अजय जैन ‘विकल्प’
इंदौर(मध्यप्रदेश)
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तो आखिर आतंक के शिविर चलाने वाले यानी विद्यालयों की भाँति आतंकवाद को पनाह देने और उसका पालन-पोषण करनेवाले ‘नापाक’ देश पाकिस्तान को फिर मुँह की खानी पड़ी है। दरअसल,इनके इमरान खान ने ऐसा कोई काम किया ही नहीं कि,फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ) की राय पाकिस्तान के प्रति बदलती। इसलिए,एफएटीएफ ने पाकिस्तान को बड़ा झटका देते हुए ‘ग्रे’ सूची में बरकरार रखा है। इसके अलावा तुर्की सहित ३ और देशों को इस सूची में जोड़ा गया है। फोर्स ने कई मुद्दों पर बात के बाद ऐसा किया है, क्योंकि पाकिस्तान ने ३४ सूत्रीय कार्य योजना में से ३० को विस्तार में संबोधित किया है,जिसमें मनी लॉन्ड्रिंग पर केंद्रित कार्य योजना भी है। पाक को अभी भी इस सूची में रखने का सीधा मतलब है कि,पाक लगातार निगरानी (ग्रे) में है।
वैसे तो,पाकिस्तान सरकार के पास देश के लिए करने को कई काम-कई योजना हैं,पर जब तक इस देश को आतंकवादी मामलों से या उनको धन देने से फुर्सत नहीं मिले,तब तक तो तरक्की को ऐसी सूची रोके ही रखेगी न।
ऐसा पहली बार नहीं हुआ है,जब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान ने अपनी कमजोर प्रतिष्ठा को और गिराया है। अधिक पुरानी बात नहीं है,कुछ दिन पहले ही पाक का स्टाॅक मार्केट गिर गया था, क्योंकि अमेरिकी संसद में पाक पर प्रतिबंध लगाने वाला विधेयक पेश हो गया। तब पाक का रूपया भूटान की मुद्रा से भी नीचे गिर गया। कहना गलत नही होगा कि ये पाकिस्तान के पापों का वो फल है, जो भारतीय धरती पर उन्होंने बोया है,और उसे इसका अंजाम अब लगातार भुगतना पड़ रहा है।
अब इसे भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिकी यात्रा से भी जोड़ सकते हैं और
तालिबान से भी। खैर,जो हुआ बहुत अच्छा हुआ, इससे शायद पाक के मौजूदा मालिक इमरान खान को अब समझ में आ जाए कि ये खेल का मैदान नहीं है।
बीते दिनों जब अफगानिस्तान में सत्ता का फेरबदल हुआ तो सबसे अधिक खुशी पाकिस्तान को ही थी। तालिबान की ‘बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना’ की ये दीवानगी भारत-अमेरिका सहित अनेक देशों ने तब ही समझ ली थी कि आखिरकार पाक इतनी रुचि और समावेशी सरकार की बात क्यों कर रहा है,जबकि खुद के देश में स्थिति खराब है। इसलिए ही अन्य देशों ने अफगानिस्तान की सरकार को मान्यता नहीं दी थी,वहीं भारत ने अफगानिस्तान में तालिबान की सरकार को मानने से इंकार कर दिया। शुरू में सबको भारत की इस मामले में देरी पर आश्चर्य हुआ और चुप्पी भी अवश्य अखरी होगी,पर शायद अब समझ आई होगी कि,सब्र का फल मीठा होता है। जब भारत के विदेश मंत्री ने यह साफ कर दिया कि वो तालिबान की नई सरकार को एक व्यवस्था से ज्यादा कुछ नहीं मानते हैं और उसमें भी सभी वर्गों के शामिल ना होने से चिंतिंत हैं,तब भी तालिबान के अघोषित पाकिस्तान की आँख नहीं खुली। इतना ही नहीं,भारत ने तो अफगानिस्तान में महिलाओं और अल्पसंख्यकों के हालात को लेकर भी खासी चिंता जताई थी,पर इस बात को मात्र अमेरिका ही समझा था। आतंक के पैरोकार पाकिस्तान और अफगानिस्तान में आतंकवादियों की नई सरकार को लेकर विदेश मंत्री ने साफ तौर पर कहा था कि भारत चाहता है कि,अफगानिस्तान की धरती को आतंकवाद के लिए इस्तेमाल ना किया जाए। इसे लेकर भारत ने ऑस्ट्रेलिया से बात की थी। भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच इस बातचीत के दौरान ऑस्ट्रेलियाई विदेश मंत्री ने भी दोहराया था कि अफगानिस्तान की धरती को आतंकियों की पैदावार के लिए इस्तेमाल नहीं होना चाहिए,अफगानिस्तान में मानवधिकारों का हनन नहीं होना चाहिए। तब भारतीय विदेश मंत्री ने तो यह भी कहा कि अमेरिका के आज ९/११ हमले की २०वीं जयंती है। ये हमला याद दिलाता है कि हमें आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में कोई भी समझौता नहीं करना चाहिए। भारत तो इसलिए भी नहीं कर सकता है,क्योंकि आतंकवाद का केंद्र हमारे करीब है।
आतंक के दम पर खुद को अजगर समझने की गलती पर वर्षों से कायम पाकिस्तान को समझना होगा कि उसे भारत ही नहीं,सारे देशों ने हर तरक्की में बहुत पीछे छोड़ दिया है। किसी श्वान की तिरछी दुम बन चुके पाकिस्तान के साथ आज कोई नहीं है (चीन के होने की गलतफहमी),पर पाक को लगता है कि,अब भी इस आतंक से वह अपनी ईमानदारी और बादशाहत साबित कर लेगा तो इस गलतफहमी को दूर करने में ही उसका कुछ भला है।