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कर्मानुसार फल भोगना तय

डॉ.अरविन्द जैन
भोपाल(मध्यप्रदेश)
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जैन दर्शन के अनुसार ईश्वर विश्व निर्माता नहीं है। यदि सृष्टि निर्माता होता तो, सब जीवों को समान बनाता, पर ऐसा नहीं हुआ और यह सृष्टि अनादि अनंत है। इसमें हर जीव को अपने अपने कर्मानुसार कर्म का फल भोगना होता है। जिस-जिस जीव ने जो भी पूर्व कर्म किए हैं, उनका फल वर्तमान में मिलता है और इस जन्म का फल भी तुरंत मिलता है। और यह आगामी काल में भी भोगना होता है। यह क्रम अनवरत चलता रहता है, जब तक कि जीव मोक्ष नहीं प्राप्त कर लेता है। कर्मों के अनुसार चारों गतियों में आना-जाना लगा रहता है, जब तक कि पंचम गति न प्राप्त हो।

जैन दर्शन के अनुसार जब कोई कर्म किया जाता है, तो उस कर्म के परमाणु ८ भागों में विभक्त हो जाते हैं और आत्मा के स्वाभाविक गुणों को प्रकट नहीं होने देते।
इस कर्म के निमित्त से ही यह जीव इस संसार में अनेक शारीरिक, मानसिक और आगंतुक दु:खों को भोग रहा है। जीव के साथ कर्मों का संबंध अनादिकाल से चला आ रहा है। जीव का अस्तित्व ‘अहं’-‘मैं’ इस प्रतीति से जाना जाता है तथा कर्म का अस्तित्व जगत में कोई दरिद्री है तो कोई धनवान है, इत्यादि विचित्रता को प्रत्यक्ष देखने से सिद्ध होता है। इस कारण जीव और कर्म दोनों ही पदार्थ अनुभव सिद्ध हैं। इस कर्म के ८ भेद हैं, जबकि ८ कर्मों के नाम-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय है। इन ८ कर्मों की मूल प्रकृतियाँ स्वभाव है।
कर्म के उदय से उत्पन्न हुआ तथा मोह, असंयम और मिथ्यात्व से वृद्धि को प्राप्त हुआ यह संसार अनादि है। इस संसार में जीव का अवस्थान रखने वाला आयु कर्म है। उदय में आने वाला आयु कर्म जीवों को उन-उन गतियों में रोक कर रखता है, जैसे हम और आप मनुष्यायु कर्म के उदय से मनुष्य गति में रुके हुए हैं।
मोहनीय कर्म के भेद राग-द्वेष आदि जो हैं, उनके उदय के बल से ही यह वेदनीय कर्म घातिया कर्मों की तरह जीवों का घात करता रहता है, इसीलिए इसे मोहनीय के पहले रखा है अर्थात् यह वेदनीय कर्म इंद्रियों के रूपादि विषयों में से किसी में प्रीति और किसी में द्वेष का निमित्त पाकर सुख तथा दु:ख स्वरूप साता और असाता का अनुभव कराता रहता है किंतु जीव को अपने शुद्ध ज्ञान आदि गुणों में उपयोग नहीं लगाने देता है, पर स्वरूप में ही लीन करता है। वास्तव में वस्तु का स्वभाव भला या बुरा नहीं है, किन्तु जब तक राग-द्वेषादि रहते हैं तभी तक यह किसी वस्तु को भला और किसी को बुरा समझता रहता है। जैसे नीम का पत्ता मनुष्य को कड़वा, किन्तु ऊँट को प्रिय लगता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि मोहनीय कर्मरूप राग-द्वेष के निमित्त से वेदनीय का उदय होने पर ही इंद्रियों से उत्पन्न सुख तथा दु:ख का अनुभव होता है। मोहनीय के बिना वेदनीय कर्म राजा के बिना निर्बल सैन्य की तरह कुछ नहीं कर सकता है।
आत्मा के दर्शन गुण को जो ढकता है, वह दर्शनावरण है, जैसे दरवाजे पर बैठा हुआ पहरेदार राजा का दर्शन नहीं होने देता है। सुख-दु:ख का अनुभव कराने वाला वेदनीय कर्म है, जैसे शहद लपेटी तलवार जिह्वा पर रखने से शहद चखने का सुख और जीभ कटने का दु:ख हो जाता है। जो जीव को मोहित करता है वह मोहनीय कर्म है, जैसे मदिरा पीने से जीव अपने स्वभाव को भूलकर अचेत हो जाता है। जो किसी एक पर्याय में रोके रखे वह आयु कर्म है, जैसे लोहे की साँकल या काठ का यंत्र जीव को दूसरी जगह जाने नहीं देता है। जो अनेक तरह के शरीर आदि आकार बनावे वह नाम कर्म है। जैसे चित्रकार अनेक प्रकार के चित्र बनाता है। जो जीव को ऊँच-नीच कुल में पैदा करे वह गोत्र कर्म है, जैसे कुंभकार मिट्टी के छोटे-बड़े बर्तन बनाता है। जो ‘अंतर एति’ दाता और पात्र में अंतर-व्यवधान करे, वह अंतराय कर्म है। जैसे भंडारी (खजांची) दूसरे को दान देने में विघ्न करता है-देने से रोक देता है उसी तरह अंतरायकर्म दान, लाभ, भोग आदि में विघ्न करता है। इस प्रकार से ८ कर्मों का लक्षण और स्वभाव है।

परिचय- डॉ.अरविन्द जैन का जन्म १४ मार्च १९५१ को हुआ है। वर्तमान में आप होशंगाबाद रोड भोपाल में रहते हैं। मध्यप्रदेश के राजाओं वाले शहर भोपाल निवासी डॉ.जैन की शिक्षा बीएएमएस(स्वर्ण पदक ) एम.ए.एम.एस. है। कार्य क्षेत्र में आप सेवानिवृत्त उप संचालक(आयुर्वेद)हैं। सामाजिक गतिविधियों में शाकाहार परिषद् के वर्ष १९८५ से संस्थापक हैं। साथ ही एनआईएमए और हिंदी भवन,हिंदी साहित्य अकादमी सहित कई संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। आपकी लेखन विधा-उपन्यास, स्तम्भ तथा लेख की है। प्रकाशन में आपके खाते में-आनंद,कही अनकही,चार इमली,चौपाल तथा चतुर्भुज आदि हैं। बतौर पुरस्कार लगभग १२ सम्मान-तुलसी साहित्य अकादमी,श्री अम्बिकाप्रसाद दिव्य,वरिष्ठ साहित्कार,उत्कृष्ट चिकित्सक,पूर्वोत्तर साहित्य अकादमी आदि हैं। आपके लेखन का उद्देश्य-अपनी अभिव्यक्ति द्वारा सामाजिक चेतना लाना और आत्म संतुष्टि है।

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