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त्याग-प्रेम की पराकाष्ठा ‘माँ’

ललित गर्ग
दिल्ली
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माँ बिन…!

‘मातृ दिवस’ का मतलब होता है माँ का दिन। पूरी दुनिया में मई माह के दूसरे रविवार को ‘मातृ दिवस’ मनाया जाता है। मातृ दिवस मनाने की शुरुआत सर्वप्रथम ग्रीस देश में हुई थी, जहां देवताओं की माँ को पूजने का चलन शुरु हुआ था। इसे मनाने का प्रमुख उद्देश्य माँ के प्रति सम्मान और प्रेम को प्रदर्शित करना है। पूरी जिंदगी भी समर्पित कर दी जाए तो माँ के ऋण से उऋण नहीं हुआ जा सकता है। भारतीय संस्कृति में माँ के प्रति लोगों में अगाध श्रद्धा रही हैं, क्योंकि माँ शब्द में संपूर्ण सृष्टि का बोध होता है। माँ शब्द में वह आत्मीयता एवं मिठास छिपी हुई होती है, जो अन्य में नहीं होती। माँ नाम है संवेदना, भावना और अहसास का। माँ के आगे सभी रिश्ते बौने पड़ जाते हैं। मातृत्व की छाया में माँ न केवल अपने बच्चों को सहेजती है, बल्कि आवश्यकता पड़ने पर उसका सहारा बन जाती है।
समाज में माँ के ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है, जिन्होंने अकेले ही अपने बच्चों की जिम्मेदारी निभाई। कवि रॉबर्ट ब्राउनिंग ने मातृत्व को परिभाषित करते हुए कहा है- “सभी प्रकार के प्रेम का आदि उदगम स्थल मातृत्व है और प्रेम के सभी रूप इसी मातृत्व में समाहित हो जाते हैं।”
प्रेम एक मधुर, गहन, अपूर्व अनुभूति है, पर शिशु के प्रति माँ का प्रेम एक स्वर्गीय अनुभूति है। दुनियाभर में एक शिशु का जब जन्म होता है, तो उसका पहला रिश्ता माँ से होता है। एक माँ शिशु को असहनीय पीड़ा सहते हुए उसे जन्म देती है और इस दुनिया में लाती है। इन ९ महीनों में शिशु और माँ के बीच एक अदृश्य प्यारभरा गहरा रिश्ता बन जाता है। रिश्ता इतना प्रगाढ़ और प्रेमभरा होता है, कि बच्चे को जरा ही तकलीफ होने पर भी माँ बेचैन हो उठती है। माँ का दुलार और प्यार भरी पुचकार ही बच्चे के लिए दवा का कार्य करती है। इसलिए ही ममता और स्नेह के इस रिश्ते को संसार का खूबसूरत रिश्ता कहा जाता है। दुनिया का कोई भी रिश्ता इतना मर्मस्पर्शी नहीं हो सकता। माँ के त्याग की गहराई को मापना भी संभव नहीं है और ना ही उनके एहसानों को चुका पाना, लेकिन उनके प्रति सम्मान और कृतज्ञता को प्रकट करना हमारा कर्तव्य है।
धरती पर मौजूद प्रत्येक इंसान का अस्तित्व, माँ के कारण ही है। माँ के जन्म देने पर ही मनुष्य धरती पर आता है और स्नेह, दुलार एवं संस्कारों में मानवता का गुण सीखता है। ‘माँ’ यह वो अलौकिक शब्द है, जिसके स्मरण मात्र से ही रोम-रोम पुलकित हो उठता है, हृदय में भावनाओं का अनहद ज्वार स्वतः उमड़ पड़ता है और मनोःमस्तिष्क स्मृतियों के अथाह समुद्र में डूब जाता है। हर संतान अपनी माँ से ही संस्कार पाती है, लेकिन मेरी दृष्टि में संस्कार के साथ-साथ शक्ति भी माँ ही देती है। इसलिए हमारे देश में माँ को शक्ति का रूप माना गया है और वेदों में सर्वप्रथम पूजनीय कहा गया है। श्रीमद् भगवद् पुराण में उल्लेख मिलता है कि माता की सेवा से मिला आशीष ७ जन्मों के कष्टों व पापों को दूर करता है और उसकी भावनात्मक शक्ति संतान के लिए सुरक्षा कवच का काम करती है। पूर्व राष्ट्रपति डॉ.ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने माँ की महिमा को उजागर करते हुए कहा है कि, “जब मैं पैदा हुआ, इस दुनिया में आया, वो एकमात्र ऐसा दिन था जब मैं रो रहा था और मेरी माँ के चेहरे पर एक सन्तोषजनक मुस्कान थी।” एक माँ हमारी भावनाओं के साथ कितनी खूबी से जुड़ी होती है, ये समझाने के लिए उपरोक्त पंक्तियाँ अपने-आपमें सम्पूर्ण हैं।
माँ शब्द में संपूर्ण सृष्टि का बोध होता है। माँ के शब्द में वह आत्मीयता एवं मिठास छिपी हुई होती है, जो अन्य किसी शब्दों में नहीं होती। इसका अनुभव भी एक माँ ही कर सकती है। माँ अपने-आपमें पूर्ण संस्कारवान, मनुष्यत्व व सरलता के गुणों का सागर है। माँ जन्मदात्री ही नहीं, बल्कि पालन-पोषण करने वाली एवं संस्कार-निर्मात्री भी है। माँ तो ममता की सागर होती है। जब वह बच्चे को जन्म देकर बड़ा करती है तो उसे इस बात की अपूर्व एवं अलौकिक खुशी होती है कि, उसके लाड़ले पुत्र-पुत्री से अब सुख मिल जाएगा, लेकिन इस ममता को नहीं समझने वाले कुछ बच्चे यह भूल बैठते हैं कि इनके पालन-पोषण के दौरान इस माँ ने कितनी कठिनाइयाँ झेली होगी।
‘माँ’-इस लघु शब्द में प्रेम की विराटता-समग्रता निहित है। अणु-परमाणुओं को संघटित करके अनगिनत नक्षत्रों, लोक-लोकान्तरों, देव-दनुज-मनुज तथा कोटि-कोटि जीव प्रजातियों को माँ ने ही जन्म दिया है। माँ के अंदर प्रेम की पराकाष्ठा है या यूँ कहें कि माँ ही प्रेम की पराकाष्ठा है। प्रेम की यह चरमता केवल माताओं में ही नहीं, वरन् सभी मादा जीवों में देखने को मिलती है। अपने बच्चों के लिए भोजन न मिलने पर हवासिल (पेलिकन) नाम की जल-पक्षिनी अपना पेट चीर कर अपने बच्चों को अपना रक्त-मांस खिला-पिला देती है। इसलिए, माँ के ममत्व की एक बूंद को अमृत के समुद्र से भी ज्यादा मीठा माना गया है। सचमुच माँ का हृदय बच्चे की सच्ची पाठशाला है।
माँ को धरती पर विधाता की प्रतिनिधि कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। सच तो यह है कि विधाता से कहीं कम नहीं है, क्योंकि माँ ने ही इस दुनिया को सिरजा और पाला-पोसा है। कण-कण में व्याप्त परमात्मा किसी को नजर आए न आए, माँ हर किसी को हर जगह नजर आती है। कहीं अण्डे सेती, तो कहीं अपने शावक को, छोने को, बछड़े को, बच्चे को दुलारती हुई नजर आती है। माँ एक भाव है मातृत्व का, प्रेम और वात्सल्य का, त्याग का, और यही भाव उसे विधाता बनाता है। माँ सपने बुनती है और यह दुनिया उसी के सपनों को जीती है और भोगती है। माँ जीना सिखाती है। पहली किलकारी से लेकर आखिरी साँस तक माँ अपनी संतान का साथ नहीं छोड़ती। माँ पास रहे या न रहे, माँ का प्यार-दुलार, माँ के दिए हुए संस्कार जीवनभर साथ रहते हैं। माँ ही अपनी संतानों के भविष्य का निर्माण करती है, इसीलिए माँ को प्रथम गुरु कहा गया है।

प्रथम गुरु के रूप में माँ कभी लोरियों में, कभी झिड़कियों में, कभी प्यार से तो कभी दुलार से बालमन में भावी जीवन के बीज बोती है। इसलिए यह आवश्यक है कि मातृत्व के भाव पर नारी मन के किसी दूसरे भाव का असर न आए। मातृ-महिमा पर छा रहे ऐसे धुंधलकों को मिटाना जरूरी है, तभी इसकी सार्थकता है।

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