रत्ना बापुली
लखनऊ (उत्तरप्रदेश)
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कैसे कह दूँ रे मालिक,
सुन्दर यह संसार,
शूल ही संग क्यों होता ?
फूलों का अभिसार।
दीप जो जलता है सदा,
देने को आलोक
उसी के नीचे क्यों है ?
रहता घोर अँधकार।
वृक्ष जो देता है हरदम,
मधुर फलों का स्वाद
क्यों उसी को सहना पड़ता, प्रस्तर का प्रहार।
दूब जो लाती हरियाली, उपवन के हर छोर
क्यों वह कुचली जाती है ?
पग से बारम्बार।
माना कितने घर यहाँ,
जहाँ भूख का राज
कुछ घरों में क्यों होता ?
रोटी का अपकार।
धुआँ-धुआँ सा लगता है, हमको यह संसार
दूषित हुई इसकी वायु,
जीना है दुश्वार।
क्यों व्याकुल है ‘रत्ना’ तू,
जग की यही है रीत।
शुभ व अशुभ भरा हुआ है, जग के इस भंडार॥