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अच्छे विद्यालय,अच्छे गुरु और अच्छा स्नेह मिला

सविता धर
नदिया(पश्चिम बंगाल)
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मेरा विद्यार्थी जीवन स्पर्धा विशेष…..

‘विद्यार्थी’ २ शब्दों के मेल से बना है-विद्या व अर्थी। विद्या का अर्थ हुआ ज्ञान और अर्थी माने चाहने वाला। देश का एक अच्छा नागरिक हम तभी हो सकते हैं,जब हम अपने अध्ययनकाल में अच्छे विद्यार्थी होंगे। ऐसे ही मेरा विद्यार्थी जीवन बहुत अच्छा था। बचपन से ही पिताजी ने अच्छे-अच्छे विद्यालय में मेरा दाखिला करवाया। सौभाग्य से गुरु भी बहुत अच्छे मिले। मेरी प्राथमिक शिक्षा मिशन विद्यालय(शाहजहांपुर-उत्तर प्रदेश) में हुई। मिशन विद्यालय में मुझे सभी अध्यापक का बहुत स्नेह-प्यार मिला।
मिशन विद्यालय में मैं मॉनिटर थी। कक्षा पांचवी तक मैंने उर्दू ली,फिर छठी से संस्कृत विषय लिया। विषय परिवर्तन इसलिए किया कि,मेरे दादा जी संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। वे मुझे हमेशा कहते थे-संस्कृत भाषा को ही लेना।
मेरे बचपन की कुछ बातें आज भी मुझे आनंद विभोर कर देती है,जैसे-एक बार विद्यालय में टीका लगाने वाले आए। बस फिर क्या था,मेरी तो हालत खराब। मॉनिटर होने के नाते मुझे हाजिरी लेनी थी, सो जल्दी-जल्दी काम पूरा किया। कुछ समय बाद अध्यापिका आने वाली थी,तो मैंने सबको पंक्ति में खड़ा किया तथा बाहर जाने को कहा।
जिस समय सब निकल रहे थे,उस समय चुपचाप हम वहाँ से रफूचक्कर हो गए। पता नहीं,कितनी देर तक मैं छिपी रही। वो भी कहाँ ?..मालूम,बाथरुम में। अब आप लोग लगे ना हँसने। खैर,जैसे-तैसे वहाँ से निकली,तब तक पूरा विद्यालय खाली हो गया था। २ दिन बाद शाला गई तो वो तमाशा हुआ कि पूछो ही मत।
दूसरी घटना भी बड़ी रोचक है-पिताजी रोज कुछ हाथ खर्च आदि दिया करते थे। मान लीजिए ४ आने(तब आने का हिसाब था)। २ आने मूंगफली के और २ आना गुल्लक में डाल देते थे। एक दिन मैं छत पर बैठ कर गुल्लक में पैसे भर रही थी,कि अचानक इतने जोर की आंधी आई कि मेरे नोट हवा में उड़ने लगे। मैं पागल जैसी लपक कर नोटों को पकड़ने की कोशिश करने लगी,क्योंकि रोज मूंग फली जो खानी थी।
अब एक और याद,विद्यालय बदलने की। वो यह कि पिताजी ने कहा कि विद्यालय बदलना होगा। मैंने पिताजी से कहा कि,मेरी सहेलियाँ छूट जाएंगी, आपको तो समझ में ही नहीं आएगा।
इसके बाद हमने कदम रखा हाईस्कूल में। यह भी मजेदार जीवन था। मेरे विद्यालय का नाम था-कानपुर कन्या महाविद्यालय। वहाँ भी मुझे कक्षा मॉनिटर बनाया गया। सभी अध्यापिकाएं अच्छी थी। यहाँ वसंतोत्सव ख़ूब धूमधाम से मनाया जाता था। १५ अगस्त और २६ जनवरी को रंगारंग कार्यक्रम होते थे। हर उत्सव में मिठाई पाने की धक्का-मुक्की में बड़ा मजा आता था। सभी अध्यापिकाएं खूब मन लगा कर हमको पढ़ाती थी।
जब मैं ग्यारहवीं पढ़ती थी,तब की एक बात याद आ रही है-हमारी जो हिंदी शिक्षक थी,वो आते ही धप्प से कुर्सी पर बैठ जाती थी,और आँख मूँद के रस-अलंकार पढ़ाने लगती थी। लड़कियों को समझ में आया कि नहीं,इस बात से वो बेखबर थी।
मॉनिटर होने के नाते मुझे एक युक्ति सूझी। एक दिन उनके आने के पहले ही मैंने कुर्सी की एक टाँग के नीचे का हिस्सा सरका दिया। हाँ,बता दूँ कि ऐसा क्यों किया।
एक दिन क्या हुआ,मैडम आई और धप्प से कुर्सी पर बैठ गई। बस फिर जो हुआ पूछिए नहीं,गिरी धड़ाम…। हुआ यह कि,उन दिनों हमारी कक्षा का फ़र्श बन रहा था,जमीन में कंकर-पत्थर बिछाए गए थे। तो कुर्सी का पायां डगमगा गया और अध्यापिका चारों खाने चित्त। आग बबूला होकर सबको खड़ा कर दिया। एक सप्ताह तक कक्षा नहीं आई। तब हमने राहत की साँस ली। बाद में वो ठीक से कक्षा लेने लगी।
उच्च विद्यालय में भी ज्यादतर अच्छी अध्यापिकाएं थी। हमारी संस्कृत शिक्षक,अंग्रेजी और चित्र कला की शिक्षक बहुत अनुभवी थी। अपने विद्यालय के विभिन्न कार्यक्रमों में मुझे अवश्य भाग लेना पड़ता था,क्योंकि मैं विद्यालय मॉनिटर थी।
इसी जिंदगी में मैंने अनेक प्रतियोगिताओं में प्रथम, द्वितीय पुरस्कार जीते। हमारे विद्यालय में बहुत धूमधाम से ‘शिक्षक दिवस’ मनाया जाता था,तब मुझे प्रधानाचार्य की भूमिका अदा करने को कहते थे।
अनुभवी गुरुओं के संरक्षण में मैंने विद्यालय जीवन में बहुत कुछ सीखा। प्रतिवर्ष मॉनिटर होने की वजह से मैंने नेतृत्व करना सीखा।
उच्च विद्यालय पूरा होने के बाद मैंने महाविद्यालय में प्रवेश लिया। मेरे महाविद्यालय का नाम था जुहारी देवी डिग्री महाविद्यालय (कानपुर)। मेरी प्रधानाचार्य श्रीमती सुमन थी-एकदम सादा जीवन उच्च विचारों वाली।
श्रीमती सुमन सभी विद्यार्थियों को बहुत प्यार करती थी। उस समय हमारे विद्यालय में एनसीसी लेना जरुरी था। रोज परेड होती थी। दक्ष विद्यार्थी (छात्रा) १५ अगस्त को दिल्ली की परेड में और २६ जनवरी की परेड में भी जाती थी।
एनसीसी का १० दिन तक शिविर होता था,और बहुत मजा आता था। हम अपने-आप जंगल को साफ करके तंबू लगाते थे। सब कुछ तरीके-अनुशासन से होता था। रात को मनोरंजन होता था। मुझे भी इसमें रजत पदक मिला था। मैंने महाविद्यालय में एनएसएस के शिविर में भी सहभागिता की। कुल मिलाकर यही कहना है कि, मेरा सौभाग्य था कि मुझे बचपन से ही अनुभवी गुरुओं का सानिध्य मिला,जिससे मैंने भी आगे चलकर अपने विद्यार्थियों का सही मार्ग दर्शन किया।

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