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कर्मपथ की साथी साईकिल

डॉ.अर्चना मिश्रा शुक्ला
कानपुर (उत्तरप्रदेश)
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मेरे पिता जी की साईकल स्पर्धा विशेष…..

लोमश ऋषि की पदधूल में रचा-बसा गाँव लोमर जिला बाँदा उत्तर प्रदेश मेरी जन्मस्थली है, लेकिन मेरी बचपन की यादों की शुरुआत फतेहपुर जिला के बिन्दकी तहसील के महाजनी गली मोहल्ले के प्रसिद्ध मन्दिर के सामने बसा मेरा घर,चबूतरा और अच्छा-खासा मैदान जहां बाबू जी के सानिध्य में हम सब पढ़-लिख कर तैयार हो रहे थे। घर पर बाबू जी का साम्राज्य था,जिसमें अम्मा अपनी पूरी तत्परता से अपना सौ प्रतिशत घर-परिवार के लिए दे रही थीं। मेरे बाबू जी झाँसी,मऊरानीपुर,कर्वी, चित्रकूट आदि में अपनी सेवा देकर स्थानान्तरण में फतेहपुर की बिन्दकी तहसील में सहायक कृषि रक्षा अधिकारी के पद पर आए थे। यहीं से मेरी यादें और बाबू जी की साईकिल की सवारी और उनकी कर्मभूमि में इस साइकिल का योगदान याद आ रहा है।
वह साइकिल का दौर और मेरा बचपन,उस पर अम्मा की बताई बातें-अम्मा अपनी शादी की बातें बतातीं,अपने चढ़ावे की तारीफ,हाथी- घोड़े और बारात का वैभव। अब आती कलेवा की बात,क्योंकि उस समय का यह कलेवा खास था। हमारे बाबू जी को मर्फी का रेडियो और साईकिल जो मिली थी। गाँव-गाँव सरपंच जी के लड़के की शादी की चर्चा,उस पर कलेवा में मिली साईकिल। बाबू जी उस समय पढ़ाई कर रहे थे,जब उनकी शादी हुई थी। बाबू जी ने भी अपनी साईकिल खूब दौड़ाई नाते,रिश्तेदारी,यार-दोस्तों के साथ साइकिल का सफर यादगार बना।
यह किस्सा तो हमारे बाबू जी ने ही बताया कि वह अपनी ससुराल यानी मेरी नानी के यहाँ साईकिल से ही गए। बड़ा आदर-सत्कार,मान-सम्मान किया गया। अब जब लौटने की बारी आई तो कई लोग साथ में रोड तक छोड़ने आए। बाबूजी ने साईकिल बढ़ाई और पहुँचे अपनी भौजी के मायके मोरवां-उस समय का प्रेम,स्नेह और सम्मान बड़ा पावन और पवित्र छ्ल-कपट से रहित,दिखावा और बनाव से एकदम दूर। सबसे मिल-जुल कर विदाई ले अपनी साईकिल पर सवार जिंदादिली से सबसे मिलते-जुलते अपने गाँव पहुँचे ।
बाबूजी की साईकिल का दूसरा दौर मेरे बचपन की स्मृतियों में रचा बसा है। उनके आफिस से आने पर हम सब दौड़ लगाते,कौन पहले जाएगा,बाबूजी आज क्या लाए हैं। साईकिल खड़े होने तक हम सब इन्तजार करते और चीजें लेकर भागते। बाबूजी ने लगभग दस-बारह वर्ष तक फतेहपुर जिला की कृषि रक्षा इकाई की जिम्मेदारी निभाई। उनकी साईकिल देवमई ब्लाक से बकेवर पहुँची तो कभी बिन्दकी,चौड़गरा
और मलवां,खजुहा,असोथर और अजमतपुर…कहाँ-कहाँ नही दौड़ी उनकी साईकिल। आज तो मानो मेरा पूरा अर्न्तहृदय द्रवित हो उठा। वह परिश्रम जिसकी छाँव तले हम लोग पले-बढ़े। वह साईकिल ही थी जो बाबूजी का इस कर्मपथ में सदैव साथ निभाती रही। बाबूजी भाग्य के भरोसे बैठने वाले इंसान नहीं हैं,उन्होंने अपने उद्धम और श्रमजल से सदा अपनी परिस्थितियों को हराया है।
बाबूजी को यश और प्रतिष्ठा बहुत मिली,लेकिन इसके सामने कभी अर्थ को महत्व नहीं दिया। हम अपने बाबूजी की आर्थिक विवशताओं को उस समय जान भी नहीं पाते थे। बाबूजी की जमीदारी वाली आदतें, अदम्य महत्वाकाक्षाएं,प्रगतिशीलता इन सबका बोझ अम्मा प्रत्यक्ष रुप से सदा उठाती रहीं। उस दौर में बाबूजी का नाम,सम्मान और प्रतिष्ठा के कारण दूर-दूर के रिश्तेदार हाईस्कूल और इण्टर की परीक्षा देने के लिए महीनों रुकते। इन सब व्यवस्थाओं में बाबूजी की साईकिल ही दौड़ती।
बाबूजी की साइकिल में बैठकर हम लोगों ने कई किसानों के बगीचे में जाकर आम भी खाए हैं,निमन्त्रण में पहुँचकर ताजा गन्ने का रस और गरमा-गरम गुड़ भी खाए हैं। मटर,खरबूजे और टमाटर तो खूब उड़ाए हैं। हम बच्चों की हर उचित-अनुचित फरमाइशों की फेहरिस्त इसी साईकिल के साथ बाबूजी पूरी किया करते थे। साइकिल में बैठकर गाँव जाने का उल्लास अलग ही था। अम्मा चिल्लाती,डाँटती मना करती कि इतनी दूर तुम लोग नहीं जा पाओगे,लेकिन हम सब तब तक बाबूजी के पीछे लगे रहते जब तक कि किसी एक का जाना पक्का न हो जाता। मुझे याद आता है बुरादे की अंगीठी,जिसके लिए बुरादा और लकड़ियाँ लेने के लिए बाबू जी अपने यहाँ के चपरासी रामदुलारे चाचा को साईकिल से भेजा करते थे ।
वह दिन भी याद है जब मैं और बड़ी बहन शाला से लौटते वक्त कृषि रक्षा इकाई यानी बाबूजी के आफिस पहुँच जाते। वहाँ कुछ पैसे भी मिलते व साईकिल से घर आने का मौका भी मिल जाता। अब हमारी खुशियों का ठिकाना न होता,अम्मा खाना खाने को बुलातीं और हम दौड़े-भागे घूमते अपने मिले पैसे गिनते,रखते,उठाते मानो भूख मिट जाती और पानी-पत्ता सब हमारी साईकिल की सवारी ही पूरी कर देती…।

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