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अब हो नया सवेरा

ललित गर्ग
दिल्ली
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‘आजादी का अमृत महोत्सव’ मनाने के बाद शताब्दी वर्ष की ओर अग्रसर होते हुए एक बड़ा एवं बुनियादी प्रश्न खड़ा है कि, क्या हम वास्तविक रूप में आजाद हैं ? सवाल यह भी कि, क्या हम आजादी के सही मायने जानते हैं ? क्या हम आजादी का सही अर्थ समझ पाए हैं ? ये तमाम प्रश्न न केवल हमारी आजादी पर प्रश्न चिह्न लगाते हैं, बल्कि समाज के बौद्धिक वर्ग व आम जनता को आजादी के सही मायने खोजने के लिए भी प्रेरित करते हैं। क्या हमारे पास ईमानदार एवं नैतिक होने की कोई आजादी बची है ? क्या हम वास्तविक गरीबी की दबी हुई आवाजों के बीच जीवित रह सकते हैं ? क्या हमारे राजनेता आम आदमी की तरह बारिश और भूकंप में भी नंगे पैर चलकर ऊंचे दफ्तरों तक जाते हैं ? इन स्थितियों के बीच आजादी की बात भ्रमपूर्ण ही प्रतीत होती है।
देश में बढ़ता भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, भुखमरी, कुपोषण तथा गरीबी के कारण आजादी शब्द के मायने खत्म होते जा रहे हैं। जिस देश की जनता अपने लिए भरपेट भोजन जुटाने के काबिल भी नहीं, वहां आजादी की बातें भी बंधन में जकड़ती महसूस होती हैं। इन अभावों के साथ कैसे कहें कि, हम आजाद हैं। आज हम कहीं नक्सलवाद से लड़ रहे हैं तो कहीं आतंकवाद से, कहीं जातिवाद से तो कहीं भ्रष्टाचार से, और तो और हमारे देश की अधिकतर महिलाएं तो सिर्फ अपने अस्तित्व के लिए लड़ रही हैं। आज भी उन्हें इंतजार है उस आजादी का, जो एक औरत को उसकी सही पहचान दिलाने में मदद करे, देश की आधी आबादी को इंतजार है उस आजादी का, जो उनकी प्रतिभा को पनपने के पूर्ण अवसर दें। देश की बहन-बेटियों को इंतजार है उस आजादी का, जहां वे बेखौफ रहकर अपने सम्मान की रक्षा कर पाएं। हमारे यहां उन्हें समानता का अधिकार देना तो दूर, एक आम नागरिक होने तक का सम्मान प्राप्त नहीं है। इसलिए बार-बार उनके अस्तित्व व आत्म-सम्मान को कुचला जाता है।
आजादी एक सार्वभौमिक एवं सर्वकालीन मूल्य है, इस मूल्य की प्रतिष्ठापना के लिए निरन्तर समग्र क्रांति की अपेक्षा रहती है। जब तक व्यक्ति-व्यक्ति के संस्कारों एवं जीवनशैली में जमी दासता, हीनता, अनुशासनहीनता, उच्छृंखलता, जड़ता की परतें नहीं उतर जाती, तब तक वास्तविक आजादी का स्वाद चखना मुश्किल है। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि, व्यक्ति के मनोभावों से समाज एवं राष्ट्र प्रभावित होता है। आजादी एक प्रकार की मनःस्थिति है, जो विचारों के पर्दे पर आकार पाती है। आजादी का मूल्य देश, काल, व्यक्ति और परिस्थिति के सन्दर्भ में परिवर्तित होता रहा है। उसका कोई एक स्वरूप या धारणा नहीं है। इसलिए उन सन्दर्भों में उसका सापेक्ष मूल्य करते हुए इसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि, आजादी के नाम पर भी स्वच्छन्दता एवं उच्छृंखलता को प्रोत्साहन मिलता है। इसलिए सही अर्थ में आजाद या स्वतंत्र वही हो सकता है, जिस पर अपना शासन हो। निज पर शासन फिर अनुशासन-यही वास्तविक आजाद होने का मर्म है। आत्मानुशासित व्यक्ति अपने परिवार, संगठन, समाज और राष्ट्र की उन सभी सीमाओं को स्वीकार करता है, जिनमें उसका व्यक्तित्व विकास होता है, समाज एवं राष्ट्र का वास्तविक विकास होता है।
आज समाज का सारा नक्शा बदल रहा है। परस्पर समभाव या सद्भाव केवल अब शिक्षा देने तक रह गया है। हो सकता है भीतर ही भीतर कुछ घटित हो रहा है। ये हालात जो सामने आ रहे हैं, वे आजादी के पहले से ही अन्दर ही अन्दर पनप रहे थे। राष्ट्र जिन डाँटों के सहारे सुरक्षित था, लगता है उनको हमारे नेताओं की मत-नीति, कट्टरवादियों की उन्मादी सोच व अवांछनीय तत्वों ने खोल दिया है। संविधान निर्माताओं ने धर्मनिरपेक्ष का शब्दार्थ कुछ भी किया हो, सकारात्मक या नकारात्मक, पर अगर देश को एक बनाए रखना है, साम्प्रदायिक सौहार्द रखना है, तो सभी धर्मावलम्बियों को दूसरे धर्म के प्रति आदर भाव रखना होगा। अन्यथा स्वयं को बहुसंख्यक बनाने की होड़ के बहाने चेहरे बदलते रहेंगे, झण्डे बदलते रहेंगे, नारे बदलते रहेंगे, परिभाषाएं बदलती रहेंगी, मन नहीं बदल सकेंगे।
भ्रष्टाचार देश में अगर बढ़ रहा है, तो किसकी जिम्मेदारी बनती है ? भ्रष्टाचार को कौन खत्म करेगा ? इस सवाल का उठना अपने-आपमें गंभीर बात है। आजादी के स्वप्न में भ्रष्टाचार से मुक्ति भी शामिल थी। किसी के पास रहने को जगह नहीं और किसी के पास चोरी का माल रखने की जगह नहीं है। निस्संदेह, भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के खिलाफ हमें मिलकर कदम उठाने पड़ेंगे। भारतीय जनता को सदैव ही किसी न किसी स्रोत से ऐसे संदेश मिलते रहे हैं। कभी हिमालय की चोटियों से, कभी गंगा के तटों से और कभी सागर की लहरों से, तो कभी श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध और महावीर से। यहां तक कि, हमारे पर्व होली, दीपावली भी संदेश देते रहते हैं। निश्चित ही इन संदेशों से भारतीय जन-मानस की आजादी सम्भलती रही, सजती रही और कसौटी पर आती रही तथा बचती रही।
वास्तविक आजादी को हासिल करने के लिए हमें कुछ संकल्प लेने होंगे, जिनमें पहला है-विकसित देश बनना, दूसरा-देश के किसी कोने में गुलामी का अंश न रह जाएं। हमें औरों के जैसा दिखने की कोशिश करने की जरूरत नहीं है। हम जैसे भी हैं, वैसे ही सामर्थ्य के साथ खड़े हों। तीसरा-हमें अपनी विरासत पर गर्व होना चाहिए, चौथा-देश में एकता और एकजुटता रहे, पांचवां-नागरिकों का कर्तव्य। वाकई देश में सबको अपना कर्तव्य निभाना होगा। यदि सरकार का कर्तव्य है-हर समय बिजली-पानी देना, तो नागरिक का कर्तव्य है-कम से कम बिजली-पानी खर्च करना। अगर हमने इन संकल्पों को गंभीरता से लिया, तो भारत को वास्तविक आजादी का स्वाद चखने से कोई नहीं रोक सकेगा।
आजादी प्राप्ति के बाद जीवन धारा को जो रास्ता लेना था, वह नहीं मिला। हम आजादी का सदुपयोग नहीं कर सके। मनुष्य-मनुष्य में जब तक प्रेम और सहयोग का अटल नियम नहीं माना जाएगा, तब तक उभयपक्षी की स्वतंत्रता नहीं रह सकती। हमने यह अनदेखा किया। न्याय हमें एक-दूसरे के अधिकारों की सीमा को लांघने के लिए विवश नहीं करता। स्वार्थवश यह दृष्टि हम नहीं अपना सके। सहिष्णुता ऐसी किसी उल्लंघन की अवस्था में परस्पर विद्वेष, कलह और संबंध को रोकती है। इसका भी हम अर्थ नहीं समझ सके। विपरीत स्थितियाँ आती रहीं, चुनौतियां आती रहीं पर सत्य, अहिंसा, राष्ट्रवाद के शाश्वत संदेश सदैव मिलते रहे। यह और बात है कि हम राष्ट्रीय चरित्र के पात्र नहीं बन सके। आजादी के बाद से जोड़-तोड़ की राजनीति चलती रही। दल बनाते रहे, फिर तोड़ते रहे। अनुशासन का अर्थ हम निजी सुविधानुसार निकालते रहे, जिसका विषैला असर प्रजातंत्र के सर्वोच्च मंच से लेकर साधारण नागरिक की छोटी से छोटी इकाई गृहस्थी तक देखा जा सकता है। बच्चा-बच्चा अपनी जाति में वापिस चला गया। कस्बे-कस्बे में हिन्दुस्तान-पाकिस्तान की सीमाएं खिंच गईं। क्रांति का मतलब मारना नहीं, राष्ट्र की व्यवस्था को बदलना होता है। आजादी के आह्वान का हार्द व्यवस्था को सशक्त बनाते हुए राष्ट्र को नई शक्ल देने का है। वास्तव में यदि हम भारत को विकसित आजादी दिलाना चाहते हैं, तो हमें अपनी सोच और अपने तौर-तरीके बदलने होंगे।
जिस तरह दु:ख के बारे में बात बिना सुख की चर्चा के पूरी नहीं हो सकती, उसी तरह आजादी भी बिना आजादी के दुरुपयोग की चर्चा बिना अधूरी है। आजादी अपने साथ बहुत जिम्मेदारियाँ लेकर आती है, उन उत्तरदायित्वों के निर्वाह और एहसास को समाज का कोई मापदंड या कोई करीबी भी आपके लिए नहीं गढ़ सकता। उन सिद्धांतों को गढ़ने के लिए अपने भीतर झांकने की जरूरत होती है जिसकी बात अमृता प्रीतम करती हैं। ‘फ्रॉम सेल्फ टू ग्रेटर सेल्फ’ खुद से खुद की यात्रा अक्सर सृजनात्मक कार्य के जिम्मे ही आती है, जो न जाने कितनी अनकही अनदेखी बातों, भावों को हमारे सामने ले आते हैं।