कुल पृष्ठ दर्शन : 215

You are currently viewing प्रतिस्पर्धा-प्रतिष्ठा के लिए बच्चों पर तनाव नहीं थोपें

प्रतिस्पर्धा-प्रतिष्ठा के लिए बच्चों पर तनाव नहीं थोपें

डॉ.अरविन्द जैन
भोपाल(मध्यप्रदेश)
*******************************************

आत्महत्या….

आज हर व्यक्ति भौतिकता को प्राथमिकता दे रहा है। भौतिकता के कारण वह अंधी दौड़ में दौड़ रहा है। यदि उसने कोई पद प्राप्त किया है, तो वह यह अपेक्षा भी रखता है कि, मैं अन्य से आगे निकलूं या वह स्वयं से भी वर्तमान से असंतुष्ट होकर आगे निकले।

हर व्यक्ति में मन में प्रतिस्पर्धा का भाव जन्म से शुरू होता है। जैसे व्यक्ति पिता बनता है, तो कहता है-मेरी संतान इतने पौंड की है, उसका रंग गोरा है या सांवला है, वह अन्य से तुलना करता है। इसी क्षण से उसमें प्रतिस्पर्धा का भाव जाग्रत होता है। मेरे बेटे ने इतने प्रतिशत अंक प्राप्त किए, तुम्हारे ने कितने ? मेरे बेटे ने डॉक्टरी की पढ़ाई की, तुम्हारे बेटे ने आर्ट्स की। यह भावना जब जन्म से भर दी जाती है, तब वह इस अंधी दौड़ में भागने लगता है। इस प्रतिस्पर्धा की कोई सीमा नहीं होती, पर सबसे अधिक प्रतिस्पर्धा प्रभावित करती है दूसरे की सम्पन्नता। हम जब किसी के यहाँ जाते हैं तो उसकी बैठक को देखकर अपने स्वयं के घर की व्यवस्था से प्रभावित होते हैं। यह अंतहीन सिलसिला है और चलता रहेगा।
इसके बाद प्रदर्शन का भाव जाग्रत होता है-मेरा बंगला, घर, मकान, कार, कपड़े, रहन-सहन कैसा है ? उससे अच्छा है तो ईर्ष्या भाव जागता है या कमजोर है, तो अहम भाव आने लगता है। यहाँ से बैचेनी होने लगती है और तुलनात्मक रूप से उससे श्रेष्ठ सामग्री की अभिलाषा करने का प्रयास करता है।
इसके बाद वह जब किसी अधिकारी के पद पर, व्यापार में और आजकल राजनीति में किसकी-कितनी प्रतिष्ठा का मापदंड, उसके पास कितना बड़ा बंगला, कितनी कारें खड़ी हैं, वह कितना शक्तिमान है, उसका आदेश कौन-कौन मानता है ? उसके पास कितना धन-सोना-रत्न-वैभव है। उससे वह समाज-देश में प्रतिष्ठित होता है।
इन कुछ कारकों के कारण विद्यार्थियों को अच्छे से अच्छे महाविद्यालयों में चिकित्सक, अभियंता, प्रबन्धक, सी.ए. आदि बनाना है, क्योंकि अच्छा वेतन मिलेगा और सुखी जीवन-यापन कर सकेंगे। इसके लिए अभिभावक येन-केन प्रकारेण प्रयास करते हैं,चाहे उसमें उसकी क्षमता हो या न हो, वह बनना चाहता है या नहीं। इसके लिए अभिभावक बच्चों को बहुत मंहगे विद्यालयों, महाविद्यालयों, संस्थाओं और विदेशों में पढ़ाने भेज रहे हैं। चिकित्सा महाविद्यालय में प्रवेश फीस और पढ़ाई का खर्च ५० लाख से १ करोड़ है। उस अध्ययन के बाद उच्च शिक्षण हेतु और भी अन्य खर्चे करना पड़ते हैं। उसके बाद वह खर्च किए धन के लिए कमाई करना आवश्यक है। उसके लिए नीति-अनीति के सब मापदंड अपनाते हैं। यही स्थिति अन्य विषयों की है। चाह है अच्छे वेतन और उसके बाद सुकून का जीवन जीने की, पर क्या वास्तव में ऐसा होता है !
कोटा आदि के कोचिंग सेंटर में जो भी जाते हैं, वे अधिकांश मध्यमवर्गीय होते हैं और ऐसे छात्र पढ़ाई के बोझ को नहीं झेल पाते हैं। वहाँ अध्ययन इतना तनाव युक्त होता है कि, संतुलन न बना पाने के कारण तनाव-अवसाद के कारण असफल होने का भय समाया रहता है। इससे आत्महत्या तक की स्थिति बन आती है। वहाँ कुछ गुरु मंत्र जरूर मिलते हैं, पर प्रयोग तो छात्र का होगा। यदि हम शुरुआत में अपने बच्चों बालिका को समय प्रबंधन की शिक्षा दें, उचित पढ़ाई, गृह-कार्य, खेल-कूद करने दें और कुछ धार्मिक-नैतिक शिक्षा भी दें तो बहुत सीमा तक घर में भी रहकर आगे बढ़ सकते हैं, पर दूसरों की देखा-देखी के साथ विद्यार्थी की योग्यता-अयोग्यता का ध्यान न रखकर थोपने की परिपाटी चलने से ऐसी घटनाएं होती हैं और होंगी।

आज विद्यार्थियों का बहुत अधिक समय मोबाइल-इंटरनेट और टी.वी. में बर्बाद हो रहा है। इसके लिए अभिभावक और परिवारजन दोषी हैं। उनका अपना तर्क है कि, हम भी दिनभर घर से बाहर रहते हैं, तो हमें भी मनोरंजन का अधिकार है। टी.वी. के माध्यम से जो भी सकारात्मक-नकारात्मक, नैतिक-अनैतिक सोच विकसित होती है, उससे वह वंचित नहीं होता है। इसने हमारे मन-मस्तिष्क को जैसा दूषित किया है, उसके दुष्परिणाम अधिक हैं और सुखद अनुभूति नगण्य है। इसके लिए परिवारजन को नियंत्रण में रहना होगा और कुछ संस्कारों का बीजारोपण करना होगा।तनाव से कुछ नहीं होगा। हमारे साथ कुछ जाने वाला नहीं है। बस बच्चों की क्षमता-योग्यता और उनके कर्म पुरुषार्थ पर भरोसा रखना होगा, जबकि तर्क अनेक हो सकते हैं।

परिचय- डॉ.अरविन्द जैन का जन्म १४ मार्च १९५१ को हुआ है। वर्तमान में आप होशंगाबाद रोड भोपाल में रहते हैं। मध्यप्रदेश के राजाओं वाले शहर भोपाल निवासी डॉ.जैन की शिक्षा बीएएमएस(स्वर्ण पदक ) एम.ए.एम.एस. है। कार्य क्षेत्र में आप सेवानिवृत्त उप संचालक(आयुर्वेद)हैं। सामाजिक गतिविधियों में शाकाहार परिषद् के वर्ष १९८५ से संस्थापक हैं। साथ ही एनआईएमए और हिंदी भवन,हिंदी साहित्य अकादमी सहित कई संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। आपकी लेखन विधा-उपन्यास, स्तम्भ तथा लेख की है। प्रकाशन में आपके खाते में-आनंद,कही अनकही,चार इमली,चौपाल तथा चतुर्भुज आदि हैं। बतौर पुरस्कार लगभग १२ सम्मान-तुलसी साहित्य अकादमी,श्री अम्बिकाप्रसाद दिव्य,वरिष्ठ साहित्कार,उत्कृष्ट चिकित्सक,पूर्वोत्तर साहित्य अकादमी आदि हैं। आपके लेखन का उद्देश्य-अपनी अभिव्यक्ति द्वारा सामाजिक चेतना लाना और आत्म संतुष्टि है।