हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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तर्क की तलवार से खेलना छोड़ दो,
वरना खुद के ही गले कट जाएंगे
अंधेरों की दीवार से टकराना छोड़ दो,
वरना खुद के ही सर फट जाएंगे।
लोग लगे हैं ढूंढने परमात्मा को,
चतुर बुद्धि के चालाक तर्क से
इन्हें लगता है कि इस तरह से,
निकल जाएंगे अश्रद्धा के नर्क से।
समझते नहीं कि वह भाव से भासित,
मिल नहीं सकता है तर्क के अंधेरे में
वह श्रद्धा के भवन में बसने वाला तो,
मिलेगा सिर्फ भक्ति ज्ञान के सवेरे में।
मज़हब में नहीं बाँटता है हमको वह,
ये तो हमारी खुराफात के झमेले हैं
इस दुनिया में बेताब भीड़ होकर भी,
देखो तो इन्सान अकेले के अकेले हैं।
फिर क्यों बाँटते हो जाति-धर्म में ?
जब जीवन समझ में ही न आता है
यहाँ जन्मने वाला हर एक शख्स बस,
इक दिन मरने के लिए ही तो आता है।
लोग पूछते हैं सवाल पर सवाल कई,
ईश्वर तुम्हें कहाँ और कैसे दिखता है ?
ईश्वर था ही नहीं, न है, न ही तो होगा,
सब झूठ है, यहाँ झूठ ही बिकता है।
फूलों की रंगत और परिंदों की वाणी,
फलों के रस में फिर तुम्हें क्या दिखता ?
जहाँ चले न तेरी, वहाँ उसी पे छोड़ता है,
फिर भी कहता है कि झूठ ही बिकता है।
हर फल में स्वाद है, जीव में आवाज है,
जड़ में चेतन है, जीवन की वो आग है।
माँ की ममता, पिता की क्षमता अवाद है,
तर्क नहीं मिलता है, मिलता तो भाव है।
आज हो रहा है मानुष कुछ ऐसा कि,
जिसमें न ही तो श्रद्धा रही न भाव है।
फिर पूछता है कि “है कहाँ वह ईश्वर ?”
वह तो श्रद्धा के महल में बैठा भाव है॥