राजनीति केवल धिक्कार की पात्र होती है। संसद की मर्यादा को तार-तार करने वाली ऐसी घटनाएं और पक्ष-विपक्ष के बीच बढ़ती शत्रुता न केवल भारतीय राजनीति, बल्कि लोकतंत्र के लिए भी खतरनाक हैं। कुछ समय से यह जो भय का भूत खड़ा किया जा रहा है कि संविधान खतरे में है, वह राजनीति के छिछले स्तर का ही परिचायक है। कोई बताए तो संविधान कब और कैसे खतरे में आ गया। संसद में ऐसे विषयों को लेकर सार्थक एवं सौहार्दपूर्ण संवाद हो, वाद-विवाद की जगह कटुता न ले, विमर्श और विचार की गंभीरता से ही लोकतंत्र की शक्ति बढ़ेगी। दलगत पसंद-नापसंद स्वाभाविक है, किंतु उससे ऊपर उठकर रचनात्मक भूमिका निभाने का साहस भी जरूरी है।