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आक्रामकता में धुंधलाता सौहार्द

ललित गर्ग
दिल्ली

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इस्लाम एवं पैगम्बर पर टिप्पणी के बाद देश-विदेश खासकर खाड़ी देशों में घिरी भारतीय जनता पार्टी ने अपने २ प्रवक्ताओं (नूपुर शर्मा एवं नवीन कुमार जिंदल) को बाहर का रास्ता दिखा दिया है। भाजपा ने स्पष्ट किया है कि हम सभी धर्मों और उनके पूजनीयों का सम्मान करते हैं। किसी का अपमान स्वीकार नहीं है। यह कार्रवाई इन दोनों नेताओं के साथ उन सभी के लिए एक सबक बननी चाहिए जो सार्वजनिक विमर्श में शामिल होते हैं और प्रायः भाषा की मर्यादा का उल्लंघन करते हैं। संवाद और सार्वजनिक विमर्श में भाषा की मर्यादा का अपना एक स्तर होता है और उसे बनाए रखना सबका साझा दायित्व है। आजकल टी.वी. चैनलों पर विमर्श की आक्रामकता निम्न स्तर तक पहुंच गई है, जो राष्ट्रीय मूल्यों को आहत करने के साथ-साथ पत्रकारिता के आदर्शों को भी धुंधला रही है।
लम्बे समय से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में बहस-वाद-विवाद-विमर्श का चलन बहुत अधिक बढ़ा है। यह कुछ बेहतर परिणाम दे या न दे, लेकिन समाज एवं राष्ट्र को नुकसान अवश्य पहुंचाती है। जब संवेदनशील मामलों और विशेष रूप से धार्मिक बहस के समय भाषा की मर्यादा टूटती है, तो उसका कहीं अधिक प्रतिकूल असर पड़ता है और कभी-कभी तो लोग सड़कों पर उतरकर हंगामा और हिंसा करने लगते हैं। दुनिया में भारत की छवि भी आहत होती है। यही नहीं विवादित अथवा आपत्तिजनक टिप्पणियां करने वालों को धमकियां दी जाने लगती हैं। अब जो बहसें हो रही हैं और उनके जो विषय होते हैं, उससे समाज को लाभ कम-नुकसान ज्यादा होता है। हम पिछले कई महीनों की प्रमुख चैनलों की बहस का आकलन करें तो यह सिवाए हिन्दू-मुसलमान को आपस में बांटने एवं लड़वाने के और कुछ नहीं रही हैं। उदघोषक बहस की शुरुआत चाहे जितने ही सामाजिक विषय से करे, वह अंत में पहुंचता सिर्फ हिन्दू-मुसलमान पर ही है। क्या इसी दिन के लिए यह कार्यक्रम बनाए गए थे ? सोचा गया था कि बहस से कोई रास्ता निकलेगा और वह समाज को रास्ता दिखाएगा, मगर इन बहसों ने तो रास्ते बांटने का काम कर दिया है।
यह बहसें जो राजनीतिक होनी चाहिए थीं, वह व्यक्तिगत और धार्मिक हो रही हैं, इसका लाभ किसे मिलेगा, सिवाए तोड़ने वालों के। बहस का मकसद था कि समाज के लिए बेहतर चीज़ मंथन के बाद निकालना, मगर इधर कुछ उदघोषक, चैनल्स और प्रवक्ताओं ने इसे युद्ध और आक्रमण में बदल दिया है। ऐसा लगता है कि इनकी सारी कवायद उजालों पर कालिख पोतने का ही प्रयास होता है। यहां बदले रुख में कोई भी राजनीतिक दल कम और ज्यादा प्रभावित तो हो सकता है मगर सभी इस विष को गले लगाए हैं। बताइए गला फाड़-फाड़ चीखने से समस्या का हल निकलेगा या समस्या पैदा होगी ? इस प्रकार की उद्देश्यहीन, उच्छृंखल, विध्वंसात्मक एवं आक्रामक बहसों से किसी का हित सधता हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता। इसलिये इस बहस-संस्कृति पर गंभीर विमर्श की अपेक्षा है। इसको एक आचार-संहिता में बांधा जाना चाहिए। यह दायित्व इसलिए और अधिक बढ़ गया है, क्योंकि इंटरनेट मीडिया के साथ चैनलों पर होने वाली चर्चा में अक्सर शालीनता, संयम, अनुशासन और गरिमा के दायरे से बाहर निकलकर तीखी-ओछी, घिनौनी, अशिष्ट एवं अभद्र टिप्पणियां की जाती हैं।
सबको मिलकर सोचना होगा कि जो हम कर रहे हैं, वह समाज एवं राष्ट्र हित में है भी या नहीं। यह जो बहस हैं, भारत की आत्मा को जोड़कर मज़बूत कर रही हैं या बांटकर छलनी कर रही हैं। इसमें व्यक्तिगत हमले हो रहे हैं या विषय पर सार्थक बात हो रही है। इन बहसों से अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक का जो माहौल बना है, वह देश के लिए बुरा है। होना तो यह था कि, अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक को जोड़ने के प्रयत्न करने चाहिए थे, जो मुश्किल भी नहीं था, क्योंकि मूलतः यह आज भी साथ हैं मगर चैनल्स ने इनको साथ लाने की जगह तोड़ने का अधिक काम किया है। हम सबको सोचना होगा कि देश के लिए क्या बेहतर है। ऐसी बेतुकी गर्मागर्म बहसों से देश कमज़ोर होता है।
इन बहसों और ऐसे मनोवैज्ञानिक प्रभाव से खुद, समाज एवं राष्ट्र को बचाइए, यह सबको बीमार कर देंगी। चैनलों पर होने वाली परिचर्चाएं ‘मुर्ग़े की लड़ाई’ बनती जा रही है। समाज का बहुत बड़ा तबक़ा ऐसा भी है जिसे लगता है कि चैनलों पर होने वाली परिचर्चाओं पर पाबन्दी लगाई जानी चाहिए या इनके गिरते स्तर पर नियंत्रण किया जाना चाहिए।

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