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चुनाव:जिताऊ और जन मुद्दों में इतना अंतर क्यों ?

अजय बोकिल
भोपाल(मध्यप्रदेश) 

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उत्तर प्रदेश सहित ५ राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजों ने इस सवाल को फिर रेखांकित किया है कि चुनाव जिताने वाले मुद्दे और अमूमन जनता के समझे जाने वाले मुद्दों में इतनी तफावत क्यों है ? बुद्धिजीवी जिन्हें असल मुद्दे मानकर जो महल खड़ा करते हैं,आम आदमी उससे वैसा इत्तफाक क्यों नहीं रखता,जो नतीजों को भी उसी के मुताबिक उलट दें ? पिछले कुछ सालों में यह देखने में आ रहा है कि आम आदमी की जिंदगी से जुड़े मुद्दे तथा जद्दोजहद कुछ और है लेकिन उसका चुनावी जनादेश कुछ और होता है। इसी से यह सवाल भी नत्‍थी है कि,मतदाता आखिर किस बात से प्रभावित होकर अपना मत देता है,अपना राजनीतिक मन बनाता है। इसको लेकर बौद्धिक जुगाली करने वाले ज्यादा समझदार हैं या फिर मतदाता ? अथवा यह केवल समाज के एक वर्ग द्वारा ‘बिल्ली’ को ‘बाघ’ के रूप में देखने-दिखाने की कवायद है,जिससे आम मतदाता ज्यादा इत्तफाक नहीं रखता ?

ये तमाम सवाल इसलिए, क्योंकि उप्र में जिन मुद्दों को लेकर सत्ता परिवर्तन की हवा बनाई जा रही थी,वो जमीन पर नदारद दिखी। यहां हम राजनेताओं के बढ़-चढ़ कर किए जाने वाले दावों और वादों की बात नहीं कर रहे हैं,लेकिन एकसाथ ४ राज्यों में भाजपा की तमाम खिलाफत के बावजूद सत्ता में वापसी कोई साधारण बात नहीं है। पिछले डेढ़ साल से एक बड़ा मुद्दा उप्र,पंजाब और उत्तराखंड में किसान आंदोलन का था। बेशक ३ विवादित कृषि कानूनों को लेकर भाजपा के प्रति किसानों में नाराजी थी। इसे लेकर देश की राजधानी दिल्ली की सरहदों पर ज्यादा समय तक आंदोलन चलाया गया। माहौल यूँ बनाया गया कि अगले चुनावों में यही एक निर्णायक मुद्दा साबित होने वाला है। इसका एक संदेश यह भी था इस देश का किसान इतना स्वार्थी है कि उसे अपनी उपज के बेहतर मूल्य पाने और अपने संघर्ष से ज्यादा किसी से मतलब नहीं है। यह सोच उसी तरह की है,जैसे मनुष्य के वजूद को केवल पेट में समेट देना या मनुष्यता को राष्ट्र की पहचान में विलीन कर देना। यह आसानी से भुला दिया गया कि किसान भी इस देश का जिम्मेदार मतदाता है। वह भी दूसरे मुद्दों पर अपने ढंग से सोचता है,आंकता है,तौलता है।

बेशक किसान आंदोलन,बड़ा आंदोलन था,लेकिन वही सब-कुछ नहीं था। यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पंजाब के चुनाव नतीजों ने साबित कर ‍दिया। सालभर तक किसान आंदोलन संचालित करने वाले संयुक्त किसान मोर्चे के तहत आने वाले 25 किसान संगठनो ने नया ‘संयुक्त समाज मोर्चा’ बनाकर पंजाब में सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए। जीतना तो दूर,शायद सभी की जमानत जब्त हो गई। यानी किसानों ने ही उन्हें मत नहीं दिए। उधर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट किसानों की नाराजी को ‘भाजपा का काल’ बताया जा रहा था,वैसा भी कुछ देखने को नहीं मिला। नतीजों के बाद कहा जा सकता है कि भाजपा के हिंदुत्व के आग्रह ने पश्चिमी उप्र में वैसा मुस्लिम-जाट समीकरण नहीं बनने दिया, जैसा बताया जा रहा था। भाजपा ने इस मुद्दे की गहराई को शायद पहले ही भांप लिया था। इसीलिए चुनाव के ३ माह पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तीनों कृषि कानून वापस लेकर मुद्दे की सियासी हवा निकाल दी।

अगर पंजाब की बात करें तो जिन कृषि कानूनों के विरोध और बरसो राज्य में सत्ता में रहा अकाली दल एनडीए से अलग हुआ,उसे भी किसानों ने मत नहीं दिए। यही नहीं वहां सत्तारूढ़ कांग्रेस ने किसान आंदोलन को खुलकर समर्थन दिया था,पर न तो किसानों और न ही आंदोलन चलाने वालों ने कांग्रेस को मत दिया। उन्होंने कांग्रेस की जगह उस आम आदमी पार्टी को महा समर्थन दिया,जो किसान आंदोलन का समर्थन तो कर रही थी,लेकिन बहुत खुलकर सामने भी नहीं आ रही थी। पंजाब में आआप और उप्र-उत्तराखंड में किसानों द्वारा भाजपा को बड़े पैमाने पर मतदान करने का अर्थ क्या निकाला जाए ? किसान नामसझ हैं या फिर जिस मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उभारा गया,उसमें वैसा चुनावी दम नहीं था,जैसा पोता जा रहा था ? इसका अर्थ यह कतई नहीं कि किसानों की समस्या को नजरअंदाज किया जाए या उसके प्रति असंवेदनशील हुआ जाए,लेकिन यह देखना भी जरूरी है कि खुद किसान और आम आदमी किन मुद्दों को लेकर ज्यादा संवेदनशील है,जो उसे सत्ता परिवर्तन के लिए विवश कर दे।

प्रश्न यह भी है कि हमें मुद्दों को किस चश्मे से देखना चाहिए ? उसे कितना आवर्धित करके समझना चाहिए ? सवाल यह भी उठता है कि,किसान आंदोलन या शाहीन बाग जैसे आंदोलन अपने आप में सचमुच उतनी गहराई और व्यग्रता लिए होते भी हैं या नहीं!

यकीनन इस देश का मतदाता कथित चिंतकों से ज्यादा समझदार और जमीन के करीब है,क्योंकि वो अपनी जायज समस्याओं के बरक्स उन कोणों से भी सोचता है,जो चुनाव नतीजों की दिशा तय करते हैं। दूसरी तरफ ज्यादातर राजनेता अभी भी चुनावी समीकरणों को अंकगणित का फार्मूला मानकर चलते हैं। उप्र और पंजाब के चुनाव ने उसे भी ध्वस्त किया है। परिणामों के बाद स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे वो महाबड़बोले जातिवादी नेता परिदृश्य से गायब दिखे,जिन्होंने अमिताभ बच्चन के उस अमर संवाद ‘हम जहां खड़े होते हैं,लाइन वहीं से शुरू होती है’ की तर्ज पर दावा‍ किया था कि वो जिस पार्टी में शामिल होते हैं,वही सत्ता सिंहासन पर सवार होती है। यकीनन इस बार अखिलेश यादव और उनकी समाजवादी पार्टी ने जातियों का कागजी समीकरण अच्छा तैयार किया था।उसका चुनाव प्रदर्शन भी पहले की तुलना में बेहतर रहा,पर सत्तावरण के हिसाब से जमीनी हकीकत कुछ और थी। आम आदमी योगी राज और उनके पूर्ववर्तियों के राज की मन ही मन तुलना कर रहा था और तमाम खामियों के बाद भी उसे बेहतर पा रहा था। लिहाजा,उसने योगी को एक मौका और दे दिया।

पंजाब में दलित मतों का बड़ा हल्ला रहा। अंतर्कलह को खत्म करने हेतु कांग्रेस आलाकमान ने पानी की जगह पेट्रोल डाला। इस कागजी गणित कि पंजाब में ३१ फीसदी दलित मतदाता निर्णायक हैं,बेचारे दलित चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाकर एक संदेश देने की कोशिश की गई,पर परिणामों ने साबित ‍किया कि दलितों ने भी मत नहीं दिए।

यह भी विडंबना है कि जिन चंचल राजनीतिज्ञ और हास्य शो के ठहाकेबाज निर्णयकर्ता नवजोतसिंह सिद्‍धू को राहुल गांधी ने पंजाब कांग्रेस की कमान सौंपी,उन्हीं सिद्धू को हास्य शो के एक प्रतिभागी भगवंत मान ने चुनावी अखाड़े में जमीन सुंघा दी। यह बात अलग है कि उस जमाने में भगवंत मोना सिख हुआ करते थे। राजनीति में आने के बाद उन्होनें अपना हुलिया बदला और पूरे‍ ‍सिख हो गए। सिद्धू का चुनाव में ‘आम आदमी पार्टी’ की एक गुमनाम प्रत्याशी से हार कर तीसरे क्रम पर रहना इस बात का प्रतीक है कि आआप अब कांग्रेस की जमीन खाती जा रही है। अभी यह पंजाब में हुआ है, कल को दूसरे राज्यों में भी हो सकता है। हालांकि, आआप अपनी महा जीत को आम आदमी के मुद्दों पर बात की जीत बता रही है,लेकिन हकीकत में वो कांग्रेस के विकल्प में उभरी है। लोग अब अ‍निर्णय के शिकार नेतृत्व और परिवारवादी दलों से ऊबने लगे हैं। बादल परिवार का चुनाव में निपटना इसी का संकेत है।

इसमें संदेह नहीं कि,आज लोगों की जिंदगी कष्टों से भरी है। बेरोजगारी है, महंगाई है,अच्छी शिक्षा का सुलभ न होना है,सस्ते और कारगर इलाज की कमी है, लेकिन ये सब रोजमर्रा के मुद्दे हैं,पर ये चुनावी जश्न की आरती नहीं बन पाते। ऐसा क्यों ? इसका सही जवाब तलाशना बहुत कठिन है। एक आम मतदाता चुनाव में राजनीतिक दलों को शायद कई पैमानों पर तौलता है। जो व्यक्ति सापेक्ष भी हो सकते हैं,और समाज सापेक्ष भी। यह सच है कि पहले नरेन्द्र मोदी ने और अब उप्र में योगी आदित्यनाथ ने महिला मतदाताओं के एक बड़े वर्ग को अपना मुरीद बना लिया है। इसमें सुरक्षा का आश्वस्ति भाव भी है और मर्दानगी का अंदाज भी। महिलाएं और खासकर हिंदू महिलाएं इन दोनों के पक्ष में चुनाव में खामोश दीवार बन कर खड़ी होती दिखती हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि उप्र या देश में सचमुच राम राज्य आ गया है,लेकिन जो छवि महिलाओं के दिलों पर अंकित हो गई है,वो राखी के रक्षा सूत्र की तरह है।

४ राज्यों में भाजपा की सत्ता में वापसी को भाजपा विरोधी मतों के विभाजन का नतीजा भी बताया जा रहा है। यह भी कहा जा रहा है कि,भाजपा विरोधी मत एकजुट हों तो भगवा को मात दी जा सकती है। हमारे लोकतंत्र में जीत के लिए ५० फीसदी मत पाने की अनिवार्यता नहीं है। अगर सत्ता से हटाने का यही सूत्र है तो ‍पश्चिम बंगाल में ममता बैनर्जी तीसरी बार ४८.०२ प्रतिशत,ओडिशा में नवीन पटनायक की बीजेडी ४४.७१ और केरल में वाम मोर्चा की सरकार ४५.४३ फीसदी मत लेकर सत्ता में लौटी है। यानी बहुमत वहां भी बंटा हुआ था। वहां भी सत्तारूढ़ दलों को हटाने के लिए बाकी विरोधी मत को एकजुट करने की जरूरत है,लेकिन यह सोच सही नहीं है। सोचा इस बात पर जाना चाहिए कि जनता उन मुद्दों को चुनावी मुद्दा क्यों नहीं मानती,जिसे हम मुद्दे मानते हैं,और उसी की बिना पर सारा गुणा-भाग करते हैं। दोनों में इतना फर्क क्यों है ? चश्मों की वजह से या फिर जनता को उसका व्यापक हित किसमें है,यह न समझा पाने की वजह से ? बेशक इसमें प्रचार,छवि निर्माण और चुनावी प्रबंधन भी बड़ा मुद्दा है,लेकिन ऐसा ही होता तो संसाधनों में काफी पीछे रही आआप दिल्ली और पंजाब में साधन सम्पन्न दलों को धूल नहीं चटा पाती। अगर इन सबके बाद भी कोई जनता को ही ‘मूर्ख’ बताने की हिमाकत करे तो मूर्ख की अलग से परिभाषा करने की जरूरत ही क्या है ?

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