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त्याग

रत्ना बापुली
लखनऊ (उत्तरप्रदेश)
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राम- सीता संवाद….

राम-
आज सुनकर जुल्हा की बात,
राम हुए मर्माहत
देवी जैसी सीता पर भी,
लगा कलंक का घात।
विवश थी वह,
विवश थी नियति
रावण को मारना
था धर्म की परिणिति।
पर सीता को कोई,
पापी कर सके स्पर्श
इतना किसी में भी,
नहीं है साहस अर्श।
हे मेरी प्रिय, मेरी प्राणेश्वरी,
बोलो मैं क्या करूँ ?
क्या एक जुल्हा के कारण
मैं तुम्हें त्याग करूँ!
कैसा धर्म-संकट है आया,
तेरे सतीत्व पर लाँछन लगाया
एक अदना-सा जुल्हा,
क्या उसने नहीं सुनी थी
तेरी अग्निपरीक्षा की महिमा।
क्या करूँ, क्या न करूँ,
आज हृदय भ्रमित है,
तुम गर्भवती हो,
यही बात कष्टदायक है।
क्या मेरा त्याग ना तुमको,
इस अवस्था में उचित है!

सीता-
त्याग की सुनकर बात,
सीता द्रवित हुई इतनी
ऐ मेरी माता पृथ्वी,
मैं समा जाऊँ तुझमें
धिक इस जीवन का,
पति से त्याज्य हो जिसका
पर मैं इतनी भी नहीं,
भाग्यशाली
करूँ इच्छाकृत मृत्यु वरण,
मेरे अस्तित्व से जुड़ गया जो
नन्हें प्राण-सा जीवन,
हमारे प्रेम की यह निशानी
कैसे दूँ मैं त्याग!
भले ही स्वामी तुम,
त्यागो मुझे
पर मैं नहीं सकती,
यह जीवन त्याग
पर यह भी सच है,
देकर अपनी पवित्रता का
प्रमाण,
जो यह युग चाह रहा,
तब करूंगी वरण मैं
निज मृत्यु।
रच जाऊँगी कहकर,
एक नया इतिहास
नारियों पर सदा से ही,
इस पृथ्वी पर
होता आया ह्रास।
इतना न प्रिय तुम हो मलाल,
मुझे त्याग तुम करो
राज्य धर्म का पालन,
यह राजमहल का सुख
ऐसे भी मुझे नहीं भाता है,
जन्म-जन्म से जंगल व
वन से ही मेरा नाता है,
मैं भूमिजा
मेरी भूमि ही मेरी माता
फिर मेरा पुत्र क्यों कर
महलों में पलता!
वन के पावन वातावरण में,
वह होगा शक्तिशाली
प्रकृति उसे सिखा देगी,
कष्टों से लड़ना
हम दोनों की शक्ति,
व तेज पुंज-सा वीर
होगा पुत्र मेरा,
वीरों का भी वीर
यही आशीष दो,
स्वामी मुझे तुम
जिसे धारण कर,
मस्तिष्क पर।
मैं चली जाऊँगी,
वन अपने ही स्थल पर॥

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