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भारतमाता की बिंदी है हमारी हिंदी

डॉ.धारा बल्लभ पाण्डेय’आलोक’
अल्मोड़ा(उत्तराखंड)

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हिंदी  दिवस स्पर्धा विशेष………………..


पावन पुनीत भारत धरती,पवित्र नदियों से सिंचित,मुकुट मणि गिरिराज ‍हिमालय जिसका प्रहरी और माथे का शुभ्र मुकुट है,जम्मू कश्मीर व हिमाचल प्रदेश जिसका पूर्णेन्दु बिंब फल-सा मुख है,कश्मीर से असम तक फैली हिमालय पर्वत श्रृंखलाएं जिसकी मेखला है,उत्तराखंड के कूर्मांचल,गढ़वाल व तराई-भावर का भाग जिसका वक्षस्थल है और शिवालिक पर्वत श्रेणियां जिसके स्तन मंडल हैं, गंगा का विशाल मैदान जिसका उदर और आँचल है,गंगोत्री-यमुनोत्री से निकलने वाली गंगा-यमुना जैसी पवित्र नदियां जिसकी स्तनों से निकलती दुग्ध धाराएं हैं,जिनसे वह अपनी गोद में लिए असंख्य प्राणियों को नीर रूपी दूध पिलाकर पालती है,अरावली की पर्वत मालाएं जिसके गले का हार है,विंध्यांचल,सतपुड़ा आदि पर्वत जिसकी भुजाएं हैं,राजस्थान और गुजरात आदि प्रदेशों का भाग जिसका आँचल से ढका हुआ दक्षिण हस्त तथा उत्तर प्रदेश, बिहार,असम,भूटान आदि प्रदेश बाएं हाथ से आँचल का दूसरा छोर पकड़ कर फैलाए हुए है,शांति निकेतन व सेवाग्राम ‌‌जिसका व्यक्तित्व और चरित्र है,पंजाब,हरियाणा,उत्तर प्रदेश,मध्य प्रदेश जिसका मेरुदंड है,दक्षिण भारत के प्रदेश व दक्षिण का पठारी भाग जिसके नितंब और दो चरण युगल हैं,जो सुंदर साड़ी के आवरण से ढके हुए हैं,विशाल लहलहाता समुद्र जिसके कोमल पद युगल को धो रहा है,ऐसी प्राकृतिक छटा से सुशोभित मनमोहिनी नारी का स्वरूप धारण की हुई,माँ की ममता से भरी हुई,देववाणी संस्कृत भाषा में वेदवाणी द्वारा अपने आराध्य देव की स्तुति,अर्चना,भजन,कीर्तन आदि में निमग्न नृत्य करती सी यह विश्व सुंदरी समुद्र वसना वसुंधरा भारतमाता विभिन्न धर्म,जाति,संप्रदाय,भाषा,वेशभूषा और रीति-रिवाजों से सुशोभित तथा श्रृंगारिक होकर भी तब तक अपने श्रृंगार में पूर्ण नहीं कही जा सकती,जब तक कि इसकी भावनाओं से उदगार रूप में प्रस्फुटित विभिन्न बोलियों की एकाकार रूप हिंदी बिंदी बनकर इसके माथे से न लग जाए,क्योंकि नारी की शालीनता,व्यवहार,श्रृंगार व सौंदर्य में पूर्णता का निखार बिंदी ही लाती है।
नारी और हिंदी के सामंजस्य के लिए यह रूपक यथार्थ में अपेक्षित और अनिवार्य है, क्योंकि भारत एक विशाल राष्ट्र है,जो आज सेतु रामेश्वर से कश्मीर और सुदूर पूर्वांचल से गुजरात प्रदेश तक विस्तृत एवं भाषाओं की बहुरंगी पुष्पों से सुरभित पुष्प वाटिका संजोए है। ऐसी विस्तृत एवं अनेकताओं में विभक्त राष्ट्र की एकता व अखंडता के सूत्र में पिरोने के लिए संतों की भांति सब भाषाओं से समन्वित सूत्र रूप में एक भाषा का होना आवश्यक है। साथ ही विभिन्न धर्मों व विभिन्न भाषाओं में उपलब्ध साहित्य,अन्वेषण, संस्कृति,विज्ञान एवं दर्शन का भी अपनी भाषा में अनुवाद किया जाना आवश्यक है, जिसमें राष्ट्र के लिए उपयोगी एवं रचनात्मक साहित्य,विज्ञान एवं दर्शन सरल एवं सुबोध रूप से जनसामान्य के लिए सुलभ हो सके।
भारत एक विशाल देश है। प्राचीन भारत आज के भारत की अपेक्षा कई गुना अधिक विस्तृत था। भले ही विभिन्न प्रांतों में बंटे इस भारत के शासक अलग-अलग थे,फिर भी तात्कालिक संपूर्ण भारत सांस्कृतिक राजनीतिक एवं भाषाई दृष्टि से अखंड भारत के रूप में विकसित था। इस एकता का मूल आधार धर्म,भाषा और साहित्य ही था। इस परम एकता की मुख्य कड़ी प्राकृतिक एवं सुसंस्कृत भाषा संस्कृत थी,जो सभ्य समाज की प्रथम भाषा थी। भौगोलिक दृष्टि से प्राचीन भारत जितना विशाल था,उसके अब बीस से अधिक देश बन चुके हैं। वर्तमान में भारत २८ राज्य और ९ केन्द्र शासित प्रदेशों में संगठित और सुशोभित है। पूरे भारतवर्ष में एक सभ्यता व एक ही भाषा संस्कृत का अविरल प्रवाह यहां प्राचीन काल से ही था। ग्रामीण बोलियों में अवश्य विभिन्नता थी,किंतु साहित्य,वैज्ञानिक,धार्मिक,दार्शनिक व राजनीतिक प्रगति की मुख्य प्रभावी भाषा एकमात्र संस्कृत ही थी। विभिन्न बोलियों में भी संस्कृत भाषा का ही अशुद्ध तदभव रूप था। इसकी अशुद्धता अथवा विकृतता के कई कारण थे। कोई भी भाषा व्यवहार में देशकाल,प्राकृतिक वातावरण,धर्म,आलस्य, व्यक्ति का स्वभाव,संपर्क,कविता,अशिक्षा और अज्ञानता के कारण विकृत हो जाती है। यही विकृतावस्था कुछ समय के बाद एक जनसमुदाय की बोली हो जाती है,किंतु यह भी निश्चित है कि विकास की श्रृंखला में कोई सुसंस्कृत भाषा की भी मूलभूत आधार और प्राकृतिक ध्वनियां होती हैं। संस्कृत भाषा से पूर्व की बोलियों के भी कई वर्ण प्राचीन भाषाओं जैसे-आर्य,अरबी,तुर्की,द्रविड़,चीनी, स्कॉडनेव में मिलते हैं। इन्हीं से मिले-जुले रूप में अलग-अलग भाषाओं का जन्म हुआ। इन मूल भाषाओं अथवा बोलियों की मूल ध्वनियां लगभग एक-सी ही रही हैं। विकास की श्रृंखला में इन्हीं से कई शाखाएं निकली। आर्य भाषा संस्कृत,पारसी,अवेस्ता, लैटिन,ग्रीक,जर्मन, कैल्टिन आदि जिनमें मुख्य और प्राचीन शाखा संस्कृत ही पाई जाती है। इनके शब्द एवं क्रियाएं-प्राकृतिक ध्वनियों (धातुओं) में समय-समय पर संधि, समास, प्रत्यय और उपसर्ग लगाकर प्राकृतिक ध्वनि विज्ञान के अनुसार बनी हैं। इसी कारण संस्कृत का व्याकरण विश्व में सर्वश्रेष्ठ और शुद्ध है। अन्य भाषाएं अधूरी अथवा प्राकृतिक अवस्था में अथवा अनुकरण पर आधारित हैं। उदाहरणार्थ- संस्कृत में ‘मातृ’ शब्द का फारसी में ‘मादर’ और अंग्रेजी या उसकी सहायक भाषाओं में ‘मदर’ होना,तथा ‘पितृ’ शब्द का फारसी में ‘फिदर’ तथा अंग्रेजी या उसकी सहायक भाषाओं में ‘फादर’ शब्द होना है। इसी तरह अन्य बहुत से शब्द हैं,जो अपभ्रंश होते-होते नए-नए शब्दों में परिवर्तित हुए हैं। चीनी भाषा भी ठीक धातु अवस्था में ही प्रयोग होती है।
संस्कृत भाषा का भारत में भी इसी तरह कई रूपों में परिवर्तन हुआ। यथा वैदिक संस्कृत,नवीन संस्कृत,पाली,प्राकृत और अपभ्रंश। अपभ्रंश भाषा मुख्यत: पांच रूपों में पायी जाती है-
#पश्चिमी हिंदी-राजस्थानी,गुजराती, मध्यम पहाड़ी (कुमाऊनी,गढ़वाली)।
#अर्धमागधी-पूर्वी हिंदी,बिहारी,बांग्ला, उड़िया,असमी।
#महाराष्ट्री-मराठी।
#ब्राचड़-सिंधी।
#पश्चिमी पंजाबी(लहंगा),पूर्वी पंजाबी।
इसके अतिरिक्त तमिल,तेलुगू, मलयालम आदि दक्षिण भारतीय भाषाएं संस्कृत से निकली पाली व प्राकृत भाषाओं से मिलती-जुलती हैं तथा द्रविड़ भाषा से प्रभावित हैं।
इस प्रकार भारतवर्ष की समस्त बोलियों, भाषाओं के बुनियादी स्तर को जान लेने से हम समझ सकते हैं कि यह सब भाषाएं संस्कृत से ही निकली हैं,किंतु जहां तक पूरे देश की एक सर्वमान्य भाषा का प्रश्न है जिसे राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया जा सके तो वह भाषा या तो संस्कृत ही हो सकती है अथवा संस्कृत की प्रतिनिधि हिंदी। संस्कृत भाषा सर्वमान्य,प्रतिष्ठित एवं पूरे राष्ट्र को एकता में बांधे हुए है। आज भी अप्रत्यक्ष रूप से जन समुदाय तथा सरकारी तंत्र के न चाहते हुए और प्रोत्साहन न दिए जाने पर भी ज्ञान एवं शोध के लिए केवल राष्ट्रभाषा ही नहीं,बल्कि विश्व भाषा देववाणी के रूप में संस्कृत भाषा दुग्ध- दधि में संनिहित नवनीत की तरह अप्रत्यक्ष होकर भी अपना स्थान सर्वोच्च व सुरक्षित रखे हुए है,किंतु आज संस्कृत भाषा व्यवहार की दृष्टि से क्लिष्ट और सीमित दायरे की हो चुकी है। इसका कारण राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में इसे प्रोत्साहन न मिल पाना तथा उपेक्षित होना है। इसी कारण से संस्कृत का राष्ट्रभाषा हो पाना असंभव लगता है।
राष्ट्रभाषा के लिए यह अनिवार्य है कि वह जनसामान्य के लिए सरल और सुबोध हो, जिसमें देश का राजकार्य आसानी से किया जा सके। इसके साथ ही यह भी आवश्यक है कि देश का अधिक से अधिक जनसमुदाय इसे जानता हो अर्थात् भाषा को व्यापक होना चाहिए। अन्यथा किसी भी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाया जाना संभव हो जाता। इस प्रकार किसी स्थान विशेष की बोली या किसी प्रांत विशेष की भाषा भी इस पद को ग्रहण नहीं कर सकती,क्योंकि इसमें व्यापकता का गुण नहीं है।
सरलता और व्यापकता की दृष्टि से देश में उर्दू भी मध्यकाल से काफी प्रचलित भाषा रही है,किंतु लिपि की दृष्टि से तथा अरबी और फारसी प्रवृत्ति हो जाने के कारण इसका अर्ध भाग छूटा रह जाता है। यूँ तो उर्दू का हमारे देश की सभी भाषाओं को संगठित करने में बड़ा योगदान रहा है,किंतु प्राचीन काल से भारत में देवनागरी लिपि ही प्रचलित रही है। देवनागरी लिपि में ही संस्कृत ग्रंथों में उपलब्ध विषय सामग्री का अनुवाद, विश्लेषण,व्याख्या और शोध लिखे गए हैं तथा राजनीतिक,ऐतिहासिक,भौगोलिक, वैज्ञानिक,पौराणिक,वैदिक,धार्मिक,दार्शनिक एवं साहित्यिक विषयों पर लेखन भी देवनागरी लिपि में ही किया गया है।
उर्दू को प्राथमिकता देने का प्रश्न तब भी काफी जोर से उठा था,जब मालवीय जी द्वारा हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना की गई तथा कचहरी में देवनागरी लिपि का प्रवेश कराने की बात कही थी। तब मालवीय जी ने कहा था कि-“उर्दू हिंदी ही है,यदि उर्दू अपनी अरबी प्रवृत्ति छोड़ दे तो हिंदी और उर्दू का झगड़ा ही ना हो। उर्दू हिंदी की छोटी बहन है।” इसके साथ ही हिंदी लिखने वालों के लिए मालवीय जी ने कहा था कि-“हिंदी लिखने वालों को थोड़ी संस्कृत और थोड़ी उर्दू जानना आवश्यक है।” उन्होंने कहा था-
“मुहर्रम और दशहरा साथ होगा,
निबाह उसका हमारे साथ होगा।
खुदा की तरफ से है यह संयोग,
तो क्यों न रखें सुलह हम लोग॥”
स्वरूप की दृष्टि से हिंदी और उर्दू में केवल नाम और लिपि का ही भेद है, अन्यथा दोनों एक ही हैं। इस लिपि के भेद से उर्दू भी इस प्रतिष्ठा से वंचित रह जाती है। दूसरी बात यह है कि हिंदी में देश की अन्य भाषाओं के साथ-साथ उर्दू भी पूर्णत: सम्मिलित है। हिंदी काफी प्रचलित भाषा भी है। किसी भी देश की प्रगति का मुख्य द्वार देश की प्रचलित भाषा ही हो सकती है। किसी भी देश की अच्छी प्रगति का मुख्य कारण उनकी अपनी मातृभाषा में ही सारी शिक्षा देना और राजकाज चलाना है। भारत के लिए भी यह अनिवार्य है कि यहां की राष्ट्रभाषा हिंदी हो।
चूंकि,दसवीं शताब्दी से ही अपभ्रंश भाषा का रूप पुरानी हिंदी के रूप में बदलने लगा था किंतु एक ओर संस्कृत का पांडित्य और दूसरी ओर उर्दू के प्रचलन के कारण तथा हिंदी समाज में हिंदी भाषा कई रूपों में प्रचलित होने से हिंदी उठ नहीं सकी। हिंदी के कई नाम विभिन्न ऐतिहासिक काल खंडों में कहे गए हैं,जैसे-देशी भाषा,भाखा(भाषा), देशना वचन (विद्यापति),हिंदवी,रेखता, दक्खिनी(दक्षिणी),आर्य भाषा (दयानंद सरस्वती),हिंदुस्तानी,खड़ी बोली,भारती आदि। अब साहित्य के क्षेत्र में प्रगति जारी रहने से हिंदी प्रगति के शिखर पर पहुंचती जा रही है। गोस्वामी तुलसीदास एवं सूरदास जैसे हिंदी के आदि कवियों ने मौलिक संस्कृत साहित्य सागर से ऐसे बहुमूल्य रत्न समेटे हैं कि यदि सारी कविता नष्ट हो जाए तो भी केवल मानस से एक भारत ही नहीं,बल्कि पूरा विश्व कृतार्थ हो जाएगा। सन् १८०० में खड़ी बोली हिंदी का रूप बृज भाषा था। १९०० के उत्तरार्द्ध से इसका हिंदी रूप भारतेंदु युग से निश्चित हो गया था। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के युग में हिंदी पूर्णरूपेण साहित्य भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो गई थी तथा खड़ी बोली, हिंदी का पर्याय बन गई थी। आचार्य द्विवेदी जी ने इसे शुद्ध और परिमार्जित करने के लिए संस्कृतनिष्ठ और सरस बनाया तथा शुद्ध हिंदी में कविताएं करने के लिए कवियों को प्रेरित किया। इससे पूर्व खड़ी बोली कविता के बारे में लोग कहा करते थे कि खड़ी बोली की कविता नीरस होती है।
‌‌आज हिंदी,संस्कृत भाषा की प्रतिनिधि बनकर तथा सभी भारतीय जन समुदाय की बोलियों को अपने में सम्मिलित कर पूरे देशवासियों को एक सूत्र में बाँधने का प्रयास कर रही है, किंतु अभी साहित्य के क्षेत्र में यह पूर्णतया सक्षम नहीं कही जा सकती। यह इसलिए,क्योंकि साहित्य के नाम पर अशुद्ध भाषा में जन सामान्य की स्वाभाविक मनोवृत्तियों के अनुकूल पुस्तकों का प्रकाशन अधिकाधिक बढ़ता जा रहा है,जिससे मानव को सही मार्गदर्शन के बजाय अपनी कुप्रवृत्तियों में ही बने रहने व उन्हीं दुष्प्रवृत्तियों में आगे बढ़ने का अवसर मिलता है। ऐसा साहित्य समाज और देश की उन्नति में बाधक होता है। एक राष्ट्रभाषा की संकल्पना के लिए देश की एकता,अखंडता व प्रगति के लिए लिखे गए साहित्य को प्रोत्साहन मिलना चाहिए। राष्ट्रभाषा पर प्रतिष्ठित भाषा में उत्तम से उत्तम साहित्य व लेखन कला की स्वतंत्रता होनी चाहिए,और साहित्यकारों को अच्छे साहित्य के प्रकाशन के लिए सुविधा तथा आर्थिक सहायता मिलनी चाहिए। हमारे देश के अधिकांश साहित्यकारों को संघर्षमय जीवन व्यतीत करना पड़ता है,जो अपनी परिस्थितियों के कारण प्रतिभावान और युग के साहित्यकार होते हुए भी चतुर प्रकाशकों के हाथों बिक जाते हैं या साहित्य के क्षेत्र से पलायन कर जाते हैं।
वर्तमान में हिंदी हमारी राजभाषा है। अतः, हिंदी के उत्थान हेतु हिंदी भाषा में विज्ञान, दर्शन,इतिहास आदि संस्कृत प्राचीन ग्रंथों का अनुवाद हो,विभिन्न भाषाओं के शब्दों की हिंदी भाषा के साथ अनेक उत्तम छोटे-बड़े विश्वकोश हों,यह जरूरी है। राष्ट्रभाषा के लिए समस्त विषयों का अपनी भाषा में होना अनिवार्य है। एक क्षेत्र में हिंदी दूसरे क्षेत्र में अंग्रेजी और तीसरे क्षेत्र में कोई अन्य भाषा होगी तो इससे भाषा का विकास संभव नहीं है। इसके अलावा अन्यत्र कहीं अन्य भाषाओं की खिचड़ी होने से राजभाषा केवल नाम की रह जाती है,काम की नहीं,जैसा देश में दिखाई दे रहा है। यह अच्छी बात है कि अपनी प्रतिभा से कोई व्यक्ति अधिक से अधिक भाषाएं सीख ले। वर्तमान में केवल राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित हिंदी भाषा किसी वर्ग विशेष या संप्रदाय विशेष की भाषा नहीं है। सिंध नदी का क्षेत्र होने से ईरानी जन समुदाय एवं अन्य विदेशियों ने इस देश को सिंध कहा। फारसी में ‘स’ का उच्चारण ‘ह’ किया जाता है,अतः उन्होंने इसे हिन्दू देश अथवा हिंदुस्तान कहा। इसी से भारत की भाषा भारती तो वैसे ही ‌हिन्दुस्तान की भाषा हिंदी कहलाई। अस्पष्ट शब्द उच्चारण के कारण अंग्रेजों ने ‘हिंद’ का उच्चारण ‘इंड’ करने से भारत के लिए इंडिया शब्द से उच्चारण किया। हिंदी शब्द वास्तव में सभी भारतीयों के लिए प्रयुक्त होता है,लेकिन धार्मिक विचारधाराओं के कारण यहां के स्थाई निवासियों को हिंदू कहा गया तथा इसे अलग से एक धर्म विशेष समझ लिया गया। कोई भी हिंदू,मुस्लिम,सिख, ईसाई जो भारत का निवासी हो जाए तो अन्य देशों के नागरिकों द्वारा हिंदुस्तानी ही कहा जाएगा और उसकी भाषा हिंदी ही कही जाएगी,चाहे उस भाषा का स्थानीय नाम कुछ भी हो। कहने का तात्पर्य है कि हिंद की प्रत्येक भाषा हिंदी ही है और सब भाषाओं की बोलियों के सम्मिश्रण से जो सर्वमान्य प्रचलित भाषा बनी,वह भी हिंदी ही कही गई। सभी भाषाओं का समावेश होने से हिंदी का क्षेत्र व्यापक बन चुका है,अतः हिंदी को ही राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया जाना उचित है। हिंदी भाषा की उन्नति व नागरी लिपि द्वारा ही मालवीय जी देश का उत्थान मानते थे। इसके लिए उन्होंने आरंभ से ही विश्व हिंदू परिषद व नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा बहुत सारे कार्य किए। इसमें उनका काफी योगदान रहा। उन्होंने हिंदी के उत्थान के लिए कहा था,-“संस्कृत में जो विशेषताएं हैं उसका अनुवाद हिंदी में क्यों न कर लिया जाए।” मालवीय जी के वचन का मुख्य सूत्र था-“हिंदी,हिंदू, हिंदुस्तान।” उनका कहना था कि “हिंदी का अर्थ केवल खड़ी बोली ही नहीं होता,बल्कि हिंदी का अर्थ है हिंदू मुल्क,सभी भाषाएं।”
किसी भी भाषा के उत्थान के तीन अंग माने जाते हैं। पहला-संग्रह, दूसरा-संगठक और तीसरा-कार्य। संग्रह अंग-जिस तरह उदर भोज्य पदार्थों का संग्रह करता है और सारे शरीर में पहुंचाने का काम करता है उसी तरह भाषा में भी विभिन्न भाषाओं की अच्छाइयों और शब्दावलियों को अपने स्वरूप में बदलकर संग्रह करे। जैसे ऑक्सीजन को ओजोन,ऑक्सफोर्ड उक्षप्रत्तर न्यूयार्क को नवार्क आदि। संगठन कार्य-जिस प्रकार शरीर संग्रहित पदार्थों को पचाकर पूरे शरीर की पुष्टि करता है,उसी तरह भाषा भी अपने मुख रूप संस्कृत के द्वारा प्राप्त उपलब्धियों के अनुसार संग्रह शब्दावली को अपनी भाषा में परिवर्तित कर भाषा को शक्तिशाली बनाती है। कार्य-जैसे शरीर भोजन को पुष्ट करने के बाद शरीर को बड़े-बड़े कार्यों में लगाता है,उसी तरह भाषा में भी विज्ञान का आविर्भाव करना उसे विभिन्न विषयों द्वारा जीवन उपयोगी बनाना कार्य अंग कहलाता है।
भाषा के दो रूप होते हैं- सिद्धवांगमय और साध्यवांगमय। सिद्धवांगमय वन की तरह है,जिसमें मनुष्य का हाथ लगने से या परिवर्तन करने से उसकी शोभा बिगड़ती है। यह सिद्धवांगमय संस्कृत भाषा के ग्रंथ हैं जिनमें कोई परिवर्तन करने से उनकी सुंदरता घटती है। रामचरितमानस भी सिद्धवांगमय ही है,लेकिन साध्यवांगमय मनुष्य द्वारा लगाई गई फूलबगिया या बगीचा है,जो मनुष्य का हाथ पड़ने से और अधिक सुंदर होता है। जैसे बड़े-बड़े ग्रंथों का अनुवाद,विश्लेषण, व्याख्या,मौलिक विचार आदि। अत: हिंदी में किए जाने वाले कार्य सिद्धवांगमय और साध्यवांगमय दोनों ही रूपों में प्रगतिशील हो।
हिंदी भाषा तीन तरह के शब्दों से बनी है-तत्सम शब्द,तदभव शब्द और देशज शब्द। संस्कृत से सीधे आए हुए शब्द ‘तत्सम’ कहलाते हैं जैसे-बल,वन,अग्नि,योग आदि। तदभव शब्द-जिनके मूल में संस्कृत है किंतु वे बिगड़े हुए रूप में प्रचलित हैं,जैसे-अग्नि को आग,धान्य को धान,रात्रि को रात,दुग्ध को दूध आदि। जिन शब्दों के मूल में संस्कृत नहीं है तथा जो पदार्थ के रूप में या ध्वनि के स्वरूप के अनुसार बना लिए जाते हैं,उन्हें देशज कहते हैं। जैसे-पगड़ी,अरोड़ा,धूमधाम, खड़खड़ाना,बड़बड़ाना,बंगला,उड़िया और मराठी आदि। बांग्ला उड़िया और मराठी मैं तत्सम शब्द बहुत अधिक तो गुजराती पंजाबी और अवधी में बहुत कम पाए जाते हैं। राजभाषा हिंदी में तदभव शब्दों की अधिकता है। इसके अलावा हिंदी भाषा में अरबी,तुर्की,फारसी,अंग्रेजी विदेशी शब्द भी प्रचलित है। इस प्रकार हिंदी भाषा में लचीलापन होने से इसका दिनों-दिन सम्मान बढ़ता जा रहा है।
हिंदी और इसकी बोलियां संपूर्ण भारत के विविध राज्यों में बोली जाती हैं जिनकी आधिकारिक भाषा हिंदी है और हिंदी भाषा का बहुमत है,अर्थात बिहार,छत्तीसगढ़, हरियाणा,हिमाचल प्रदेश,झारखंड,मध्य प्रदेश ,राजस्थान,उत्तराखंड,उत्तर प्रदेश और राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में हिंदी भाषा काफी बोली जाती है। भारत के अलावा अन्य देशों में भी लोग हिंदी बोलते,पढ़ते और लिखते हैं। फिजी,मॉरीशस,गयाना,सूरीनाम,नेपाल और संयुक्त अरब अमीरात की जनता भी हिंदी बोलती है। फरवरी २०१९ में अबू धाबी में हिंदी को न्यायालय की तीसरी भाषा के रूप में मान्यता मिली है ।
२००१ की भारतीय जनगणना में भारत में ४२.२० करोड़ लोगों ने हिंदी को अपनी मूल भाषा बताया। भारत के बाहर हिंदी बोलने वाले संयुक्त राज्य अमेरिका में ८६३०७७,मॉरीशस में ६८५१७०,दक्षिण अफ्रीका में ८९०२९२,यमन में २३२७६०, युगांडा में १४७०००,सिंगापुर में ५०००,नेपाल में ८ लाख,जर्मनी में ३०हजार और न्यूजीलैंड में हिंदी चौथी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है। इसके अलावा भारत,पाकिस्तान और अन्य देशों में १४.१० करोड़ लोगों द्वारा बोली जाने वाली उर्दू भी मौखिक रूप से हिंदी से काफी समानता रखती है। लोगों का एक विशाल बहुमत हिंदी और उर्दू दोनों को ही समझता है। हिंदी विभिन्न भारतीय राज्यों की १४ अधिकारी भाषाओं और क्षेत्र की बोलियों का उपयोग करने वाले लगभग १ अरब लोगों में से अधिकांश की दूसरी भाषा है।
अतः,भारतीय राष्ट्रभाषा एवं राजभाषा के पद को ग्रहण करने की पूर्ण क्षमता हिंदी में ही है क्योंकि उपरोक्त विवेचन के अनुसार व्यापकता,रोचकता,सरलता और प्राचीन लिपिबद्धता के गुणों से भरपूर भाषा हिंदी ही है। हिंदू नारी के ललाट पर सुशोभित होने वाली बिंदी की भांति भारत राष्ट्र भी हिंदी भाषा को राजभाषा बनाकर कृतार्थ हो गया है,जो विशाल भारत की एकता और अखंडता की मुख्य कड़ी है। देश की प्रगति,एकता व अखंडता के लिए प्रचलित भाषाओं की सम्मिलित भाषा ‘हिंदी’ ही श्रेष्ठतम हो सकती है। इसके लिए यहां के लेखकों व वैज्ञानिकों को निरंतर प्रयास करने होंगे। जो योगदान यहां के मुख्य कवियों, लेखकों,विद्वानों व दार्शनिकों ने हिंदी भाषा के उत्थान के लिए दिया और उसकी भूमिका को परिपुष्ट किया,उस भूमिका पर भवन निर्माण करना और उसे सजाना आज के समाज का कर्तव्य है,क्योंकि भारतरूपी नारी की बिंदी ‘हिंदी’ ही है। यही बिंदी भारत के ललाट पर सदैव चमकती रहे,इसी विश्वास एवं शुभकामनाओं के साथ जय हिंद,जय हिंदी,जय भारत।

परिचय-डॉ.धाराबल्लभ पांडेय का साहित्यिक उपनाम-आलोक है। १५ फरवरी १९५८ को जिला अल्मोड़ा के ग्राम करगीना में आप जन्में हैं। वर्तमान में मकड़ी(अल्मोड़ा, उत्तराखंड) आपका बसेरा है। हिंदी एवं संस्कृत सहित सामान्य ज्ञान पंजाबी और उर्दू भाषा का भी रखने वाले डॉ.पांडेय की शिक्षा- स्नातकोत्तर(हिंदी एवं संस्कृत) तथा पीएचडी (संस्कृत)है। कार्यक्षेत्र-अध्यापन (सरकारी सेवा)है। सामाजिक गतिविधि में आप विभिन्न राष्ट्रीय एवं सामाजिक कार्यों में सक्रियता से बराबर सहयोग करते हैं। लेखन विधा-गीत, लेख,निबंध,उपन्यास,कहानी एवं कविता है। प्रकाशन में आपके नाम-पावन राखी,ज्योति निबंधमाला,सुमधुर गीत मंजरी,बाल गीत माधुरी,विनसर चालीसा,अंत्याक्षरी दिग्दर्शन और अभिनव चिंतन सहित बांग्ला व शक संवत् का संयुक्त कैलेंडर है। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में बहुत से लेख और निबंध सहित आपकी विविध रचनाएं प्रकाशित हैं,तो आकाशवाणी अल्मोड़ा से भी विभिन्न व्याख्यान एवं काव्य पाठ प्रसारित हैं। शिक्षा के क्षेत्र में विभिन्न पुरस्कार व सम्मान,दक्षता पुरस्कार,राधाकृष्णन पुरस्कार,राज्य उत्कृष्ट शिक्षक पुरस्कार और प्रतिभा सम्मान आपने हासिल किया है। ब्लॉग पर भी अपनी बात लिखते हैं। आपकी विशेष उपलब्धि-हिंदी साहित्य के क्षेत्र में विभिन्न सम्मान एवं प्रशस्ति-पत्र है। ‘आलोक’ की लेखनी का उद्देश्य-हिंदी भाषा विकास एवं सामाजिक व्यवस्थाओं पर समीक्षात्मक अभिव्यक्ति करना है। पसंदीदा हिंदी लेखक-सुमित्रानंदन पंत,महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’,कबीर दास आदि हैं। प्रेरणापुंज-माता-पिता,गुरुदेव एवं संपर्क में आए विभिन्न महापुरुष हैं। विशेषज्ञता-हिंदी लेखन, देशप्रेम के लयात्मक गीत है। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-“भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का विकास ही हमारे देश का गौरव है,जो हिंदी भाषा के विकास से ही संभव है।”

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