प्रकाश निर्मल,
पुणे (महाराष्ट्र)
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यह सर्व विदित है कि जॉर्ज अब्राहम ग्रीअर्सन ने कई वर्षों के अध्ययन के बाद भारतीय भाषाओं का एक विस्तृत सर्वेक्षण रिपोर्ट १९१६ में प्रकाशित की थी। इस समय उनके द्वारा की गई व्याख्याएं आज भी विद्वानों के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हैं। हिंदुस्तान (मूल फारसी शब्द) इस क्षेत्र की सीमाओं को निर्धारित करते समय उन्होंने पूर्व में पंजाब, पश्चिम में बंगाल, उत्तर में हिमालय और दक्षिण में विंध्य पर्वत की विस्तार सीमा निर्धारित की थी। शिवाजी महाराज के काल में भी हिंदुस्तान शब्द की यही व्याप्ति थी। हिंदुस्तानी इस क्षेत्र की मानक भाषा थी। यह भाषा गंगा और यमुना के बीच के दोआब और रोहिलखंड क्षेत्र में बोली जानेवाली बोलियों से विकसित हुई। मुगलों की अरबी, फारसी, तुर्की भाषाएं बोलने वाले बहुभाषिक सैन्य की यह संपर्क भाषा बन गई। आगे जाकर मुगलों की सेना ने इसे भारतभर में फैलाया। मुसलमानों ने इसे अपनी मातृभाषा मान लिया और यही भाषा आगे चलकर उर्दू साहित्य की जननी बनी, ऐसा उनका प्रतिपादन है।
ग्रीअर्सन ने हिंदी शब्द के फारसी अर्थ को स्पष्ट करते हुए कहा कि यह शब्द विभिन्न अर्थों में उपयोग किया जाता है और भ्रमित कर देता है। भारतीय अर्थ में इसका उपयोग करते समय बंगाली और मराठी लोग भी ‘हिंदी’ होते हैं। दूसरी ओर यूरोपीय लोग इस शब्द का एकदम विपरीत अर्थ में उपयोग करते हैं। नागरी लिपि में संस्कृतनिष्ठ हिंदुस्तानी अर्थात हिंदुस्तान (तत्कालीन) में हिंदुओं की भाषा एक अर्थ है, जबकि तत्कालीन बंगाल और पंजाब के बीच के क्षेत्र की सभी भाषाओं का समूह यह उसका दूसरा अर्थ है। वर्तमान में भी हम हिंदी क्षेत्र कहते समय दूसरे अर्थ में ही इसका प्रयोग करते हैं। हिंदी के इतिहास की बात करते समय इस पूरे क्षेत्र की भाषाओं का इतिहास कथा जाता है। हालाँकि, हिंदी भाषा कहते समय हम पहले अर्थ में इस शब्द का उपयोग करते हैं, लेकिन इस भाषा को किस नाम से संबोधित किया जाए, इस बारे में विद्वानों के बीच स्वाधीनता तक भ्रम था। मुस्लिम लोग हिंदुस्तानी भाषा को फारसी लिपि में और हिंदू लोग नागरी या कैथी लिपि में लिखते थे, ऐसा भी उन्होंने लिखा है। लल्लुलाल ने उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में हिंदुस्तानी को देवनागरी में लिखने का पहला प्रयास किया, जिसे आज खड़ी बोली हिंदी या केवल हिंदी कहा जाता है। इस भाषा को अंग्रेजों ने १८८१ में बिहार राज्य की राजभाषा के रूप में मान्यता दी, लेकिन अन्य राज्यों में मान्यता के लिए स्वतंत्रता की प्रतीक्षा करनी पड़ी।
भारत सरकार ने हिंदी को अंग्रेजी के समकक्ष आधिकारिक भाषा का दर्जा देने का निर्णय लिया, जिसके बाद इसकी लिपि और मानक लेखन के संबंध में प्रश्न उठे। १९४७ में उत्तर प्रदेश सरकार ने आचार्य नरेंद्र देव की अध्यक्षता में एक समिति गठित की, जिसने एक महत्वपूर्ण सुझाव दिया कि ‘ळ’ वर्ण को हिंदी के देवनागरी में शामिल किया जाए, साथ ही भारत की राष्ट्रभाषा कौन-सी हो, इस पर चर्चा के दौरान महात्मा गांधी ने दोनों लिपियों की हिंदुस्तानी को राष्ट्रभाषा बनाने का सुझाव दिया। फारसी लिपी का हिंदुस्तानी, अर्थात उर्दू, पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा घोषित होने के बाद गांधी का २ लिपियों का प्रस्ताव पीछे हट गया। भारत की भाषाई विविधता को ध्यान में रखते हुए, ‘राष्ट्रभाषा’ की अवधारणा भी पीछे हट गई और संस्कृतनिष्ठ देवनागरी हिंदुस्तानी, अर्थात हिंदी, भारतीय संघ की) राजभाषा बन गई। हिंदी की भारत सरकार द्वारा अधिकृत पहली मानक देवनागरी वर्णमाला १९९६ में प्रकाशित हुई। हिंदी लिपि में कुछ चिह्न विभिन्न रूपों में लिखे जाते थे, जिससे भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो रही थी। इसे ध्यान में रखते हुए हर वर्ण के लिए एक ही चिह्न निश्चित किया गया। हिंदी की लिपि में विशिष्ट उर्दू और अंग्रेजी ध्वनियों को व्यक्त करने के लिए लिपि चिह्न थे;लेकिन अन्य भारतीय भाषाओं की विशिष्ट ध्वनियों को दर्शाने के लिए लिपि चिह्न नहीं थे। हिंदी, संघ की राजभाषा होने के नाते, भविष्य में भारत के सभी प्रदेशों में २ भाषाओं के बीच मध्यस्थ भाषा के रूप में काम करने वाली थी, इसलिए एक समग्र देवनागरी लिपि की आवश्यकता महसूस होने लगी। शिक्षा मंत्रालय ने १९६६ में ‘परिवर्धित देवनागरी’ नामक एक स्वतंत्र पुस्तिका तैयार की। इस प्रकार ‘मानक देवनागरी लिपि’ और ‘परिवर्धित देवनागरी लिपि’ के रूप में २ स्वतंत्र पुस्तिकाएँ केंद्रीय हिंदी संचालनालय के माध्यम से सबसे पहले प्रकाशित हुईं। विशेष बात यह थी कि इस मानक देवनागरी लिपि में गुंडी वाले ध, भ, श और खडी पायी वाले ‘ल’ चिह्नों के साथ ही ड़, ढ़, ळ चिह्नों का भी समावेश किया गया था। ऋ, लृ स्वर और क्ष, ज्ञ, श्र संयुक्त अक्षर भी थे। इस मानक वर्णमाला की पुस्तिका में परिशिष्ट जोड़कर कश्मीरी, सिंधी, तमिऴ, मलयाळम और उर्दू भाषाओं के विशिष्ट उच्चारणों के लिए विशेष चिह्न तैयार कर उन्हें परिशिष्ट में दर्शाया गया। उदाहरण के लिए अंग्रेजी में जेडएच द्वारा दर्शाए गए कोऴिकोड (कोझिकोडे नामक कोई शहर नही हैं) शब्द के उच्चारण (ळ के नीचे बिंदु) को ष के नीचे बिंदु देकर दर्शाया गया और उर्दू के क़, ख़, ग़, ज़, झ़, फ़ चिह्नों की भी व्यवस्था की गई थी। परभाषिय उच्चारणों को देवनागरी में लिखने या कार्यालयीन हिंदी में लिखने के लिए परिवर्धित वर्णमाला होते हुए भी मानक वर्णमाला में फिर से यह परिशिष्ट क्यों जोड़ा गया, यह स्पष्ट नहीं है।
◾परिवर्धित देवनागरी-
‘समस्त भारतीय भाषाओं के लिए सामान्य राष्ट्रलिपि’ शीर्षक के अंतर्गत प्रकाशित ‘परिवर्धित देवनागरी’ इस पुस्तिका में हिंदी को राष्ट्रभाषा नहीं कहा गया है, लेकिन देवनागरी लिपि को राष्ट्रीय लिपि कहा गया है। इस पुस्तिका का उद्देश्य सभी भारतीय भाषाओं को एक ही लिपि में लिखना था, ऐसा तत्कालीन निदेशक ए. चंद्रहासन ने कहा है। १९०५ के वाराणसी अधिवेशन में तिलक ने भारत की सभी भाषाओं को देवनागरी लिपि में लिखे जाने की वकालत की थी, ऐसा भी इसमें उल्लेख किया गया है। हालांकि उस समय अरबी फारसी लिपि की कमियाँ ध्यान में रखते हुए हमारे शीर्षस्थ नेता गण हिंदुस्तानी (हिंदी) को देवनागरी लिपि में ही लिखने के पक्ष में थे, अत: तिलक का देवनागरी लिपि पर जोर देना स्वाभाविक ही था। आगे महात्मा गांधी ने हालांकि हिंदुस्तानी भाषा को दोनों लिपियों (हिंदी और उर्दू) में समांतर रूप से राजभाषा का दर्जा मिलने का समर्थन किया, जिसे व्यापक विरोध का सामना करना पड़ा। पाकिस्तान के निर्माण के बाद उर्दू की दावेदारी खत्म हो गई, फिर भी अंग्रेजी की दावेदारी प्रबल थी। इस पृष्ठभूमि में इस पुस्तिका में हिंदी और मराठी के लिए प्रयुक्त देवनागरी लिपि की रोमन और अरबी-फारसी लिपि से तुलना की गई है एवं भारतीय भाषाओं के लिए सामान्य लिपि के रूप में देवनागरी की उपयुक्तता का विस्तार से वर्णन किया गया है। इस पुस्तिका में विभिन्न भाषाओं की वर्णमाला और उनके लिए वैकल्पिक देवनागरी वर्णमाला के रूप में २ गैर-देवनागरी भाषाओं की वर्णमालाएँ तैयार की गई हैं। भारतीय भाषाओं और लिपियों के प्रति रुचि रखने वाले अध्ययनकर्ताओं के लिए यह पुस्तिका भी उपयोगी है।
◾देवनागरी लिपि में सुधार-
१९८९ में केंद्रीय हिंदी निदेशालय ने देवनागरी लिपि का नया संस्करण प्रकाशित करते समय ‘ळ’ की स्थिति को बनाए रखा, लेकिन पुस्तिका के समग्र स्वरूप में कई परिवर्तन किए गए। प्रमुख परिवर्तन इस प्रकार हैं-
🔹मानक हिंदी वर्णमाला और परिवर्धित वर्णमाला को एक ही पुस्तिका में, लेकिन स्वतंत्र रूप से दर्शाया गया।
🔹मानक हिंदी वर्णमाला में ळ को शामिल रखा गया, लेकिन लृ को हटा दिया गया।
🔹मानक वर्णमाला में संयुक्त व्यंजनों को स्वतंत्र रूप से दर्शाते हुए उसमें त्र को जोड़ा गया।
🔹उर्दू के ख़, ज़ और फ़ अक्षरों को परिशिष्ट से हटाकर मानक वर्णमाला में शामिल किया गया और उन्हें ‘गृहीत स्वन’ शीर्षक दिया गया। अंग्रेजी उच्चारण ऑ को भी इसी वर्ग में शामिल किया गया।
🔹देवनागरी अंकों के साथ अंग्रेजी अंकों को भी मान्यता दी गई। इस बार देवनागरी अंक ५ को मराठी की तरह मान्यता दी गई, जबकि ८ को हिंदी के अनुसार ही रखा गया।
🔹 इस पुस्तिका में परिवर्धित लिपि में उर्दू का व्यंजन अ़ को शामिल किया गया।
🔹कुछ कश्मीरी और सिंधी भाषाओं के चिह्नों में बदलाव किए गए।
🔹अंग्रेजी शब्द कोझीकोड में जेड एच से व्यक्त उच्चारण को ष़ की बजाय ऴ से व्यक्त किया गया।
◾ळ को अलविदा!-
उपरोक्त ळ युक्त मानक वर्णमाला २००6६ तक उपयोग में थी, पर बॉलीवुड में उर्दू के प्रभाव के कारण और लौकिक संकृत में ळ युक्त शब्द न होने के कारण मानक हिंदी में ‘ळ’ का प्रयोग नहीं हो पाया। पुष्पलता तनेजा के नेतृत्व में अद्यतन की गई देवनागरी लिपि से ळ को हटा दिया गया! यह एक बेहद अपरिपक्व, दुर्भाग्यपूर्ण और भारतीय भाषा व्यवहार पर दीर्घकालिक प्रभाव डालने वाला निर्णय था। हिंदी को संघ सरकार के राजभाषा का दर्जा बृहद हिंदी समूह, अर्थात हिंदी क्षेत्र के कारण मिला है। हिंदी क्षेत्र के हिमाचल और उत्तराखंड के पहाड़ समूह, राजस्थान और मध्य प्रदेश के राजस्थानी समूह और हरियाणा व दिल्ली के हरियाणवी भाषा समूह ‘ळ’ उच्चारी भाषा समूह माने जाते हैं। इन भाषाओं में अब ज्यादा लेखन नहीं होने के कारण उन्होंने हिंदी को अपनी मानक भाषा के रूप में स्वीकार किया है। इस बड़े हिंदी भाषा समूह के भौगोलिक क्षेत्र में हिंदी ही पहली भाषा के रूप में सिखाई जाती है, इसलिए ‘ळ’ उच्चारित क्षेत्र के लोगों को अब अपनी ही बोली के ‘ळ’ को कैसे लिखना है, यह समझ में नहीं आता। इस क्षेत्र में कोई ल लिखकर ळ पढ़ता है, तो कोई ल के नीचे बिंदी लगाकर ळ का उच्चारण करता है। बहुत कम लोग ळ लिख सकते हैं। सीखने का मतलब अपने ही क्षेत्र के एक उच्चारण को भूल जाना हो गया है। पिछले कुछ वर्षों में हिंदी पट्टी के शहरी लोग यह उच्चारण भूल गए हैं। इसके विपरीत, बिना किसी स्कूल में गए व्यक्ति ने अभी भी इस ध्वनि को श्रुति के आधार पर बनाए रखा है।
◾ळ की वापसी-
२०१० या १६ में जारी हिंदी की देवनागरी लिपि में मराठी और अन्य भारतीय भाषाओंका ‘ळ’ वर्ण मानक वर्णमाला और परिवर्धित वर्णमाला में शामिल नहीं था। सरकारी कार्यालय कितनी लापरवाही से काम करते हैं, इसका यह एक अच्छा उदाहरण है। १६-१७ के आसपास मैंने इस मामले का पीछा करना शुरू किया; तब २०१९ में इस गलती को सुधारकर वह वर्ण परिवर्धित वर्णमाला में शामिल किए जाने की सूचना केंद्रीय हिंदी निदेशालय ने मुझे दी, लेकिन फिर भी ‘ळ’ की उपेक्षा समाप्त नहीं हुई। दक्षिण में ‘ळ’ और ‘ऴ’ का चिह्न हिंदी में अमल में लाया गया हैं, जबकि महाराष्ट्र में इसे नजरअंदाज किया गया। हम आशा करते हैं कि संघ सरकार का राजभाषा विभाग इस नई देवनागरी को ज्यादा से ज्यादा विभागोंतक पहुंचाए और इन नवीन प्रावधानों का ज्यादा से ज्यादा प्रयोग हो।
◾नई देवनागरी २०२४-
इस नई अद्यतन देवनागरी लिपि में ‘ळ’ वर्ण को मानक वर्णमाला का हिस्सा मान्य किया गया है। इसका मतलब है कि एक प्रकार से यह चक्र पूर्ण हो गया है। १९४७ में आचार्य नरेंद्र देव की समिति द्वारा की गई सिफारिश फिर से मान्य की गई है। मैंने हिंदी क्षेत्र की कई बोलियों में, विशेष रूप से हरियाणवी, राजस्थानी (मारवाडी) और पहाड़ी (गढवाली) में ‘ळ’ के होने के प्रमाण प्रस्तुत किए थे। निदेशालय ने इन प्रमाणों पर विचार किया, ऐसा इस निर्णय से स्पष्ट होता है। इस अवसर पर एक और प्रमाण प्रस्तुत करना चाहता हूँ, वह यह कि खड़ी बोली में भी ‘ळ’ का उपयोग होता है। हाँ, हिंदुस्तानी की जनक मानी जाने वाली खड़ी बोली में ‘ळ’ का उपयोग होता है, इसके स्पष्ट प्रमाण हैं। मेरठ और दिल्ली क्षेत्र में बोली जाने वाली कौरवी हरियाणवी बोली समूह का हिस्सा है, और इसके परिनिष्ठित (स्थिर) रूप को ही खड़ी बोली कहा जाता है। इस बोली में बावळी शब्द है, जिसे हिंदी में बावली और बावड़ी के २ वर्तनियों के रूप में दर्शाया गया है। ग्रियर्सन ने बैल के लिए खड़ी बोली में बळद शब्द होने की बात कही है। इसके अलावा दिल्ली के कई ‘ळ’ युक्त शब्द, जैसे तियळ, धौळा, काळी आदि हिंदी में आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इस नए संस्करण से हिंदी क्षेत्र की भाषाओं के नाम, जैसे थळी, शहरों के नाम जैसे अंबाळा, पर्वतों के नाम जैसे अडावळी भी सही रूप में लिखे जाएंगे, क्योंकि जिस कमी के कारण हमने अरबी फारसी लिपि का त्याग किया, वही कमी यदि हिंदी में भी दिखती है, और उसमे सुधार करने से हम हिचकिचाते हैं तो फिर हिंदी को देवनागरी में लिखने का उद्देश्य ही सफल नहीं होता है। भारत जैसे व्यापक देश के संघ शासन की भाषा अपने ही किसी उच्चारण को कैसे त्याज्य समझ सकती है ? इस लिए मेरा आह्वान है, कि ळ क्षेत्र के साहित्यकार अपनी बोलियों के ळ युक्त उच्चारण बेझिझक हिंदी में लिखें और हिंदी क्षेत्र से विस्मृति के कगार पर जानेवाला पाली भाषा और पवित्र वेदों का यह उच्चारण फिर से जीवित रखें। बाकी भारतीय भाषाओं के उच्चारण भी त्रयस्थ भाषाओं तक हिंदी के माध्यम से ‘सत्य रूप’ में पहुंचेंगे यह तो एक मूल्यवर्धित लाभ होगा।
(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुम्बई)