कुल पृष्ठ दर्शन : 526

You are currently viewing असली खतरा ‘वैलेन्टाइन’ से नहीं, पिलपिले भद्रलोक से

असली खतरा ‘वैलेन्टाइन’ से नहीं, पिलपिले भद्रलोक से

डॉ.वेदप्रताप वैदिक
गुड़गांव (दिल्ली) 
*******************************************

भारत सरकार के पशु-कल्याण बोर्ड ने पहले घोषणा की कि ‘वैलेन्टाइन-डे’ को ‘गाय को गले लगाओ दिवस’ के तौर पर मनाया जाए। जब घोषणा का जबर्दस्त मजाक उड़ा तो इसे वापस ले लिया।
सेंट ‘वैलेन्टाइन का विरोध अगर इसलिए किया जाता है कि वह ‘प्रेम-दिवस’ है तो इससे बढ़कर अ-भारतीयता क्या हो सकती है ? प्रेम का, यौन का, काम का जो मुक़ाम भारत में है, हिन्दू धर्म में है, हमारी परम्परा में है, वह दुनिया में कहीं नहीं है। धर्म शास्त्रों में जो पुरुषार्थ-चतुष्टय बताया गया है-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- उसमें काम का महत्व स्वयंसिद्ध है। काम ही सृष्टि का मूल है। काम के बिना धर्म का पालन नहीं हो सकता। इसीलिए काम पर रचे गए ग्रन्थ को ‘कामशास्त्र’ कहा गया। शास्त्र किसे कहा जाता है ? क्या किसी अश्लील ग्रंथ को कोई शास्त्र कहेगा ? शास्त्रकार भी कौन है ? महर्षि है! महर्षि वात्स्यायन ! वैसे ही जैसे, महर्षि ‘वैलेन्टाइन’ जो पैदा हुए तीसरी सदी में। वे भारत में नहीं, इटली में पैदा हुए।
वात्स्यायन को किसी सम्राट से टक्कर लेनी पड़ी या नहीं, कुछ पता नहीं, लेकिन कहा जाता है कि तीसरी सदी के रोमन सम्राट क्लॉडियस द्वितीय और वैलेन्टाइन के बीच तलवारें खिंच गई थीं। क्लॉडियस ने विवाह वर्जित कर दिए थे। उसे नौजवान फ़ौजियों की जरूरत थी। कुँवारे रणबाँकुरों की जरूरत थी। सम्राट के चंगुल से निकल भागनेवाले युवक और युवतियाँ, जिस ईसाई सन्त की शरण में जाते थे, उसका नाम ही वैलेन्टाइन है। वेलेन्टाइन उनका विवाह करवा देता था, उन्हें प्रेम करने की सीख देता था और जो सम्राट की कारागार में होते थे, उन्हें छुड़वाने की गुपचुप कोशिश करता था। कहते हैं कि इस प्रेम के पुजारी सन्त को सम्राट क्लॉडियस ने आखिरकार मौत के घाट उतार दिया।
ऐसे सन्त से भारतीयता का भला क्या विरोध हो सकता है ? वैलेन्टाइन नाम का कोई सन्त सचमुच हुआ या नहीं, इस पर यूरोपीय इतिहासकारों में मतभेद है। अगर यह मान भी लें कि, सिर्फ कपोल-कल्पना है तो भी इसमें त्याज्य क्या है ? वैलेन्टाइन का दिन आखिर कब मनाया जाता है ? फरवरी में! फरवरी तक, मध्य फरवरी तक प्रकृति में, पुरूष में, नारी में, पशु-पक्षी में चराचर जगत में क्या कोई परिवर्तन नहीं होता ? आया वसन्त, जाड़ा उड़न्त! वसन्त के परिवर्तनों का जैसा कालिदास ने ‘ऋतुसंहार’ में, श्रीहर्ष ने ‘रत्नावली’ में, भास ने ‘स्वप्नवासवदत्तम्’ में और विशाखदत्त ने ‘मुद्राराक्षस’ में अंकन किया है, क्या किसी पश्चिमी नाटककार या कवि ने किया है ? सौन्दर्य का, प्रेम का, श्रृंगार का, रति का, मौसम की मजबूरियों का इतना सूक्ष्म चित्रण गहन और स्पष्ट है कि उसे पढ़ने की सलाह है। प्रेम के इस व्यापार में हजार वैलेंटाइन को पछाड़ने के लिए एक कालिदास ही काफी है। अगर प्रेम की पूजा के लिए वैलेन्टाइन की भर्त्सना करेंगे तो कालिदास का क्या करेंगे ? श्रीहर्ष का क्या करेंगे ? बाणभट्ट का क्या करेंगे ?
‘वैलेन्टाइन-डे’ के पीछे लट्ठ लेकर पड़े हमारे नौजवानों को शायद पता नहीं कि, भारत में मदनोत्सव, वसन्तोत्सव और कौमुदी महोत्सव की शानदार परम्परा रही हैं। इन उत्सवों के आगे ‘वैलेन्टाइन डे’ पानी भरता नज़र आता है। यदि मदनोत्सवों के सम्भाषणों की तुलना ‘वैलेन्टाइन-डे’ कार्डों से की जाए तो लगेगा कि किसी सर्चलाइट के आगे लालटेन रख दी गई है और मन भर को कन भर से तौला जा रहा है। कौमुदी महोत्सवों में युवक और युवतियाँ बेजान कार्डों का लेन-देन नहीं करते, प्रमत्त होकर वन-विहार करते हैं, गाते-बजाते हैं, एक-दूसरे को रंगों से सरोबार करते हैं और उनके साथ चराचर जगत भी मदमस्त होकर झूमता है। मस्ती का वह संगीत पेड़-पौधों, लता-गुल्मों, पशु-पक्षियों, नदी-झरनों-प्रकृति के चप्पे-चप्पे में फूट पड़ता है। सम्पूर्ण सृष्टि प्रेम के स्पर्श के लिए आतुर दिखाई पड़ती है। सुन्दरियों के पदाघात से अशोक के वृक्ष खिल उठते हैं। सृष्टि अपना मुक्ति-पर्व मनाती है। इस मुक्ति से मनुष्य क्यों वंचित रहे ? मुक्ति-पर्व की पराकाष्ठा होली में होती है, सारे बन्धन टूटते हैं। चेतन में अचेतन और अचेतन में चेतन का मुक्त-प्रवाह होता है। राधा कृष्ण और कृष्ण राधामय हो जाते हैं। सम्पूर्ण अस्तित्व दोलायमान हो जाता है, प्रेम में डूब जाता है। पद्माकर ने क्या खूब कहा है -“बीथिन में, ब्रज में, नवेलिन में, बेलिन में। बनन में, बागन में बगरौ बसंत है।” ब्रज की गोरी, कन्हैया की जैसी दुर्गति करती है, क्या वैलेन्टाइन के प्रेमी उतनी दूर तक जा सकते हैं ? अगर वे जाना चाहें तो जरूर जाएँ लेकिन जाएँगे कैसे ? काठ के पाँवों पर आखिर वे कितनी देर नाच पाएँगे ? वैलेन्टाइन के भारतीय प्रेमी वह ऊर्जा कहाँ से लाएँगे, जो अपनी ज़मीन से जुड़ने पर पैदा होती है ?
काम का भारतीय अट्टहास यूरोप को मूर्छित कर देने के लिए काफी है। अगर वैलेन्टाइन के यूरोपीय समाज में आज कोई होली उतार दे तो वहाँ बड़ा सामाजिक भूकम्प हो जाएगा। ऐसे अधमरे-से वैलेन्टाइन को भारत का जो भद्रलोक अपनी छाती से चिपकाए रखना चाहता है, जिसकी जड़ें उखड़ चुकी हैं। उसके रस के स्रोत सूख चुके हैं। उसे अपनी परम्परा का पता नहीं। वह नकल पर जिन्दा है। उसकी अपनी कोई भाषा नहीं, साहित्य नहीं, संस्कृति नहीं। वह अंधेरे में राह टटोल रहा है। अपने भोजन, भजन, भेषज, भूषा और भाषा-हर क्षेत्र में पश्चिम की नकल को ही अकल मानता है। इसीलिए शुभ्रा, धवला प्रेम दिवानी मीरा उसकी नज़र से ओझल हो जाती है और किंवदन्तियों के कुहरे में लिपटे हुए वैलेन्टाइन उसके कण्ठहार बन जाते हैं। मीरा और राधा के देश का आदमी अगर वैलेन्टाइन की खोज में इटली जाता है तो उसे क्या कहा जाएगा ? वाटिका में बैठा आदमी कागज के फूल सूंघ रहा हो तो, उसे क्या कहा जाएगा ? हवाई जहाज में उड़ता हुआ आदमी बैलगाड़ी की गति पर गीत लिख रहा हो तो उसे क्या कहा जाएगा ?
भारत का आधुनिक भद्रलोक भी बड़ा विचित्र है! उससे चतुर दुनिया में कौन है ? चतुराई इतनी कि, अमेरिकियों को उनकी ज़मीन पर ही उसने दे मारा लेकिन वह जितना सयाना है, उतनी ही गलत जगह पर जा बैठता है! बहुराष्ट्रीय संस्थानों के जाल में सबसे ज्यादा वही फँसता है, उपभोक्तावाद की तोप का भूसा वही बनता है, नकलची की भूमिका वही सहर्ष निभाता है। ‘वैलेंटाइन-डे’ के नाम पर करोड़ों डॉलर के कार्ड, उपहार और विज्ञापन का धंधा होता है। जैसे क्रिसमस आनन्द का पर्व कम, धंधे का पर्व ज्यादा बन गया है, वैसे ही ‘वैलेंटाइन-डे’ पर तीसरी दुनिया में फिजूलखर्ची की एक नई लहर उठ खड़ी हुई है। इसका विरोध जरूरी है। विरोध इसलिए भी जरूरी है कि, नुकसान आखिरकार नकलची का ही होता है। नकलची की जेब कटती है और असलची की जेब भरती है। तीसरी दुनिया का पैसा, उसके खून-पसीने की कमाई आखिरकार ईमानदार देशों में चली जाती है, चाहे वह कार्डों के रास्ते जाए, जीन्स और टाइयों के रास्ते जाए और चाहे पिज्ज़ा के जरिए जाए! इस रास्ते को बंद करने के लिए यदि कोई शोर मचाए तो बात समझ में आती है, लेकिन बेचारे वैलेन्टाइन ने क्या बिगाड़ा है ?
वैलेन्टाइन ने रोम के नौजवानों को न अनैतिकता सिखाई, न अनाचार का मार्ग दिखाया और न ही दुश्चारित्र्य को प्रोत्साहित किया। वह तो डूबतों को तिनका था, अंधेरे का दीपक था। जैसे हिन्दू समाज के बागी युवक-युवतियों के लिए आर्य समाज सहारा बनता है। वैलेन्टाइन की आड़ में अगर पश्चिमी कम्पनियाँ अपना शिकार खेल रही हैं तो बेचारा वैलेन्टाइन क्या करे ? वेलेन्टाइन तो किसी बहुराष्ट्रीय संस्थान का मालिक नहीं था! देने के लिए उसके पास कोई उपहार भी क्या रहा होगा ? अगर जेलर की बेटी को कोई कार्ड उसने भेजा भी होगा तो वह हाथ से ही लिखा होगा और डाक टिकट चिपकाकर नहीं, किसी की मिन्नतें करके ही भिजवाया होगा। सम्राट क्लॉडियस जिस पर दाँत पीस रहा हो, वह वैलेन्टाइन अपने प्रेम की अभिव्यक्ति भला विज्ञापन के ज़रिए कैसे कर सकता था। इसीलिए वैलेन्टाइन को नायक बनाना जितना हास्यास्पद है, उतना ही खलनायक बनाना भी। वास्तव में ये दोनों कर्म एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जो वैलेन्टाइन को नायक बनाते हैं, वे अपनी परम्परा से उतने ही बेगाने हैं, जितने वे जो उसे खलनायक बनाते हैं। वैलेन्टाइन का विरोध करने वाले क्या भारत को एक बन्द गोभी बनाना चाहते हैं ? क्या वे भारत को मध्यकालीन यूरोप की पोपलीला में फँसाना चाहते हैं ? क्या वे आधुनिक भारत को किसी शेखडम में परिणित करना चाहते हैं ? क्या वैलेन्टाइन की आड़ में वे भारत की मुक्त संस्कृति का गला घोटना चाहते हैं ? क्या वे कालिदास पर प्रहार करना चाहते हैं ? जो भारत चार्वाकों को चर्वण करता रहा है, क्या वह वैलेन्टाइन को नहीं पचा सकता ?
प्रतिबन्धों, प्रताड़नाओं, वर्जनाओं का भारत कभी हिन्दू भारत तो हो ही नहीं सकता। जिसे हिन्दू भारत कहा जाता है, वह ग्रन्थियों से ग्रस्त कभी नहीं रहा। वह भारत मानव-मात्र की मुक्ति का सगुण सन्देश है। उस भारत को वैलेन्टाइन से क्या डर है ? उसके हर पहलू में हजारों वैलेन्टाइन बसे हुए हैं। उसे वैलेन्टाइन के आयात नहीं, होली के निर्यात की जरूरत है। चीन, जापान, थाईलैंड, सिंगापुर आदि देशों के दमित यौन के लिए वैलेन्टाइन निकास-गली बन सकते हैं लेकिन जिस देश में गोपियाँ कृष्ण की बाँहें मरोड़ देती हैं, पीताम्बर छीन लेती हैं, गालों पर गुलाल रगड़ देती हैं, और नैन नचाकर कहती हैं ‘लला, फिर आइयो खेलन होरी,’ उस देश में वैलेन्टाइन को लाया जाएगा तो वह बेचारा बगले झाँकने के अलावा क्या करेगा ? कृष्ण के मुकाबले वैलेन्टाइन क्या है ? कहाँ कृष्ण और कहाँ वैलेन्टाइन ? भारत को असली खतरा वैलेन्टाइन से नहीं, उस पिलपिले भद्रलोक से है, जो पिछले ५० साल में उग आया है। वैलेन्टाइन-विरोध के नाम पर जो वितण्डा हुआ, वह इस पिलपिले भद्रलोक और सिरफरे भद्रलोक के बीच हुआ है।
वैलेन्टाइन को ये दोनों जानते हैं, लेकिन जनता उसे नहीं जानती। वह तो उसके नाम का उच्चारण भी नहीं कर सकती। उसे वैलेंटाइन से क्या लेना-देना है? जैसे आम जनता को इससे कुछ लेना-देना नहीं, वैसे ही इन दोनों भद्रलोकों को आम-जनता से कुछ लेना-देना नहीं है। अगर होता तो पहला भारत समतामूलक समाज की जरूरत के प्रति थोड़ा सचेत दिखाई पड़ता और दूसरा भद्रलोक उन मुद्दों पर लड़ाई छेड़ता, जिनके उठने पर धन, धरती, अवसर आदि समाज में समान रूप से बँटते। ‘वैलेंटाइन डे’ का विरोध करके माँ-बहनों की इज़्ज़त बचाने का दावा करने की बजाय कहीं बेहतर होता कि ये ही दहेज और बहू दहन आदि के विरूद्ध मोर्चे लगाते। क्या यह विडम्बना नहीं कि, ‘वैलेंटाइन डे’ के प्रेमी और विरोधी, दोनों ही स्त्री-शक्ति को दृढ़तर बनाने के बारे में बेख़बर हैं ?

परिचय– डाॅ.वेदप्रताप वैदिक की गणना उन राष्ट्रीय अग्रदूतों में होती है,जिन्होंने हिंदी को मौलिक चिंतन की भाषा बनाया और भारतीय भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलवाने के लिए सतत संघर्ष और त्याग किया। पत्रकारिता सहित राजनीतिक चिंतन, अंतरराष्ट्रीय राजनीति और हिंदी के लिए अपूर्व संघर्ष आदि अनेक क्षेत्रों में एकसाथ मूर्धन्यता प्रदर्शित करने वाले डाॅ.वैदिक का जन्म ३० दिसम्बर १९४४ को इंदौर में हुआ। आप रुसी, फारसी, जर्मन और संस्कृत भाषा के जानकार हैं। अपनी पीएच.डी. के शोध कार्य के दौरान कई विदेशी विश्वविद्यालयों में अध्ययन और शोध किया। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त करके आप भारत के ऐसे पहले विद्वान हैं, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोध-ग्रंथ हिन्दी में लिखा है। इस पर उनका निष्कासन हुआ तो डाॅ. राममनोहर लोहिया,मधु लिमये,आचार्य कृपालानी,इंदिरा गांधी,गुरू गोलवलकर,दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी सहित डाॅ. हरिवंशराय बच्चन जैसे कई नामी लोगों ने आपका डटकर समर्थन किया। सभी दलों के समर्थन से तब पहली बार उच्च शोध के लिए भारतीय भाषाओं के द्वार खुले। श्री वैदिक ने अपनी पहली जेल-यात्रा सिर्फ १३ वर्ष की आयु में हिंदी सत्याग्रही के तौर पर १९५७ में पटियाला जेल में की। कई भारतीय और विदेशी प्रधानमंत्रियों के व्यक्तिगत मित्र और अनौपचारिक सलाहकार डॉ.वैदिक लगभग ८० देशों की कूटनीतिक और अकादमिक यात्राएं कर चुके हैं। बड़ी उपलब्धि यह भी है कि १९९९ में संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आप पिछले ६० वर्ष में हजारों लेख लिख और भाषण दे चुके हैं। लगभग १० वर्ष तक समाचार समिति के संस्थापक-संपादक और उसके पहले अखबार के संपादक भी रहे हैं। फिलहाल दिल्ली तथा प्रदेशों और विदेशों के लगभग २०० समाचार पत्रों में भारतीय राजनीति और अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर आपके लेख निरन्तर प्रकाशित होते हैं। आपको छात्र-काल में वक्तृत्व के अनेक अखिल भारतीय पुरस्कार मिले हैं तो भारतीय और विदेशी विश्वविद्यालयों में विशेष व्याख्यान दिए एवं अनेक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आपकी प्रमुख पुस्तकें- ‘अफगानिस्तान में सोवियत-अमेरिकी प्रतिस्पर्धा’, ‘अंग्रेजी हटाओ:क्यों और कैसे ?’, ‘हिन्दी पत्रकारिता-विविध आयाम’,‘भारतीय विदेश नीतिः नए दिशा संकेत’,‘एथनिक क्राइसिस इन श्रीलंका:इंडियाज आॅप्शन्स’,‘हिन्दी का संपूर्ण समाचार-पत्र कैसा हो ?’ और ‘वर्तमान भारत’ आदि हैं। आप अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों और सम्मानों से विभूषित हैं,जिसमें विश्व हिन्दी सम्मान (२००३),महात्मा गांधी सम्मान (२००८),दिनकर शिखर सम्मान,पुरुषोत्तम टंडन स्वर्ण पदक, गोविंद वल्लभ पंत पुरस्कार,हिन्दी अकादमी सम्मान सहित लोहिया सम्मान आदि हैं। गतिविधि के तहत डॉ.वैदिक अनेक न्यास, संस्थाओं और संगठनों में सक्रिय हैं तो भारतीय भाषा सम्मेलन एवं भारतीय विदेश नीति परिषद से भी जुड़े हुए हैं। पेशे से आपकी वृत्ति-सम्पादकीय निदेशक (भारतीय भाषाओं का महापोर्टल) तथा लगभग दर्जनभर प्रमुख अखबारों के लिए नियमित स्तंभ-लेखन की है। आपकी शिक्षा बी.ए.,एम.ए. (राजनीति शास्त्र),संस्कृत (सातवलेकर परीक्षा), रूसी और फारसी भाषा है। पिछले ३० वर्षों में अनेक भारतीय एवं विदेशी विश्वविद्यालयों में अन्तरराष्ट्रीय राजनीति एवं पत्रकारिता पर अध्यापन कार्यक्रम चलाते रहे हैं। भारत सरकार की अनेक सलाहकार समितियों के सदस्य,अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विशेषज्ञ और हिंदी को विश्व भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए कृतसंकल्पित डॉ.वैदिक का निवास दिल्ली स्थित गुड़गांव में है।

Leave a Reply