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बुराई के रावण का अंत जरूरी

ललित गर्ग
दिल्ली

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दशहरा बुराइयों से संघर्ष का प्रतीक पर्व है,आज भी अंधेरों से संघर्ष करने के लिये इस प्रेरक एवं प्रेरणादायी पर्व की संस्कृति को जीवंत बनाने की जरूरत है। प्रश्न है कौन इस संस्कृति को सुरक्षा दे ? कौन आदर्शो के अभ्युदय की अगवानी करे ? कौन जीवन-मूल्यों की प्रतिष्ठापना में पहला नाम लिखवाये ? बहुत कठिन है बुराइयों से संघर्ष करने का यह सफर,बहुत कठिन है तेजस्विता की यह साधना। आखिर कैसे संघर्ष करें घर में छिपी बुराइयों से,जब घर-आँगन में रावण-ही-रावण पैदा हो रहे हों,चाहे भ्रष्टाचार के रूप में हो,चाहे राजनीतिक अपराधीकरण के रूप में,चाहे साम्प्रदायिक विद्वेष फैलाने वालों के रूप में हो,चाहे शिक्षा,चिकित्सा एवं न्याय को व्यापार बनाने वालों के रूप में।
विजयादशमी-दशहरा आश्विन शुक्ल दशमी को बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। यह हर साल दीपावली के पर्व से २० दिन पहले आता है। लंका के असुर राजा रावण पर भगवान राम की जीत को दर्शाता है दशहरा। भगवान राम सच्चाई के प्रतीक हैं और रावण बुराई की शक्ति का। देवी दुर्गा के पूजा के साथ हिन्दू लोगों के द्वारा यह महान धार्मिक उत्सव और दस्तूर मनाया जाता है। इस पर्व को पूरे देश में मनाने की परम्परा और प्रक्रिया अलग-अलग है। भगवान राम युद्ध की देवी माँ दुर्गा के भक्त थेl उन्होंने युद्ध के दौरान पहले नौ दिनों तक माँ दुर्गा की पूजा की और दसवें दिन दुष्ट रावण का वध किया। इसके बाद राम ने भाई लक्ष्मण,भक्त हनुमान और बंदरों की सेना के साथ एक बड़ा युद्ध लड़कर सीता को छुड़ाया। इसलिए,विजयादशमी बुराई पर अच्छाई,असत्य पर सत्य और अंधकार पर प्रकाश का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण दिन है।
दशहरे का सांस्कृतिक पहलू भी है। यह देश की सांस्कृतिक एकता और अखण्डता को जोड़ने का पर्व भी है। देश के अलग-अलग भागों में वहां की संस्कृति के अनुरूप यह पर्व मनाया जाता है,इस पर्व के माध्यम से सभी का स्वर एवं उद्देश्य यही होता है कि बुराई का नाश किया जाये और अच्छाई को प्रोत्साहन दिया जाये। नवरात्रि के बाद दशहरा का अंतिम यानी दसवां दिन है-विजयदशमी,जिसका मतलब है कि आपने तमस,रजस या सत्व तीनों ही गुणों को जीत लिया है, उन पर विजय पा ली है। आप इन तीनों गुणों से होकर गुजरे,तीनों को देखा,तीनों में भागीदारी की,लेकिन आप इन तीनों में से किसी से भी, किसी भी तरह जुड़े या बंधे नहीं,आपने इन पर विजय पा ली। यही विजयदशमी है-आपकी विजय का दिन।
इस तरह से नवरात्रि के नौ दिनों के प्रति या जीवन के हर पहलू के प्रति एक उत्सव और उमंग का नजरिया रखना और उसे उत्सव की तरह मनाना सबसे महत्वपूर्ण है। अगर आप जीवन में हर चीज को एक उत्सव के रूप में लेंगे तो आप बिना गंभीर हुए जीवन में पूरी तरह शामिल होना सीख जाएंगे। दरअसल,ज्यादातर लोगों के साथ दिक्कत यह है कि जिस चीज को वो बहुत महत्वपूर्ण समझते हैं उसे लेकर हद से ज्यादा गंभीर हो जाते हैं। अगर उन्हें लगे कि वह चीज महत्वपूर्ण नहीं है तो फिर उसके प्रति बिल्कुल लापरवाह हो जाएंगे- उसमें जरूरी भागीदारी भी नहीं दिखाएंगे। जीवन का रहस्य यही है कि हर चीज को बिना गंभीरता के देखा जाए,लेकिन उसमें पूरी तरह से भाग लिया जाए-बिल्कुल एक खेल की तरह। अज्ञान मिटे,इस बात का प्रयत्न बहुत जरूरी है। आदमी बुराई को बुराई समझते हुए भी करता है,बार-बार करता है। यह एक समस्या है। छोटी-मोटी बुराई तो अनजाने में हो जाती है,किन्तु बड़ी बुराई कभी अनजाने में नहीं होती। इस दुनिया में हर बड़ा पाप जानबूझ कर किया जा रहा है। आप रास्ते पर चल रहे हैं। पैरों के नीचे दबकर चींटी मर जाए तो यह अनजाने में हुआ पाप है,किन्तु किसी का गला तो अनजाने में नहीं काटा जा सकता। हम जानते भी बुराई क्यों कर रहे हैं-इस बात का उत्तर खोजा जाना चाहिए और शायद इस प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए ही दशहरा जैसे पर्व मनाये जाते हैं।
दशहरा शक्ति की साधना,कर्म एवं पूजा का भी पर्व है। इसी दिन लोग नया कार्य प्रारम्भ करते हैं, शस्त्र-पूजा की जाती है। यह पर्व दस प्रकार के पापों-काम,क्रोध,लोभ,मोह मद,मत्सर,अहंकार,आलस्य, हिंसा और चोरी के परित्याग की सद्प्रेरणा प्रदान करता है। आज दशहरा का पर्व मनाते हुए सबसे बड़ी जरूरत भीतर के रावण को जलाने की है,क्योंकि ईमानदार प्रयत्नों का सफर कैसे आगे बढ़े,जब शुरूआत में ही लगने लगे कि जो काम मैं अब तक नहीं कर सका, भला दूसरों को भी हम कैसे करने दें ? कितना बौना चिन्तन है आदमी के मन का,कि मैं तो बुरा हूँ ही,पर दूसरा भी कोई अच्छा न बने। इस बौने चिन्तन के रावण को जलाना जरूरी है।
दशहरे पर स्वयं के पापों को धोने के साथ-साथ जरूरत जन-जन के मनों को भी मांजने की है। जरूरत उन अंधेरी गलियों को बुहारने की है,ताकि बाद में आने वाली पीढ़ी कभी अपने लक्ष्य से न भटक जाये। जरूरत है सत्य की तलाश शुरू करने की जहां न तर्क हो,न सन्देह हो, न जल्दबाजी हो,वहां हम स्वयं सत्य खोजें। दशहरा एक चुनौती बनना चाहिए उन लोगों के लिये,जो अकर्मण्य,आलसी,हताश, सत्वहीन बनकर सिर्फ सफलता की ऊंचाइयों के सपने देखते हैं,पर अपनी दुर्बलताओं को मिटाकर नयी जीवनशैली की शुरूआत का संकल्प नहीं स्वीकारते।

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