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चुनाव:बेशुमार खर्च की तपिश दुनिया तक, बड़ी चुनौती

ललित गर्ग

दिल्ली
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विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के लोकसभा चुनाव २०२४ अनेक दृष्टि से यादगार, चर्चित, आक्रामक एवं ऐतिहासिक होने के साथ-साथ अब तक का सबसे महंगा एवं दुनिया का भी सबसे खर्चीला चुनाव है। सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज की हालिया रिपोर्ट के अनुसार इस बार का चुनावी खर्च १ लाख २० हजार करोड़ ₹ के खर्च के साथ दुनिया का सबसे महंगा चुनाव होने की ओर अग्रसर है। वर्ष २०१९ के लोकसभा चुनाव के खर्च की तुलना में इस बार यह दुगुना खर्च होगा। चुनाव प्रक्रिया अत्यधिक महंगी एवं धन के वर्चस्व वाली होने से राजनीतिक मूल्यों का विसंगतिपूर्ण एवं लोकतंत्र की आत्मा का हनन होना स्वाभाविक है। चुनाव जनतंत्र की जीवनी शक्ति है। यह राष्ट्रीय चरित्र का प्रतिबिम्ब होता है। जनतंत्र के स्वस्थ मूल्यों को बनाए रखने के लिए चुनाव की स्वस्थता, पारदर्शिता, मितव्ययता और उसकी शुद्धि अनिवार्य है। चुनाव की प्रक्रिया गलत होने पर लोकतंत्र की जड़ें खोखली होती चली जाती हैं। करोड़ों रुपए का खर्चीला चुनाव, अच्छे लोगों के लिए जनप्रतिनिधि बनने का रास्ता बन्द करता है और धनबल एवं धंधेबाजों के लिए खोलता है। इन चुनावों में अर्थ का अतिशयोक्तिपूर्ण खर्च का प्रवाह जहां चिन्ता का कारण बन रहा है, वहीं लोकतांत्रिक प्रणाली को दूषित करने का सबब भी बन रहा है। इस तरह की बुराई एवं विकृति को देखकर आँख मूंदना या कानों में अंगुलियाँ डालना दुर्भाग्यपूर्ण है। इसके विरोध में व्यापक जनचेतना को जगाना जरूरी है। यह समस्या या विकृति किसी एक देश की नहीं, बल्कि दुनिया के समूचे लोकतांत्रिक राष्ट्रों की समस्या है।
लोकसभा चुनाव में हर राजनीतिक दल अपने स्वार्थ की बात सोच रहा है तथा येन-केन-प्रकारेण ज्यादा से ज्यादा मत प्राप्त करने की अनैतिक तरकीबें निकाल रहा है। एक-एक प्रत्याशी चुनाव का प्रचार-प्रसार करने में करोड़ों रुपयों का व्यय करता है। यह धन उसे पूंजीपतियों, उद्योगपतियों, राजनीतिक दलों एवं प्रायोजकों से मिलता है। चुनाव जीतने के बाद वे उद्योगपति उनसे अनेक सुविधाएं प्राप्त करते हैं। इसी कारण सरकार उनके अनुचित दबाव के विरुद्ध कोई आवाज नहीं उठा पाती और अनैतिकता एवं आर्थिक अपराध की परम्परा को सिंचन मिलता रहता है। यथार्थ में देखा जाए तो, जनतंत्र अर्थतंत्र बनकर रह जाता है, जिसके पास जितना अधिक पैसा होगा, वह उतने ही अधिक मत खरीद सकेगा, लेकिन इस तरह लोकतंत्र की आत्मा का ही हनन होता है, इस सबसे उन्नत एवं आदर्श शासन प्रणाली पर अनेक प्रश्नचिन्ह खड़े होते हैं।
स्टडीज रिपोर्ट के मुताबिक आमतौर पर चुनाव अभियान के लिए धन अलग-अलग स्रोतों और अलग-अलग तरीकों से उम्मीदवारों व दलों के पास आता है। राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के पास चुनाव खर्च के लिए मुख्य रूप से रियल इस्टेट, खनन, कारपोरेट, उद्योग, व्यापार, ठेकेदार, चिटफण्ड कंपनियां, ट्रांसपोर्टर, परिवहन ठेकेदार आदि जैसे प्रमुख स्रोत हैं। इस बार डिजिटल मीडिया द्वारा प्रचार बहुत ज्यादा हो रहा है। दल पेशेवर एजेंसियों की सेवाएं ले रहे हैं। इनसे सबसे अधिक दलों और उम्मीदवारों द्वारा प्रचार अभियान, रैली, यात्रा खर्च के साथ-साथ सीधे तौर पर गोपनीय रूप से मतदाताओं को सीधे नकदी, शराब, उपहारों का वितरण भी शामिल है। देश में १९५२ में हुए पहले आम चुनाव की तुलना में २४ में ५०० गुणा अधिक खर्च होने का अनुमान है। प्रति मतदाता ६ पैसे से बढ़कर आज ५२ ₹ खर्च का अनुमान है। हालांकि, रिपोर्ट के मुताबिक चुनाव में होने वाले वास्तविक खर्च और अधिकारिक तौर पर दिखाए गए खर्चे में काफी अंतर है। अमेरिकी चुनाव पर नजर रखने वाली एक वेबसाइट के रिपोर्ट का हवाला देते हुए सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज ने कहा कि, यह २०२० के अमेरिकी चुनावों पर हुए खर्च के लगभग बराबर है, जो १४.४ बिलियन डॉलर यानी १ लाख २९ करोड़ रुपए था। दूसरे शब्दों में कहें तो भारत में २०२४ में दुनिया का सबसे बड़ा चुनाव अब तक का सबसे महंगा चुनाव साबित होगा।
भारत में होने वाले चुनाव में हो रहे बेशुमार खर्च की तपिश समूची दुनिया तक पहुंच रही है। समूची दुनिया के तमाम देशों में भारत के चुनाव को न केवल दम साध कर देखा जा रहा है, बल्कि लगातार महंगे होते चुनाव की चर्चा भी पूरी दुनिया में है।
लोकसभा चुनाव में भाजपा, कांग्रेस, सपा, बसपा, तूणमूल कांग्रेस आदि दलों एवं उनके उम्मीदवारों ने मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए तिजोरियाँ खोल दी है। यह चुनाव राष्ट्रीय मसलों के मुकाबले राजनीतिक दलों के हित सुरक्षित रखने के वादे पर ज्यादा केंद्रित लग रहा है, और टकराव के मुद्दे थोड़े ज्यादा तीखे हैं। अगर मुद्दों से इतर अभियानों की बात करें, तो इस बार का चुनाव अब तक के इतिहास में सबसे खर्चीला साबित होने जा रहा है। इस चुनावों के अत्यधिक खर्चीले होने का असर व्यापक होगा। यूँ किसी भी देश में लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत होने वाले चुनावों में ऐसा ही होता है, लेकिन भारत में इसी कसौटी पर खर्च में कई गुना ज्यादा होना चिन्ता का सबब बनना चाहिए।
दुनिया की आर्थिक बदहाली एवं युद्ध की विभीषिका से चौपट काम-धंधों एवं जीवन संकट में लोकसभा के चुनाव कहां कोई आदर्श प्रस्तुत कर पा रहे हैं ? इस बात का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है। जो लोग चुनाव के लिए इतना अधिक खर्च कर सकते हैं तो वे जीतने के बाद क्या करेंगे, पहले अपनी जेब को भरेंगे, अर्थव्यवस्था पर आर्थिक दबाव बनाएंगे।मुख्य बात तो यह है कि, यह सब पैसा आता कहां से है ? कौन देता है इतने ₹ ? धनाढ्य तो अपनी तिजोरियाँ खोलते ही हैं, कई कम्पनियां हैं, जो सभी दलों एवं उम्मीदवारों को पैसे देती है, चंदे के रूप में। चन्दे के नाम पर यदि बड़ी कम्पनी ने धन दिया है, तो वह सरकार की नीतियों में हेर-फेर करवा कर लगाए गए धन से कई गुणा वसूल लेती है। इसी लिए वर्तमान देश की राजनीति में धन-बल का प्रयोग चुनाव में बड़ी चुनौती है। सभी दल पैसे के दम पर चुनाव जीतना चाहते हैं, जनता से जुड़े मुद्दों एवं समस्याओं के समाधान के नाम पर नहीं। कोई भी ईमानदारी और सेवा-भाव के साथ चुनाव नहीं लड़ना चाहते हैं। राजनीति के खिलाड़ी सत्ता की दौड़ में इतने व्यस्त है कि, उनके लिए विकास, जनसेवा, सुरक्षा, महामारी, युद्ध, आतंकवाद की बात करना व्यर्थ है। सभी दल जनता को गुमराह करते नजर आते हैं।

राजनीति अब एक व्यवसाय बन गई है। जीवन मूल्य बिखर गए हैं, धन तथा व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए सत्ता का अर्जन सर्वाेच्च लक्ष्य बन गया है। लोकसभा चुनाव की सबसे बड़ी विडम्बना एवं विसंगति है कि, यह चुनाव आर्थिक विषमता की खाई को पाटने की बजाय बढ़ाने वाले साबित होने जा रहे हैं।