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अनाथ बच्चों के लिए संवेदनशील पहल

ललित गर्ग
दिल्ली

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भारत में नरेन्द्र मोदी सरकार की आठवीं वर्षगांठ पर कोरोना के समय अनाथ हुए बच्चों के लिए बाल-कल्याण एवं राहत योजना घोषित करते हुए बच्चों को उन्नत, अपराधमुक्त एवं कल्याणकारी भविष्य देने की स्वागत योग्य पहल की गई है। प्रधानमंत्री ने बच्चों के लिए अनेक लाभ एवं बाल-कल्याण की घोषणाएं की, जिससे न केवल सरकार के लोकल्याणकारी स्वरूप को बल मिलेगा, बल्कि दुनिया की सरकारों के लिए यह अनुकरणीय एवं प्रेरक उदाहरण होगा। पीएम केयर्स फॉर चिल्ड्रन योजना के जरिए बच्चों के लिए छात्रवृत्ति और अन्य आर्थिक सहायता की घोषणा से ‘अंतर्राष्ट्रीय बाल रक्षा दिवस’ की सार्थकता सामने आएगी।
प्रधानमंत्री मोदी ने स्कूल जाने वाले बच्चों को छात्रवृत्ति दी है।
बेशक, आज ऐसे बच्चों को अधिकतम देखभाल व मदद की जरूरत है। केंद्र ही नहीं, राज्य सरकारों को भी ऐसे बच्चों के साथ खड़ा होना चाहिए।दुनिया में दूसरी सरकारों ने भी अपने यहां अनाथ हुए बच्चों के हित में कदम उठाए हैं। सरकारें होती ही इसलिए हैं कि जरूरतमंदों को भरपूर सहारा दें, विशेषतः बच्चों के जीवन पर छाए अंधेरों को दूर करें। इसकी आवश्यकता इसलिए भी है कि भारत में आज भी १४ साल से कम उम्र के ४० प्रतिशत बच्चे चाय की होटल, ढाबा, दुकान और मोटर मैकैनिक के अलावा अनौपचारिक क्षेत्र में न्यूनतम वेतन पर काम करते हैं। कुछ तो बेहद कम मजबूरी में काम करते हैं या कुछ बच्चों के माता-पिता हाथ में हुनर का हवाला देने की बात कहकर उन्हें किसी न किसी काम में लगा देते हैं। इससे उनकी शिक्षा पर गहरा असर पड़ता है। खेलने-कूदने और शिक्षा से लेकर उनके भरण-पोषण तक हर जगह बच्चों के अधिकारों को अनदेखा किया जाता है। बच्चों के अधिकार क्या हैं और कैसे हो इनकी सुरक्षा, इस पर गंभीरता से मंथन की जरूरत है। नरेन्द्र मोदी बच्चों को देश के भविष्य की तरह देखते थे, लेकिन उनका यह बचपन रूपी भविष्य आज अभाव, नशे, उपेक्षा एवं अपराध की दुनिया में धंसता चला जा रहा है। बचपन इतना उपेक्षित, डरावना एवं भयावह हो जाएगा, किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी। आखिर क्या कारण है कि बचपन अभाव एवं उपेक्षा की अंधी गलियों में जा रहा है बचपन के प्रति न केवल अभिभावक, बल्कि समाज और सरकार इतनी बेपरवाह कैसे हो गई है ? यह प्रश्न हमें झकझोर रहे हैं।
कुछ ऐसी की पीड़ा ने नरेन्द्र मोदी को झकझोरा है, इसलिए एक संवेदनशील प्रधानमंत्री के रूप में मोदी ने राहत-मदद की घोषणा करते हुए उचित ही कहा है कि मैं प्रधानमंत्री के रूप में नहीं, बल्कि परिवार के सदस्य के रूप में संबोधित कर रहा हूँ। ऐसे बच्चों की शिक्षा एवं खुशहाली से लेकर रोजगार तक की चिंता सरकार को करनी चाहिए। बच्चे स्वास्थ्य कार्ड से ५ लाख रुपए तक की मुफ्त सेवाओं का लाभ उठा सकते हैं। सभी सरकारों को यह सुनिश्चित करना होगा कि जरूरतमंद बच्चों तक मदद आसानी से पहुंच सके। यदि हो सके, तो उन सभी बच्चों को मदद दी जाए, जो माँ या पिता में से किसी एक को भी खो चुके हैं। दोनों अभिभावकों के कोरोना से निधन की पीड़ा एवं वेदनादायक स्थितियों को मानवीय व व्यावहारिक दृष्टि से देखना चाहिए। बच्चों के आवेदनों में तकनीकी खामियों या कमियों को भी उदारता से दूर करना चाहिए क्योंकि आजादी का अमृत महोत्सव मनाते हुए निर्मित हुए भारत में आज भी हम यत्र-तत्र १२-१४ साल के बच्चे को टायर में हवा भरते, पंक्चर लगाते, चिमनी में मुँह से या नली में हवा फूंकते, जूठे बर्तन साफ करते या खाना परोसते देखते हैं और जरा-सी भी कमी होने पर उसके मालिक से लेकर ग्राहक द्वारा गाली देने से लेकर, धकियाने, मारने-पीटने और दुर्व्यवहार होते देखते हैं तो अक्सर ‘हमें क्या लेना है’ या ज्यादा से ज्यादा मालिक से दबे शब्दों में उस मासूम पर थोड़ा रहम करने के लिए कहकर अपने रास्ते हो लेते हैं, लेकिन कब तक हम बचपन को इस तरह उपेक्षा का शिकार होने देंगे।
हमें खुशहाल बचपन को जीवंत करने के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए। एक-एक बच्चे तक मदद पहुंचाने की प्रधानमंत्री की कोशिश तभी कामयाब होगी, जब समाज के नागरिकों के साथ-साथ अधिकारी भी पूरी ईमानदारी से अनाथ बच्चों का सहारा बनेंगे। यहां केवल सरकार ही नहीं, स्थानीय सामाजिक संगठनों की भी जिम्मेदारी बनती है। आखिर ऐसे कितने बच्चे हैं ?
योजना की सफलता इसी में है कि हर जरूरतमंद बच्चे तक जल्द से जल्द मदद पहुंचे। जरूरत इस बात की भी है कि बच्चों को डांटने और मारने की बजाय उन्हें स्नेह एवं प्यार से समझाया जाए।
कमजोर नींव पर हम कैसे एक सशक्त राष्ट्र की कल्पना कर सकते हैं ? कैसा विरोधाभास है कि हमारा समाज, सरकार और राजनीतिज्ञ बच्चों को देश का भविष्य मानते नहीं थकते, लेकिन क्या इस उम्र के लगभग २५ से ३० करोड़ बच्चों से बाल मजदूरी के जरिए उनका बचपन और उनसे पढने का अधिकार छीनने का यह सुनियोजित षड्यंत्र नहीं लगता ? बाल मजदूरी से बच्चों का भविष्य अंधकार में जाता ही है, देश भी इससे अछूता नहीं रहता। इस तरह एक स्वस्थ बाल मस्तिष्क विकृति की अंधेरी और संकरी गली में पहुँच जाता है और अपराधी की श्रेणी में उसकी गिनती शुरू हो जाती हैं। आवश्यक है कि अभिभावकों और बच्चों के बीच बर्फ-सी जमी संवादहीनता एवं संवेदनशीलता को फिर से पिघलाया जाए। फिर से उनके बीच स्नेह, आत्मीयता और विश्वास का भरा-पूरा वातावरण पैदा किया जाए। सरकार को बच्चों से जुड़े कानूनों पर पुनर्विचार करना चाहिए एवं बच्चों के समुचित विकास के लिए योजनाएं बनानी चाहिए, ताकि इस उपेक्षित एवं अभावग्रस्त बचपन और भटकते राष्ट्र के नव पीढ़ी के कर्णधारों का भाग्य और भविष्य उज्ज्वल हो सके। ऐसा करके ही हम रक्षा दिवस को मनाने एवं प्रधानमंत्री की बाल-कल्याणकारी योजनाओं की सार्थकता हासिल कर सकेंगे।

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