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भयावह से दिखने वाले चेहरों के पीछे छुपी कोमलता…

फिजी यात्रा:विश्व हिंदी सम्मेलन

भाग-६

कहते हैं कि कला मनुष्य को मनुष्य से जोड़ती है। साहित्य और कला न केवल देशों की सीमाओं को पार कर जाते हैं, बल्कि वह हृदय की सीमाएं पार कर भी एक-दूसरे के हृदय में प्रवेश करने की क्षमता रखते हैं। कलाकारों को एक-दूसरे के प्रति संवेदनशील होना ही चाहिए। अनावश्यक प्रतियोगिता, प्रतिद्वंदिता साहित्यकारों और कलाकारों के बीच मतभेद पैदा करने का कारण बनती है। इन सबसे परे एक दृश्य फिजी में जब देखा तो मन अत्यंत आर्द्र हो उठा।
हुआ यूँ कि, भारत के दक्षिण छोर से आई हुई भारतीय कलाकारों की एक टोली ने शास्त्रीय नृत्यों की प्रस्तुति दी। वह दल मंच से उतरा, उसके पश्चात फिजी की जनजातिय कला से ओत-प्रोत एक ऊर्जादायक नृत्य की प्रस्तुति भी हुई। कार्यक्रम के पश्चात जब यह दोनों दल मंच के समीप एकत्र हुए तो सहज भाव से एक-दूसरे के साथ चित्र निकलवाने का उत्साह दिखाई देने लगा। देखते ही देखते दोनों देशों के कला दल एकसाथ खड़े हो गए। उनके बीच न देशों की सीमाएं थी, न भाषा की। ना वस्त्र विन्यास की सीमाएं थी, ना कला की, किंतु जिस मूल बात को मेरे जैसे भावुक हृदय व्यक्ति ने तुरंत पकड़ा, वह यह थी कि फिजी के कला समूह में पुरुष कलाकारों में २ पुरुष कलाकार कुछ अधिक अवस्था के थे। जब छोटी छोटी उम्र की २ बेटियाँ बीच में जाकर खड़ी हुई तो अनायास ही वे दोनों नीचे बैठे और दोनों ने बैठकर अपना एक-एक घुटना कुर्सी की तरह बना लिया और जोड़ लिया। उन्होंने दोनों बेटियों को स्नेहपूर्वक कहा कि वे इस पर बैठ जाएं। स्वाभाविक रूप से एक क्षण का संकोच रहा और तुरंत ही दोनों बेटियाँ उस कुर्सीनुमा मजबूत पैरों की आसंदी पर बैठ गई। उस दृश्य में रत्तीभर दैहिक आकर्षण या मनोविकृत चेष्टा नहीं थी, बल्कि यूँ लग रहा था मानो दोनों अधिक अवस्था के बंधु पिता बन कर अपनी बेटियों को गोद में लिए हुए हों। बाद में एक और चित्र खिंचवाने के क्रम में मेरे साथ भी ठीक यही अनुभव आया। मैं बीच में जाकर खड़ा हुआ था कि, दोनों कलाकारों ने नीचे बैठकर तुरंत उसी प्रकार का आसन अपने पैरों से बना दिया और उस पर बैठा लिया। मुझे लगता है यह उनके आतिथ्य परंपरा का हिस्सा होगा, किंतु यह तय है कि वह अपनी आतिथ्य परंपरा में जिनके प्रति अत्यधिक स्नेह रखते हैं अथवा श्रद्धा रखते हैं, केवल उन्हीं के लिए इस प्रकार का उपक्रम करते हैं। मेरे हृदय में भी उन मित्रों के प्रति अत्यधिक स्नेह उत्पन्न हुआ। उनकी संस्कृति को प्रणाम करते हुए हम आगे बढ़े।

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