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नवरसमयी प्रकृति

सपना सी.पी. साहू ‘स्वप्निल’
इंदौर (मध्यप्रदेश )
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निहारती हूँ मैं तुम्हें प्रकृति,
प्रभु की तुम अनमोल कृति
नवीनता के नवभाव समेटती,
तुम्हें देख मैं आत्ममुग्ध होती।
निहारती हूँ…

प्रकृति है नवरसों की भाती,
नवरंग, नवछटा नित बिखेरती
पुष्पों से सदा धरा श्रृंगारती,
जीवों में रति भाव जगाती।
निहारती हूँ…

पहाड़ों से स्वर गुंजित होते,
अद्भुत खग, चतुष्पद दिखते
बरखा में जो मंडूक टर्र-टर्राते,
हास्य से हास-परिहास जगाते।
निहारती हूँ…

जो प्राकृतिक आपदाएं आती,
मन की गति यूँ सहम जाती
हृदय में करूण भाव भरती,
मस्तिष्क में शोक लहर दौड़ती।
निहारती हूँ…

अनमोल रत्नों को भंडारती,
अतिदोहन से प्रकृति छलाती
मनुज दुर्व्यवहार नहीं सहती,
रौद्र रूप धरकर क्रोध दिखाती।
निहारती हूँ…

सैनिक, रक्षक, पर्यावरण प्रेमी,
सपूतों के सत्कर्मों को सराहती
योद्धाओं के जब शौर्य देखती,
वीरता के उत्साह भाव से भरती।
निहारती हूँ…

सूखा, अतिवृष्टि, वृक्ष कटाव होता,
वायुमंडल जब-तब प्रदूषित होता
प्राणवायु का संकट गहरा जाता,
ये भयानक रूप, भयभाव लाता।
निहारती हूँ…

व्याभिचार, कुविचारों की उत्पत्ति,
प्रदूषित होते हुए स्वरत्न ताकती
घृणित हो मनपीड़ा से बिलखती,
तब वीभत्सता जुगुप्सा दिखाती।
निहारती हूँ…

ऋतुओं की विभिन्न क्रीड़ाएं होती,
व्योम नील से सिंदूरी आभा होती
आलौकिक, अद्भुत लगे अनुभूति,
विस्मय भाव से मन जागृत करती।
निहारती हूँ…

सरिताएं मौन यूँ कल-कल बहती,
पर्वतों की देख अटल समाधि
प्राकृतिक हरियाली से भरी गोदी,
शांतमय, निर्वेद भाव धरा साधती।
निहारती हूँ…

मानव जाति प्रकृति संरक्षित करती,
पर्यावरण को सुस्वच्छतम् बनाती।
तब प्रकृति माता के तुल्य हो जाती,
वत्सल से पूर्ण वात्सल्य भाव देती॥
निहारती हूँ…

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