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धूप-सा जलती रहती

रत्ना बापुली
लखनऊ (उत्तरप्रदेश)
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धूप-सा जलती रहती पर जग को करती सुगन्धित,
ऐसे ही रानी कैकेयी की कथा हुई है प्रचलित।

राम राज्य की सुकल्पना से, कैकेयी थी प्रमुदित,
तभी मंथरा के आगमन ने किया उसे विखंडित।

वह दासी थी या काल दूत, बनकर थी महल में आई
दशरथ राजा की मृत्यु का, कारण बनकर थी आई।

कैकेयी के मातृभाव को, किया शब्दो से खंडित,
ऐसे ही रानी कैकेयी की, कथा हुई है प्रचलित।

मांगा जब वरदान राजा से, तब कैकेयी को हुआ भान,
माता से कुमाता बनी कैसे, कैसे हुआ यह महा-त्राण।

राम मुझको उतना ही प्रिय है, जैसे मेरा भरत महान,
कैसे मैंने मांग लिया प्रिय से, इतना निष्ठुर वरदान।

विवश कैकेयी भी तो थी काल चक्र से ग्रसित,
ऐसे ही रानी कैकेयी की कथा हुई है प्रचलित।

कैकेयी के मन में तत्क्षण, हुई इतनी आत्मग्लानि,
कि आत्महत्या करने को तत्पर हुई वह महारानी।

तभी उसके समक्ष प्रकट हुई वाक् देवी वीणा वादिनी,
बोली-भूल नहीं है तेरी कोई, यह तो प्रारब्ध की कहानी।

तूने तो किया वह कार्य जो करना ही था त्वरित,
ऐसे ही रानी कैकेयी की कथा हुई है प्रचलित।

मुझको मिला था आदेश प्रभु से मैं जिह्वा में तेरी बैठूँ,
वनवासी कर राम को, जग को दानव से मुक्त करूँ।

बन जाने पर ही राम का, जग में होगा कल्याण,
रावण रूप में जो बैठा, एक विद्वत राक्षस महान।

परम शक्ति को शक्ति ही कर सकती है पराजित,
ऐसे ही रानी कैकेयी की कथा हुई है प्रचलित।

हर कार्य का करण से संबध बहुत पुराना है,
तभी तो संहार हेतु रावण के, राम का यहाँ आना है।

देवी तुम हो महान, कंलक लिया युग-युग का तुमने,
बनाया राम को पुरुषोत्तम यही लिखा विधि के मन में।

तभी तो तेरे मातृभाव में हुआ स्वार्थ भाव अवतरित,
ऐसे ही रानी कैकेयी की कथा हुई है प्रचलित।

देवी तू मत हो म्लान, न करो मन में पश्चाताप,
राम विरह में मरेंगे दशरथ, यह उन पर अभिशाप।

भले ही युग गाए न तेरी महिमा का गुणगान,
पर विद्वत जन मानेंगे तेरा, युग-युग का बलिदान।

सुन देवी की वाणी रानी, कैकेयी हुई शान्त चित्त।
ऐसे ही रानी कैकेयी की, कथा हुई है प्रचलित॥