बाबूलाल शर्मा
सिकंदरा(राजस्थान)
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(रचना शिल्प:विधान-१२२२ १२२२ १२२२ १२२२)
सजीवन प्राण देता है,सहारा गेह का होते।
कहें कैसे विधाता है,पिताजी कम नहीं होते।
मिले बल ताप ऊर्जा भी,सृजन पोषण सभी करता।
नहीं बातें दिवाकर की, पिता भी कम नहीं तपता।
मिले चहुँओर से रक्षा,करे हिम ताप से छाया।
नहीं आकाश की बातें,पिताजी में यहीं माया।
करे अपनी सदा रक्षा,वही तो शत्रु के भय से।
नहीं बातें हिमालय की,पिता मेरे हिमालय से।
बसेरा सर्वजन देता,स्वयं साधू बना रहता।
नहीं देखे कहीं पौधे,पिता बरगद बने सहता।
करे तन जीर्ण खारा जो,सु दानी कर्ण-सा मानो।
मरण की बात आए तो,पिता दशरथ मरे जानो।
जगूँ जो भोर में जल्दी,मुझे पूरव दिखे प्यारे।
पिता ही जागते पहले,कहे क्यों भोर के तारे।
कभी बाधा हमें आए, उसी से राह दिखती है।
नहीं ध्रुव की कहूँ बातें,पिता की राय मिलती है।
कहें वो यों नहीं रोता,रुदन भारी नहीं रहता ?
रिसे नगराज से झरने,पिता का नेत्र है झरता।
नदी की धार बहती है,हिमालय श्वेद की धारा,
पिता के श्द बूंदों से,नहीं,सागर कहीं खारा।
झरे ज्यों नीर पर्वत से, सुता कर,पीत जब करने।
कभी आँखें मिलाओ तो, पिता के नेत्र हों झरने।
महा जो नीर खारा है, पिता का श्वेद खारा है।
समन्दर है बड़े लेकिन,पिता कब धीर हारा है।
कहें गोदान का हीरो,अभावों का दुलारा है।
दिखाई दे वही होरी, पिता भी तो हमारा है।
पिता में भावना जागे,कहें हद पार कर जाता,
अँधेरीे रात यमुना में,पिता वसुदेव ही आता।
सजीवी जाति प्राकृत से,अजूबे,मोह है पाता।
भले मौके कहीं पाए,वही धृतराष्ट्र हो जाता।
निराली मोह की बातें,पिता जो पूत पर लाते।
सुने सुत घात,जो देखो,गुरू वे द्रोण कट जाते।
पिता सोचे सभी ऐसे,सुतों की पीर पी जाए।
हुमायू रुग्ण हो लेकिन, मरे बाबर वहीं पाए।
अहं खण्डर कँगूरों कर, इमारत नींव कहलाता।
कभी जो खुद इमारत था, पिता दीवार बन जाता।
विजेताई तमन्ना है,पुरुष के खून में हर दम।
भरे सुत में सदा ताकत,पिता हारेअहं बेगम।
न देवो से डरा यारों,सदा रिपु से रहे भारा।
मगर हो पूत बेदम तो, पिता संतान से हारा।
रखें हसरत जमाने में,महल रुतबे बनाने का।
पिता अरमान पालेंगे,विरासत छोड़ जाने का।
पिता ने ले लिया भी तो,बड़े वरदान दे जाता,
ययाती भीष्म की बातें,जमाने,याद है आता।
नरेशों की रही फितरत,लड़ाई घात की बातें।
सुतों हित राजतज देते,चले वनवास में जाते।
उसे नाराज मत करना,वही तो भव नियंता है,
सितारे टूट से जाते,पिता जब क्रुद्ध होता है।
पिता की पीठ वे काँधे,बड़े ही दम दिखाते हैं।
जनाजा पूत का ढोतेे, पिता दम टूट जाते हैं।
बड़ा सीना,गरम तेवर,गरूरे दम बने रहते।
विदा बेटी कभी होती,पिघल धोरे वही बहते।
बने माँ की वही महिमा,सुहाने गीत की बातें।
हिना की शक्ति बिंदी के,पिताजी स्रोत है पाते।
मिले शौहरत रुतबे ये,बने दौलत सभी बातें।
रखे वे धीरगुण सारे, पिता भी मातु से पाते।
दिए जो अस्थियाँ दानी, दधीची नाम,था ऋषि का।
स्वर्ग के देवताओं पर, महा अहसान था जिसका।
मगर सर्वस्व जो देते,कऱें सम्मान उनका भी।
पिता ऐसा तपी होता,रहे अहसास इसका भी।
विधाता छंद में देखें,सभी बातें पिता पद की।
न शर्मा लाल बाबू तू,अमानत है विरासत की।
परिचय : बाबूलाल शर्मा का साहित्यिक उपनाम-बौहरा हैl आपकी जन्मतिथि-१ मई १९६९ तथा जन्म स्थान-सिकन्दरा (दौसा) हैl वर्तमान में सिकन्दरा में ही आपका आशियाना हैl राजस्थान राज्य के सिकन्दरा शहर से रिश्ता रखने वाले श्री शर्मा की शिक्षा-एम.ए. और बी.एड. हैl आपका कार्यक्षेत्र-अध्यापन(राजकीय सेवा) का हैl सामाजिक क्षेत्र में आप `बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ` अभियान एवं सामाजिक सुधार के लिए सक्रिय रहते हैंl लेखन विधा में कविता,कहानी तथा उपन्यास लिखते हैंl शिक्षा एवं साक्षरता के क्षेत्र में आपको पुरस्कृत किया गया हैl आपकी नजर में लेखन का उद्देश्य-विद्यार्थी-बेटियों के हितार्थ,हिन्दी सेवा एवं स्वान्तः सुखायः हैl