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कभी पास तो कभी सुदूर

डॉ. श्राबनी चक्रवर्ती
बिलासपुर (छतीसगढ़)
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शांत पहाड़ की चोटी,
सीधे मेरी ओर देखकर
न जाने क्यों मुझे,
आवाज देती है
अपनी ओर बुलाती है।

उस दुर्गम पथरीले गिरि के,
ऊंचाई भरे संकीर्ण पथ पर
चढ़ना सरल नहीं है मगर,
कभी सोचती हूँ क्यों न
एक बार प्रयास करूँ।

इच्छा शक्ति और मनोबल,
खींच लाई मुझे उस आकर्षण की ओर
डर और शंका बेकार ही मुझे पीछे फेंकती है,
पर जब मैं पहुँचीं शिखर पर थक के चूर
तब देखकर हैरान रह गई उस पर्वत का नूर।

पुरातन भव्य शिव मंदिर में,
दिव्य दर्शन हुए महादेव के
शायद यही शक्ति बुला रही थी,
अपने भक्तों को याद दिला रही थी
कि जो तू ढूंढ रहा है वही इस दुर्गम पहाड़ी पर है।

श्रंग पर है, हर जीव और कण-कण में है,
एक बार आकर जो दर्शन कर ले
सच्चे मन से अर्चना कर ले,
शंभू शंकर सबकी पीड़ा हर ले
बम-बम भोले डमरू वाले।

मिट जाएगा अंधकार, होगी सारी शंका दूर,
स्थल, जल, नभ, समीर, शिखर
और सबके मन में ईश्वर बसते हैं।
मात्र अनुभूति होने की देर है,
कभी पास तो, कभी सुदूर॥

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