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उप्र में भी ‘खेला’ शुरू हो गया…?

अजय बोकिल
भोपाल(मध्यप्रदेश) 

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चुनाव के पहले सत्ता सुख की चाह में दलबदल भारतीय राजनीति में नई बात नहीं है,लेकिन देश में उप्र सहित ५ राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव की शुरूआत में दल छोड़ने वाले विधायकों-मंत्रियों की सबसे ज्यादा संख्या अगर भाजपा में है तो इसके गंभीर राजनीतिक मायने हैं। उप्र में पिछड़ों के बड़े नेता और योगी सरकार में मंत्री रहे स्वामी प्रसाद मौर्य और उनके साथ ३ भाजपा विधायकों का समाजवादी पार्टी में शामिल होना राज्य में तेजी से बदल रहे समीकरण का संकेत है। स्वामी को उप्र का रामविलास पासवान माना जा सकता है। अमूमन सत्ता परिवर्तन की आहट वो सुन लेते हैं और उसी नाव में सवार हो जाते हैं, जो किनारे लगने वाली होती है। २०१७ के विस चुनाव के पहले वो बसपा छोड़ भाजपा में आए थे। उससे भी पहले लोकदल छोड़कर बसपा में गए थे। बसपा में वो नंबर २ थे,फिर भी भाजपा के सत्ता में आने की पदचाप शायद उन्होंने पहले ही सुन ली थी। इस बार वो समाजवादी पार्टी की गोदी में उस वक्त जा बैठे,जब भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व चुनाव के लिए प्रत्याशियों के नाम तय करने बैठा था।
२०१७ के विस चुनाव में राज्य की ४०३ में से ३१२ सीटों पर बड़ी जीत और ३९.६७ फीसदी मत लेने वाली भाजपा ऊपरी तौर पर भले ही इसे चुनाव के पहले की नेताओं की सामान्य ‘आवाजाही’ बताए, लेकिन असंतुष्ट चल रहे स्वामी ने तगड़ा झटका तो दिया ही है,क्योंकि यह झटका केवल दूसरी पार्टी में जाकर खुद,अपने परिजनों और समर्थकों को टिकट दिलवाने तक ही सीमित नहीं है,यह उस चुनावी रणनीति को भी है,जिसके अंतर्गत वह पिछले १ साल से खुद को पिछड़ा वर्ग हितैषी दल के रूप में प्रदर्शित करती आ रही है। ऐसे में संदेश यह जा रहा है कि अगर भाजपा की ओबीसी केन्द्रित राजनीति से ओबीसी ही खुश नहीं हैं तो फिर कौन खुश है ? स्वामी के पहले पिछड़ी राजभर जाति के ओमप्रकाश राजभर भी अपनी पार्टी का सपा से चुनावी गठबंधन कर चुके हैं। इसी तरह जाटों की पार्टी ‘राष्ट्रीय लोक दल’ ने भी सपा से समझौता किया है। पश्चिमी उप्र के २० जिलों में जाट मत बैंक १४ फीसदी है। हालांकि,जाटों में भाजपा की भी अच्‍छी पैठ है,लेकिन किसान आंदोलन के बाद राकेश सिंह टिकैत जाट मतों का रूझान तय करने में अहम भूमिका निभा सकते हैं। भाजपा टिकैत को ‘संभाल’ नहीं पाई तो जाटों का समर्थन रालोद को जा सकता है,जो सपा के साथ है। इसका भारी नुकसान भाजपा को होगा। स्वामी के जाने के बाद राज्य में पिछड़ों की एक और पार्टी ‘अपना दल’ ने भी भाजपा को चेतावनी दे दी है। अपना दल (अनुप्रिया गुट) अभी केन्द्र में एनडीए का हिस्सा है, और अनुप्रिया पटेल केन्द्रीय मंत्री भी है। इसी दल का दूसरा गुट सपा के साथ है। अपना दल मुख्‍य रूप से कुर्मियों की पार्टी है,जिसका मत बैंक लगभग ७ फीसदी माना जाता है। दूसरी तरफ भाजपा के साथ पिछड़ों की केवल संजय निषाद की ‘निषाद पार्टी’ है। अगर ठीक से सीट समझौता न हुआ तो ‘निषाद पार्टी’ भी पाला बदल सकती है। इस पार्टी की मांग भी भाजपा के लिए सिरदर्द हो सकती है। रहा सवाल यादवों का,तो इस जाति के मतों की संख्या करीब ९ फीसदी है और मोटे तौर पर ये समाजवादी पार्टी के साथ है।
२९१७ के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने तमाम छोटी-छोटी पार्टियों को साथ लेकर नया जातिय समीकरण बनाया था। इसमें भाजपा के परंपरागत मत मिलाकर एक ऐसा मजबूत समीकरण बना कि पार्टी क्लीन स्वीप कर गई,लेकिन चुनाव के बाद जिस तरह से घटनाक्रम घटा है,उसने राज्य में भाजपा के पक्ष में बने जातिय समीकरणों में जो दरार डाली,वह अब खुलकर दिखने लगी है। भाजपा की पिछली चुनावी रणनीति यानी ‘छोटी पार्टी,बड़ी योजना’ पर इस बार समाजवादी पार्टी काम करती दिख रही है।
पिछला चुनाव भाजपा ने राम मंदिर,साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण,सुशासन और विकास के मुद्दों पर जीता था। तब उसे गैर यादव पिछड़ी जातियों का भी भारी समर्थन मिला था,लेकिन चुनाव के हिंदुत्व’ के प्रतीक और परोक्ष रूप से अगड़ी जाति के क्षत्रिय योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाए जाने से पिछड़ी जातियों में आत्ममंथन शुरू हो गया।
हालांकि २०१९ के लोकसभा चुनाव में पिछड़ों ने भाजपा को ही समर्थन दिया, क्योंकि,तब मोदी के नाम पर मांगे गए थे। इस बार ऐसा होना बहुत मुश्किल है,क्योंकि मोदी उप्र के सीएम तो नहीं हो सकते।
योगी की अपनी कार्य शैली भी इस असंतोष का एक कारण है। स्वामी प्रसाद मौर्य सीएम बन सकने की उम्मीद में भाजपा में आए थे,नाउम्मीद होकर चले गए हैं। कुल मिलाकर संदेश यही गया कि भाजपा पिछड़ों का समर्थन तो चाहती है लेकिन
मौका आने पर मुख्‍यमंत्री का ताज किसी और के सिर पर रख देती है। इस बार भी ऐसा नहीं होगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है।
इसका अर्थ यह नहीं कि भाजपा का किला बुरी तरह दरक गया है। आज की तारीख में संगठन, संसाधन और धनबल में वो सब पर भारी है। विकास के दावे,व्यापक हिंदू एकता और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण पर पूरा जोर दे रही है। उधर,समाजवादी पार्टी की राह भी आसान नहीं है। कागज पर गणित किधर भी झुकता दिखाई दे, लेकिन भाजपा आसानी से सत्ता
हाथ से जाने देने वाली नहीं है,क्योंकि उप्र में सत्ता खोने का संदेश पूरे देश और दुनिया में जाएगा। वैसे भी उसने गोवा,मणिपुर आदि राज्यों में दिखा दिया है कि,चुनाव कोई भी जीते,सरकार उसी की बनती है।
सत्ता में आने के लिए सपा को अपना मत बैंक बढ़ा कर लगभग दोगुना करना होगा,जो आसान नहीं है। हो सकता है कि तमाम कोशिशों के बाद भी वो पौने २०० सीटों पर अटक जाए,जबकि भाजपा को अगर १०० सीट का नुकसान हुआ तो भी वो सरकार बना सकती है। दल का मानना है कि अयोध्या में राम मंदिर निर्माण,काशी में विश्वनाथ काॅरिडोर,राज्य में कई बड़े एक्सप्रेस-वे तथा अन्य विकास कार्य और खुद पीएम का पिछड़े वर्ग से होोना ओबीसी मतों की टूटन काफी हद तक रोक लेगा,पर इन सबसे अहम है उप्र की जनता क्या
सोचती है। दावों-प्रतिदावों को किस रूप में
देखती है। यूपी में ७ चरणों में होने वाले चुनाव के हर चरण में राजनीतिक समीकरण बदलते‍ दिखें,तो आश्चर्य नहीं। इसका मुख्य कारण भाजपा के कई
विश्वसनीय मत बैंकों के बिखरने का डर इनमें प्रमुख ब्राह्मण हैं,जिनकी संख्या करीब १३ फीसदी है।
उधर सपा,कांग्रेस और अन्य गैर भाजपाई दलों का मानना है कि राज्य में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण और विद्वेष की राजनीति उस निचले स्तर तक पहुंच गई है, जिसे जनता अब और गवारा नहीं कर सकती। अपने धार्मिक आग्रह-दुराग्रहों के बाद भी लोग आम तौर पर शांति और सद्भाव चाहते हैं। सरकार लोगों की असली समस्याओं पर ध्यान दे,जैसे-बेरोजगारी, महंगाई,फसलों का उचित दाम। पश्चिमी उप्र में किसानों को गन्ने का पूरा भुगतान न मिलना भी मुद्दा बन रहा है।
यूँ अवसरवाद भारतीय राजनीति का एक प्रमुख रोग है। स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे लोग इसके सरगना कहे जा सकते हैं। भाजपा के लिए चिंता की बात यह होनी चाहिए कि मौर्य के अलावाा वो विधायक
भी पार्टी छोड़ने की राह पर हैं,जो अगड़ी जातियों के हैं। हो सकता है कि इन्हें इस बार टिकट न मिलने की भनक लग गई हो और इसीलिए वो दूसरे दलों में जाकर टिकट पक्का कर रहे हों,लेकिन चुनाव के वक्त में इस तरह जाना एक नकारात्मक
हवा तो बनाता ही है। हालांकि,कुछ लोग भाजपा में आ भी रहे हैं और भगदड़ के पीछे राजनीतिक पूर्वानुमान हमेशा सही नहीं होता,जैसा पश्चिम बंगाल में देखा।
बहरहाल,उप्र से भी पहले यह नकारात्मक हवा भाजपा के लिए उत्तराखंड में बनने लगी थी। वहां भाजपा फिर चुनाव जीतने की उम्मीद में ३ सीएम बदल चुकी। फिर भी वहां १ मंत्री और १ विधायक कांग्रेस में चले गए हैं। गोवा में सत्तारूढ़ भाजपा के ४ विधायक पार्टी छोड़ चुके हैं। मणिपुर में तो इस भगदड़ का बिगुल ६ महीने पहले ही बज गया था, जब ६ भाजपा विधायकों ने इस्तीफे का ऐलान कर दिया था। वैसे विधायक कांग्रेस के भी टूट रहे हैं,पर पंजाब के अलावा कांग्रेस कहीं भी पहली पंक्ति में नहीं है।
असली मुद्दा यह राजनीतिक भगदड़ का चलन और उप्र में भाजपा विधायकों का दल को टाटा करना, इस बात पर सवालिया निशान लगाता है कि क्या भाजपा की ओबीसी केन्द्रित राजनीति में कहीं खोट है। नीयत और यथार्थ में फासला है। लिहाजा उप्र विधानसभा चुनाव में भाजपा के लिए हिंदुत्व की छतरी की सभी ताड़ियों को चाक-चौबंद रख पाने की चुनौती भी है। तो क्या उप्र में भी वो ‘खेला’ शुरू हो गया है, जिसे अखिलेश यादव ‘मेला होबे’ बता रहे हैं।

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