कुल पृष्ठ दर्शन : 331

You are currently viewing थर-थर काँपे काया

थर-थर काँपे काया

शंकरलाल जांगिड़ ‘शंकर दादाजी’
रावतसर(राजस्थान) 
**********************************************************

मास दिसम्बर सर्द महीना थर-थर कांपे काया।
हुआ भास्कर लुप्त गगन में, इतना कोहरा छाया॥

बूँद ओस की हरे घास पर, लटक रहे ज्यों मोती,
इतना ठंडा नीर चिरैया, चौंच न ज़रा डुबोती।
खुली हवा यूँ लगे कि जैसे, ख़ंज़र आ टकराया,
हुआ भास्कर लुप्त…॥

शीत भयंकर रूप ले रही, बर्फ़ बना है पानी,
ओढ़ रजाई बैठे फिर भी, याद आ रही नानी।
धूप बहुत मनभावन लगती, नहीं सुहाती छाया,
हुआ भास्कर लुप्त…॥

मन करता बिस्तर में बैठे, चाय मिले मनमानी,
लिखें ग़ज़ल-कविता-रूबाई, या फिर कोई कहानी।
सीधे-सादे से शब्दों में, फिर ये गीत बनाया,
हुआ भास्कर लुप्त…॥

आने वाली अभी जनवरी, ठंड बढ़ेगी भारी,
पहले ही से कर ली हमने, हीटर की तैयारी।
वैसे ही सर्दी ज़ुकाम ने, हमको बहुत सताया,
हुआ भास्कर लुप्त…॥

बड़ी उम्र वालों की खातिर, बस इतना ही कहना,
नाज़ुक वक्त न जब तक निकले, सावचेत ही रहना।
जाना तो है निश्चित फिर भी, है मैंने समझाया,
हुआ भास्कर लुप्त गगन में, इतना कोहरा छाया॥

परिचय-शंकरलाल जांगिड़ का लेखन क्षेत्र में उपनाम-शंकर दादाजी है। आपकी जन्मतिथि-२६ फरवरी १९४३ एवं जन्म स्थान-फतेहपुर शेखावटी (सीकर,राजस्थान) है। वर्तमान में रावतसर (जिला हनुमानगढ़)में बसेरा है,जो स्थाई पता है। आपकी शिक्षा सिद्धांत सरोज,सिद्धांत रत्न,संस्कृत प्रवेशिका(जिसमें १० वीं का पाठ्यक्रम था)है। शंकर दादाजी की २ किताबों में १०-१५ रचनाएँ छपी हैं। इनका कार्यक्षेत्र कलकत्ता में नौकरी थी,अब सेवानिवृत्त हैं। श्री जांगिड़ की लेखन विधा कविता, गीत, ग़ज़ल,छंद,दोहे आदि है। आपकी लेखनी का उद्देश्य-लेखन का शौक है

Leave a Reply