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कैसे सम्भव है देश का विकास

हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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सामाजिक विषमताओं और विकृतियों को लेकर चिन्तित एवं उद्विग्न मानस ने जब मुझे रात्रि के तीसरे पहर कचोटा तो मुझसे रहा नहीं गया। एकाएक आँखें खुली और मैं जाग उठा। अंतःकरण में अनायास ही कई सारे प्रश्न एकसाथ आसमानी बिजली की तरह कौंधे।
प्रश्न समाज के बदलते विचारों और नवीन भावबोधों को लेकर खड़े हुए थे कि आज समाज क्यों इतना खुदगर्ज और असंस्कृत होता जा रहा है ? पहला विचार आया कि हमारे यहाँ तो शिक्षा बौद्धिक विकास के लिए दी जाती थी और आज शिक्षा बौद्धिक विलास का साधन बनती जा रही है। कहीं यह तो सामाजिक मान्यताओं के विकृतिकरण का कारण नहीं है ? आज विद्यालय-महाविद्यालयों में छात्र नशे की जद में और इंटरनेट की girft में आ गए हैं, जो पुस्तकों को पढ़ना ही नहीं चाहते हैं। जो थोड़े बहुत पढ़ते भी हैं, वे भी मात्र परीक्षा उत्तीर्ण करने और अच्छे अंक लेने या फिर सरकारी नौकरी पाने के लिए पढ़ते हैं। बाकी पुस्तकों को विद्या अध्ययन के लिए पढ़ने का चलन आज पूर्ण रूप से खत्म ही हो गया है। खैर, विद्यार्थियों की छोड़िए, वे तो नादान होते हैं।उन्हें तो अभी शिक्षा, विद्या-अविद्या, पारा विद्या, महा विद्या और साक्षरता आदि शब्दों का शब्दार्थ भी ठीक से ज्ञात नहीं है शायद, पर बड़े-बड़े विद्यालयों और महाविद्यालयों में तैनात अध्यापकों, प्रवक्ताओं तथा प्राध्यापकों का भी इस सन्दर्भ में मिजाज कुछ अच्छा नहीं है। इनमें से अधिकांश कभी क्रिप्टो मुद्रा, कभी ऑनलाइन मैच में टीम लगाकर पैसों के पीछे विद्यालय-महाविद्यालयों के कर्तव्यकाल में भी भागे हैं तो शेष बचे सुबह- शाम के समय में अपनी मस्ती में आमादा है।अब बताइए कि, वह भी पुस्तकालयों की बड़ी-बड़ी अलमारियों में पड़ी और धूल फांक रही अच्छे से अच्छी पुस्तकों को कब पढ़ेगा ? जिनमें सामाजिक व्यवस्थापन के अनेक मानवीय पहलू लिखे पड़े हैं। उनमें लिखा पड़ा है मानवीय मूल्यों का विवरण, जो मानव को पशु पक्षी-जगत से अलग प्राणी बने रहने की सीख देता है। उनमें लिखा पड़ा है हर विषय का बारीक से बारीक ज्ञान, जो हर अध्यापक को उसके अध्यापन के लिए और मजबूत एवं तर्कसंगत करता है, पर नहीं, आज के अध्यापकों और छात्रों ने कसम खा रखी है कि पुस्तकालय का दरवाजा तक नहीं देखेंगे। उन्होंने बुद्धि के विलास के लिए गूगल को गुरु जरूर बनाया है, पर बुद्धि के विकास के सारे दरवाजे बन्द करने पर तुले हैं। हम सब जानते हैं कि इंटरनेट में आजकल क्या – क्या चलता है और उसके परिणाम क्या हो रहे हैं ? बच्चे भी सच्चे हैं। जब गुरु जी हर बात गूगल से देखते हैं तो बच्चे क्यों न देखें ? बच्चे तो अध्यापकों को ही अपना आदर्श मानते हैं। और तो और बच्चे बिन पढ़े ही गुरु जी की कृपा से अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो जाते हैं। वे भी गुरु जी के कायल हो जाते हैं। बेचारे नादान ये नहीं समझते हैं कि यह सब गुड में जहर से कम नहीं है। गुरु जी काम चोरी के चलते और छात्र अच्छे अंक प्राप्त करने के चलते साल के अन्त में इन्हीं हथककंडो को अपनाते हैं। जब सालभर दोनों ने मस्ती ही मारी है और बौद्धिक विलास ही किया है तो फिर समाज में दोनों को अच्छा भी तो अपने को दिखाना है। अच्छे अंक जब आते हैं तो माँ-बाप भी बच्चे से खुश हो जाते हैं तथा गुरु जी के भी कायल हो जाते हैं। वाह! क्या कमाल का पढ़ाते हैं गुरु जी ? मेरे बच्चे ने सौ में से छियानवे फ़ीसदी अंक प्राप्त किए हैं। बच्चे की प्रशंसा करते करते भी नहीं थकते। बस इसी बिगाड़ के चलते बच्चों को और प्रोत्साहन मिलता है।वह अपनी १-२ जिद माँ-बाप से और पूरी करवाता है। फिर एक दिन जब वह बच्चा विद्यालय-महाविद्यालय से बाहर आता है तो संस्कारहीन और दिशाहीन होकर समाज में आता है। यदि कहीं जुगाड़बाजी से वह सरकारी सेवा में लग भी जाता है तो समझ लो कि वह किस स्तर की सरकारी सेवा देगा ? फिर बोलो कि भ्रष्टाचार की जड़ कहां है ? इन्टरनेट का विरोध नहीं है, विरोध है उसके गलत इस्तेमाल का। यदि सच में शिक्षा के लिए अध्यापकों और बच्चों द्वारा उसका प्रयोग किया जाए तो वह शिक्षा की दशा और दिशा ही बदल देगा।
इधर, सरकारें और सरकारों के नीतिकार हैं कि, बच्चों को सुधारने के अधिकार से अध्यापकों को वंचित करने पर तुले हैं। इससे जो थोड़े-बहुत अध्यापक संस्कार और व्यवहार की शिक्षा के पक्षधर हैं भी, उनके हाथ-पाँव भी बंधे पड़े हैं। बस, अब तो अध्यापक ने अपना मक़सद विद्यालय जाना, हाजरी लगाना तथा अपने विषय का कालखण्ड लगाना ही तय किया है। खाली कालखण्ड में पुस्तकालयों की स्थापना शालाओं में यूँ ही जाया जा रही है। न अध्यापक पढ़ता है, और न छात्र। किताबें यदि पढ़ी जाती है तो मात्र नौकरी लगने के लिए। बस एक बार नौकरी मिल गई तो फिर तो हर व्यक्ति सर्वज्ञ हो जाता है। नौकरी सरकारी हो या निजी, हर व्यक्ति आज वेतन तो पूरा चाहता है पर काम करना ही नहीं चाहता है। इस नकारात्मकता का कारण आखिर क्या है ? तभी तो कहता हूँ कि, शिक्षा योग का विषय है, भोग का नहीं। शिक्षा बौद्धिक विकास का विषय है, बौद्धिक विलास का नहीं। शिक्षा आत्मरंजन का साधन है, मनोरंजन का नहीं। शिक्षा नैतिकता और चरित्र निर्माण का साधन है, विकृतता का नहीं। शिक्षा अनुशासन का विषय है, शासन-प्रशासन का नहीं। यह बात समूचे विश्व को समझनी चाहिए।
मेरा मानना है कि, विद्यालय वह निर्माण संस्थान है, जहां भविष्य के समाज के निर्माण के लिए शिक्षार्थी रूपी सामग्री तैयार की जाती है। यदि उस सामग्री के निर्माण में ही गड़बड़ हो जाएगी तो समाज रूपी इमारत की मजबूती का भी प्रश्न ही पैदा नहीं होता है। यानी सामग्री निर्माता गुरु का नैतिक और चारित्रिक रूप से उन्नत होना एवं अत्यधिक भौतिकता से दूर रहना जरूरी है। शिक्षा व्यवस्था में संस्कार शिक्षा का जोड़ना जरूरी है। शिक्षकों को छात्रों को रोकने-टोकने के अधिकार देना जरूरी है। अभिभावकों को अंकों के आँकड़ों से बाहर लाकर विद्या और शिक्षा के साथ-साथ राष्ट्रीयता और सामाजिकता का बोध कराना जरूरी है।वरना भविष्य का समाज पशु समाज से भी भयानक होगा। रिश्तों की अहमियत नहीं होगी, आत्मीयता नहीं रहेगी। सभी अपना स्वार्थ सिद्ध करने और भौतिक चाह को पूरा करने के लिए कभी भी कुछ भी करने को आमादा रहेंगे। कोई मरने-मारने से नहीं डरेगा। इसलिए, देश की शिक्षा प्रणाली को मजबूत बनाने की आवश्यकता वर्तमान में बहुत ज्यादा हो गई है। इसके चलते सरकारों को भी विद्यालयों-महाविद्यालयों में राजनीति से नहीं, बल्कि समाज नीति से मनोयोग पूर्ण तरीके से काम करना चाहिए। शिक्षा के स्तर को शिक्षक ही उन्नत करेगा। बस सरकारों को यह तय करना है कि, शिक्षकों को बिना डराए एक उचित व्यवस्था सहित सामाजिक और राजनीतिक मान-सम्मान देकर कैसे शिक्षा का उत्थान करने के लिए स्वतन्त्र दायित्व देना है ? प्रश्न यह भी है कि, शिक्षा धनार्जन का विषय न बने, बल्कि ज्ञानार्जन और संस्कृति तथा सभ्यता की सम्वाहक बनकर सामने आए। जिस व्यवस्था में रोजगार प्राप्ति की राह के साथ-साथ व्यक्ति विद्या तथा परा ज्ञान की प्राप्ति भी करे, ताकि कल जब वह विद्यार्थी समाज में जाए तो एक नेक और संस्कारवान व्यक्ति की भूमिका में जाए।
खैर, आज इस बात को कोई नहीं मानेगा। सभी यही कहेंगे कि, हम अपना शत-प्रतिशत देते हैं, पर अंदर से सभी यह जानते हैं कि असलियत क्या है ? सरकारी नौकरी का वर्तमान में यह हाल हो गया है कि एक बार मिलनी चाहिए बस। फिर तो वह व्यक्ति काम करने को राजी नहीं है। होना तो यह चाहिए कि नैतिकता के चलते व्यक्ति ईमानदारी से अपना कार्य करे, जिसकी उसे तनख्वाह मिलती है। तभी वह शिक्षित, सुसंस्कृत और सभ्य है, पर ऐसा कुछ भी नहीं होता है।आजकल सभ्यता, संस्कृति तथा शिक्षा की पहचान सुख-सुविधाएं, रसूख और पैसा हो गया है। शालीनता, विनम्रता तथा नैतिकता नहीं। समाज की यह बदलती सोच बहुत बड़ी विडम्बना है। यहाँ पैसों के लिए अपना चरित्र तक बेचने को लोग तैयार है, पर मेहनत करने को राजी नहीं है। ऐसे में कैसे संभव है देश का विकास ? यह एक चिंतनीय प्रश्न है।

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