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बिखरे मोती

डोली शाह
हैलाकंदी (असम)
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बनी-बनाई चीजों को तोड़ना और फिर जोड़ के देखना, छोटे भाई के खिलौने को लेकर दूर भाग जाना, कभी स्विच बोर्ड पर हाथ फेरना, तो कभी गैस की मरम्मत करना, कभी टी.वी. के पुर्जे-पुर्जे खोल उससे वाकिफ होना तो कभी रिमोट को ही अपना खिलौना मान बैठना, ऐसा था कुछ सिवान का व्यवहार..।

वह किसी भी वस्तु की गहराई को जानते-जानते उसे छितर- बितर कर देता था। माता-पिता उसके इस रवैए को देख अक्सर दो-चार बातें भी सुना देते। पिता के साथ कभी फैक्ट्री भी जाता तो उसका यह रवैया देख व्यंग्य करते हुए कह भी देते-“कब तक तोड़ते रहोगे, कभी जोड़ना भी सीख जाओ”, लेकिन अंदर की गहराइयों को जानने की लालसा में न जाने कितनी ही मशीन को भी अब तक उसने तोड़ डाला होगी। उसके इस रवैए को देख सब बड़े परेशान रहते।
वक्त के साथ ही उसने शोध कार्यों में निपुणता भी प्राप्त कर ली, लेकिन पिता की बेवक्त मौत ने उसे झकझोर दिया। रईस खानदान में बचपन से पले सिवान के लिए यह फैक्ट्री चलाना, परिवार की ज़रूरतों को पूरा करना ‘दाँतों तले उंगली चबाना’ जैसा था। मात्र ३ वर्ष के अंदर ही पूरी फैक्ट्री तहस-नहसी हो गई। ऐसा प्रतीत हुआ कि ‘सचमुच आय ना की जाए, तो सोने की खदान भी खाली हो सकती है।’
घर की स्थिति दिन- प्रतिदिन बिगड़ती ही चली गई। परिवार की जिम्मेदारियाँ सिवान के लिए मानो पत्थर पर सिर फोड़ने जैसा हो गया, लेकिन उसकी नवाबी आदत कभी ना बदली। वही ११ बजे उठना, कर्मचारियों पर फैक्ट्री का भार सौंपना और सूरज की लालिमा डूबने के साथ ही देर रात तक कर्मचारियों के साथ मटरगश्ती करना। आधी रात को नशे में धुत्त खानदान के वारिस को देख माँ का कलेजा छलनी हो उठता…। घंटो वक्त, परिस्थितियों, जिम्मेदारियों को समझने के बाद भी उस पर चींटी तक न रेंगती, जिससे धीरे-धीरे माँ का झुकाव छोटे भाई (टिंकू) की तरफ होता गया। परिस्थितियों ने उसे इस राह पर लाकर खड़ा कर दिया कि पति के बनाए किराए के मकान से मात्र ५ हजार ₹ में ही घर की सारी ज़रूरतें पूरी करनी पड़ती। यह सब देख माँ (रीता) को बहुत बुरा लगता। वह मन ही मन सोचती, यदि पिता (रमेश) ने सही वक्त पर सिवान की लगाम कसी होती, तो आज उनकी संपत्ति को देखने वाला कोई तो होता।
शिवान भी अब अपने-आपसे कुछ परेशान-सा रहने लगा।फैक्ट्री की स्थिति दिन- प्रतिदिन बिगड़ती ही जा रही थी। एक तरफ फैक्ट्री की हालत, सिवान की उसकी अपनी ज़रूरतें, तो भविष्य की चिंता-सोच, उस पर माँ का बदला हुआ व्यवहार देख कर अपने-आपमें ही कचोट कर रह जाता… “क्या करूं, कैसे करूं, कैसे चलेगा परिवार…!”
उसे? माँ और टिंकू का ताना सबसे जूझता सि वान…उफ़! २ जोड़ी कपड़े, अपना बड़ा-सा मोबाइल और कुछ पैसे लेकर घर से रेलवे स्टेशन की ओर निकल पड़ा। इंतजार किसी पैसेंजर ट्रेन का ही था, किसी तरह कम में शहर पहुंच जाऊं। वहां कुछ तो कर ही लूंगा, काम मिल ही जाएगा…। इतने में उसकी मुलाकात रेलवे स्टेशन पर बिहारी लाल से हुई, जो खुद को नामी-गिरामी फैक्ट्री का कर्ता-धर्ता बता रहा था। सिवान की हवा-हवाई बातों से प्रभावित होकर बिहारी लाल ने उससे अपनी फैक्ट्री में कार्य करने की इच्छा जाहिर की। सिवान ने बिना वक्त गंवाए झठ से हामी भर ली।
बिहारी लाल अपने साथ सिवान को फैक्ट्री में लाया। सिवान के लिए अधिकांश: सब कुछ जाना-पहचाना-सा था, वही गोधूलि बेला में अधूरा काम छोड़ देना, अगले सूरज का स्वागत सलामी देते हुए करना और फिर जुगनू के अंधेरे तक मानो नशे के बिस्तर में कितनी ही करवटें भर लेना…।
वक्त का कुछ ज्यादा ही समय इसी तरह कट रहा था। वक्त के साथ-साथ वह छोटे-छोटे बमों से लेकर विभिन्न तरह के उपकरण भी बनाने लगा। खरीदी-बिक्री की तो वहां कोई सीमा नहीं थी।
गोधूलि बेला में बिहारी लाल से मिलने एक खरीददार चौपट लाल पहुंचा। बातों ही बातों में चौपट लाल ने भारी रकम देकर बम की इच्छा व्यक्त की, जो एक आतंकी हमले के लिए अनिवार्य था, साथ ही उसने एक ऐसे व्यक्ति की इच्छा जाहिर की, जो इस काम को खलास कर सके। यह बातें सुन बिहारी लाल भी सोच में पड़ गए। इतने में बिहारी लाल ने सिवान की तरफ इशारा किया। चौपट लाल ने भी सिवान की हवा- हवाई बातें सुन फौरन ‘सुपारी’ (काम) की बात साझा की, जिस पर सिवान दंग रह गया!
“साहब, २ मिनट में ५ लाख…
साहब… मैं अपना पेट पालने के लिए बम तो जरूर बना रहा हूँ, लेकिन अपने देश के साथ गद्दारी नहीं कर सकता। मैं किसी की जान नहीं ले सकता।”
“सिवान…।”
“साहब मेरा जमीर इतना हल्का नहीं! मैं भारत का नागरिक हूँ, भारतीय होना मेरा गर्व है। मैं इसके सम्मान को चंद पैसों के लिए मिट्टी में नहीं मिला सकता।”
चौपट लाल ने नर्म स्वर में कहा,-“ये क्या बोल रहे हो तुम!”
“हाँ साहब, बम बनाने में मैं निपुण जरूर हूँ, लेकिन उसका सही उपयोग होना हम देशवासियों का ही कर्तव्य है। दुश्मनों से अपनी सुरक्षा के लिए, ना कि, किसी निजी दुश्मनी की वजह से किसी निहत्थे की जान ली जाए।”
“सिवान बस..”।
अपनी जान खतरे में देख उसने फौरन पुलिस स्टेशन में इमरजेंसी मैसेज कर दिया। पलक झपकते ही पुलिस का सायरन सुनकर सभी वहां से ‘नौ दो ग्यारह’ हो गए ।
पुलिस को देख सिवान ने उनकी रिकॉर्ड की हुइ बातें सुनाई। फैक्ट्री पर आने-जाने वालों पर पाबंदी लगा दी गई। इधर, अब सिवान का इस शहर में रहना खतरों से खेलना था, जिससे न चाहते हुए भी उसे पुराने घर पुनः माँ के पास आना पड़ा।
माँ तो माँ ही होती है, अचानक लंबे वक्त बाद सिवान को पुलिस इंस्पेक्टर के साथ देख माँ की आँखें फटी की फटी रह गई। नम आँखों से यही स्वर निकला-” कहां था तू इतने दिन! और आज पुलिस के साथ!”
इतने में इंस्पेक्टर ने माँ को सारी बात बताई, जिससे माँ के हृदय को एक तरफ सांत्वना तो मिली कि, उनका सिवान अच्छा बेटा ना बन सका तो क्या, सच्चा देशभक्त तो बना!
इधर, छोटा भाई टिंकू विद्यालय में नौकरी में कार्यरत हो चुका था। यह देख सिवान ने भी इनाम में मिले पैसे से अपनी रोजी-रोटी के लिए एक छोटी-सी दुकान खोल दी और वक्त के साथ ही धीरे-धीरे परिवार की आर्थिक स्थिति सुधरती गई। पुनः परिवार पटरी पर आ गया
अब माँ पहले की तरह दोनों बच्चों के साथ हमेशा खुश रहने लगी।