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समुचित विकास की योजनाएं चाहिए, ताकि भाग्य उज्ज्वल हो

ललित गर्ग

दिल्ली
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हममें से प्रत्येक को बच्चों के अधिकारों की वकालत करने, उन्हें बढ़ावा देने, उनके शोषण को रोकने, उनका समग्र विकास करने और बच्चों का उत्सव मनाने के लिए एक प्रेरणादायी अवसर के रूप में ‘सार्वभौमिक बाल दिवस’ मनाया जाता है। इसकी स्थापना १९५४ में हुई थी।

बाल अधिकारों की घोषणा बच्चों के अधिकारों को बढ़ावा देने वाला एक अंतरराष्ट्रीय दस्तावेज़ है। इसे मूल रूप से मानवाधिकार कार्यकर्ता एग्लेंटाइन जेब ने प्रस्तावित किया था। एग्लेंटाइन जेब एक समाज सुधारक और पूर्व शिक्षिका थीं। जेब ने बाल अधिकारों की घोषणा की रूपरेखा प्रस्तुत करते हुए एक प्रस्तुति दी, जिसमें उन्होंने लिखा कि बच्चे को उसके सामान्य विकास के लिए आवश्यक साधन उपलब्ध कराए जाने चाहिए, भौतिक और आध्यात्मिक दोनों रूप से। जो बच्चा भूखा है उसे भोजन दिया जाना चाहिए, जो बीमार है उसे दूध पिलाया जाना चाहिए, जो पिछड़ा है उसकी मदद की जानी चाहिए, अपराधी बच्चे को वापस लाया जाना चाहिए, तथा अनाथ और बेसहारा बच्चे को आश्रय और सहायता दी जानी चाहिए। संकट के समय सबसे पहले बच्चे को राहत मिलनी चाहिए। बच्चे को आजीविका कमाने की स्थिति में रखा जाना चाहिए तथा उसे हर प्रकार के शोषण से बचाया जाना चाहिए। बच्चे को इस चेतना के साथ बड़ा किया जाना चाहिए कि उसकी प्रतिभाएं उसके साथियों की सेवा के लिए समर्पित होनी चाहिए। दुनिया भर में बच्चों की दुर्दशा के बारे में भावुकतापूर्वक बात करते हुए उस समय उजागर की गई ये बातें आज भी अधिक प्रासंगिक हैं। इसलिए सार्वभौमिक बाल दिवस को अधिक सशक्त एवं प्रभावी बनाने की अपेक्षा है।
भारत के सन्दर्भ में बाल दिवस को अधिक कारगर बनाने की जरूरत है। भारत में कई ऐसे बड़े नेता और दिग्गज हुए हैं, जिनका बच्चों के प्रति प्रेम जग-जाहिर है। देश के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू हों या पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम दोनों दिग्गजों ने बच्चों के हित में व्यापक कार्य किया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का बच्चों के प्रति स्नेह कुछ खास है। उन्हें भी बच्चों का प्रेमी कहा जा सकता है। आज वे एक विश्वनेता के रूप में उभरे हैं, अतः उन्हें देश एवं दुनिया के बच्चों के कल्याण के लिए कोई बड़ा उपक्रम करना चाहिए, विशेषतः भारत के बच्चों के लिए, क्योंकि शोषण, उत्पीड़न, दुर्दशा, हिंसा की घटनाएं कम होने का नाम नहीं ले रही है। नरेंद्र मोदी बच्चों के मासूम चेहरों और चमकती आँखों में भारत का भविष्य देख रहे हैं। उनका कहना है कि “बच्चों का जैसा पालन-पोषण करेंगे, वह देश का भविष्य निर्धारित करेगा”, लेकिन भारत का यह बचपन रूपी भविष्य आज नशे, शोषण, बाल-मजदूरी एवं अपराध की दुनिया में धंसता चला जा रहा है। बचपन डरावना एवं भयावह हो गया है। क्या कारण है कि बचपन अपराध की अंधी गलियों में जा रहा है ? बचपन इतना उपेक्षित एवं बदहाल क्यों हो रहा है ? न केवल अभिभावक, बल्कि समाज और सरकार इतनी बेपरवाह कैसे हो गई है ?
बाल मजदूरी से बच्चों का भविष्य अंधकार में जाता ही है, देश भी इससे अछूता नहीं रहता, क्योंकि जो काम करते हैं, वे पढ़ाई-लिखाई से कोसों दूर हो जाते हैं और जब ये बच्चे शिक्षा ही नहीं लेंगे तो देश की बागडोर क्या खाक संभालेंगे ? इस तरह एक स्वस्थ बाल मस्तिष्क विकृति की अंधेरी गली में पहुँच जाता है और अपराधी की श्रेणी में गिनती शुरू हो जाती है। बचपन की उपेक्षा एक अभिशाप है। अक्सर ‘हमें क्या लेना है’ कहकर अपने रास्ते हो लेते हैं, लेकिन कब तक बचपन को इस तरह प्रताड़ित एवं उपेक्षा का शिकार होने देंगे। कुछ बच्चे ऐसी जगह काम करते हैं, जो उनके लिए असुरक्षित और खतरनाक होती है, जैसे-माचिस और पटाखे की फैक्टरियाँ, जहां इनसे जबरन काम कराया जाता है। इतना ही नहीं, लगभग १.२ लाख बच्चों की तस्करी कर उन्हें काम करने के लिए दूसरे शहरों में भेजा जाता है। अपने स्वार्थ एवं आर्थिक प्रलोभन में इन बच्चों से या तो भीख मंगवाते हैं या वेश्यावृत्ति में लगा देते हैं। देश में सबसे ज्यादा खराब स्थिति है बंधुआ मजदूरों की, जो आज भी परिवार की समस्याओं की भेंट चढ़ रहे हैं।

सच्चाई यह है कि देश में बाल अपराधियों की संख्या बढ़ती जा रही है। बच्चे अपराधी न बनें, इसके लिए आवश्यक है कि अभिभावकों और बच्चों के बीच बर्फ-सी जमी संवादहीनता एवं संवेदनशीलता को फिर से पिघलाया जाए। उनके बीच स्नेह और विश्वास का भरा-पूरा वातावरण पैदा किया जाए। श्रेष्ठ संस्कार बच्चों के व्यक्तित्व को नई पहचान देने में सक्षम होते हैं। अतः शिक्षा पद्धति भी ऐसी ही होनी चाहिए। सरकार को बच्चों से जुड़े कानूनों पर पुनर्विचार करना चाहिए एवं बच्चों के समुचित विकास के लिए योजनाएं बनानी चाहिए, ताकि इस बिगड़ते बचपन और नव पीढ़ी के कर्णधारों का भाग्य उज्ज्वल हो सकता है।