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कचोटन

रश्मि लहर
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)
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तमाम उम्र,
भारी-भारी नामों को
सहेजने की प्रथा है!

तुम्हें पता है ?
यह कितनों की,
कितनी बेबस व्यथा है ?

दिग-दिगन्त तक चलने वाले,
नामधारी रिश्ते!
तमगे हैं दायित्व के…
बेमुरव्बत जिम्मेदारियों के साथ,
टांक दिए गए हैं
बन्धनों की भ्रमित…,
बारीक-सी दीवार पर।

और,
युवा से अधेड़…
फिर वृद्ध होते…,
झुर्री से भरे रिश्ते!
हारने लगते हैं…,
नव-चेतन परिणामों से।

यह रिश्ते न,
जम जाते हैं कटोरी में चिपके
पुराने घी के निशान जैसे,
रखे रह जाते हैं पीढ़ियों पुराने बक्से में
न प्रयुक्त होने वाले परिधान जैसे।

खोते रहते हैं अपना महत्व,
भूल जाते हैं कि तटस्थ से वो
सटे-सटे से रिश्ते
हो चुकते हैं…,
जीवन-गेह के किवाड़ के वे दो पट
जो अकुलाए मौसम की मार झेलकर,
एक-दूसरे के मध्य अड़े रह गए हैं!

और…
स्तब्धता के साथ!
अनंत पीढ़ियों का साथ निभाने वाले,
आदर्श के बरगद भी
अब ठूंठ से ठगे-ठगे खड़े रह गए हैं!!