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कई रोगों में बहु उपयोगी ‘मेंहदी’

डॉ.अरविन्द जैन
भोपाल(मध्यप्रदेश)
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मेंहदी की पत्तियों का प्रयोग रंजक द्रव्य के रूप में किया जाता है तथा इसकी सदाबहार झाड़ियाँ बाड़ के रूप में लगाई जाती हैं। स्त्रियों के श्रंगार प्रसाधनों में विशिष्ट स्थान प्राप्त होने के कारण मेंहदी बहुत लोकप्रिय है। मेंहदी का वानस्पतिक नाम ‘लासोनिआ इनर्मिस’, अंग्रेज़ी नाम ‘हेना’ जबकि संस्कृत में ‘मदयन्तिका, मेदिका, नखरंजका, नखरंजनी, रंजका, राजगर्भा, सुगन्धपुष्पा, रागाङ्गी है। हिन्दी में मेंहदी व हिना कहलाती है।
मेंहदी कफ-पित्तशामक, कुष्ठघ्न तथा ज्वरघ्न होती है और दाह, कामला, रक्तातिसार आदि का शमन करती है। इसका लेप वेदना-स्थापन, शोथहर, स्तम्भन, केश्य, वर्ण्य, दाह-प्रशमन, व्रणशोधक और व्रणरोपक है।
इसका मूल स्तम्भक, शोधक, मूत्रल, गर्भस्रावक, आर्तववर्धक तथा केश्य होता है, तो पत्र स्तम्भक, प्रशीतक, शोथघ्न, मूत्रल, वामक, कफनिसारक, विबन्धकारक, शोधक, यकृत् को बल प्रदान करने वाले, ज्वरघ्न, केश्य, रक्तवर्धक, स्तम्भक तथा वेदनाशामक होते हैं। इसके पुष्प हृद्य, प्रशीतक, बलकारक तथा निद्राजनक होते हैं।
औषधीय प्रयोग देखें तो गर्मी तथा पित्त की वजह से सिर में दर्द होता हो, तो मेंहदी के २५ ग्राम पत्तों को ५० मिली तैल में उबालकर इसे सिर में लगाने से तथा १० ग्राम फूलों का १०० मिली पानी में फाण्ट बनाकर २० मिली मात्रा में पिलाने से लाभ होता है। ऐसे ही जिस व्यक्ति को गर्मी के कारण सिर में पीड़ा रहती हो, वह और सब तैलों को त्याग कर सिर में केवल मेंहदी का तैल लगाएं। ऐसे ही मस्तिष्क के रोगों में मेंहदी के ३ ग्राम बीजों को शहद के साथ चाटने अथवा इसके फूलों का क्वाथ पिलाने से अच्छा लाभ होता है।
केश रंगने में मेंहदी उपयोगी है तो मेंहदी दही, नींबू तथा चाय की पत्ती को मिलाकर २-३ घंटे बालों में लगाने से फिर सिर धो लेने से बाल घने, काले, मुलायम और लम्बे होते हैं।
पाँव के तलवों पर भी मेंहदी लगाने से स्थायी लाभ होगा तो १० ग्राम मेंहदी तथा १० ग्राम जीरा दर-दरा कूटकर रात्रि में गुलाब-जल में भिगो दें और प्रात छानकर स्वच्छ शीशी में रख लें। इसमें १ ग्राम भूनी हुई फिटकरी को बारीक पीसकर मिला लें और आवश्यकता के समय नेत्रों में डालने से आँखों की लालिमा दूर होती है।
इसके अलावा सलाह अनुसार मुँह के छाले, प्लीहा-विकार, सौन्दर्य प्रसाधन, रक्तातिसार, पुराने पीलिया रोग, पथरी
सहित संधिशूल, घुटनों का दर्द, कुष्ठ, फोड़े-फुंसी में भी इससे अत्यन्त लाभ होता है।

परिचय- डॉ.अरविन्द जैन का जन्म १४ मार्च १९५१ को हुआ है। वर्तमान में आप होशंगाबाद रोड भोपाल में रहते हैं। मध्यप्रदेश के राजाओं वाले शहर भोपाल निवासी डॉ.जैन की शिक्षा बीएएमएस(स्वर्ण पदक ) एम.ए.एम.एस. है। कार्य क्षेत्र में आप सेवानिवृत्त उप संचालक(आयुर्वेद)हैं। सामाजिक गतिविधियों में शाकाहार परिषद् के वर्ष १९८५ से संस्थापक हैं। साथ ही एनआईएमए और हिंदी भवन,हिंदी साहित्य अकादमी सहित कई संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। आपकी लेखन विधा-उपन्यास, स्तम्भ तथा लेख की है। प्रकाशन में आपके खाते में-आनंद,कही अनकही,चार इमली,चौपाल तथा चतुर्भुज आदि हैं। बतौर पुरस्कार लगभग १२ सम्मान-तुलसी साहित्य अकादमी,श्री अम्बिकाप्रसाद दिव्य,वरिष्ठ साहित्कार,उत्कृष्ट चिकित्सक,पूर्वोत्तर साहित्य अकादमी आदि हैं। आपके लेखन का उद्देश्य-अपनी अभिव्यक्ति द्वारा सामाजिक चेतना लाना और आत्म संतुष्टि है।