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भारतीय समाज, हमारी भाषाएँ और चिंता की लकीरें…

डॉ. रामवृक्ष सिंह
लखनऊ (उप्र)
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भारतीय समाज को हर काम के लिए छोटा रास्ता चाहिए। मेहनत न पड़े। लाभ अधिक हो। इसीलिए हम लोग सम्यक श्रम भी नहीं करते। उधर अंग्रेजी वाले बड़े चतुर और अध्यवसायी हैं। लगे रहते हैं अपने काम में‌। मेरा विश्वास है कि, अगर भारतीय समाज की यही दशा रही तो अगले ५० वर्ष में भारत में लिखने का काम पूरी तरह अंग्रेजी में और रोमन लिपि में होगा। बोलने में हिन्दी अखिल भारतीय भाषा बन जाएगी। उसके कुछ स्थानिक भेद रहेंगे। वर्तमान प्रादेशिक भाषाएँ और भी सिकुड़ जाएंगी और अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र में केवल अनपढ़ गंवार लोग उनका प्रयोग करेंगे।
मेरी इस प्रपत्ति का आधार-पूरे देश में शिक्षित, साक्षर और अनपढ़, प्रत्येक नागरिक के मन में अंग्रेजी के लिए अतिशय अनुराग। प्रत्येक भारतीय द्वारा अपने दैनंदिन व्यवहार में रोमन लिपि और अंग्रेज़ी का प्रयोग। लोक व्यवहार, खरीद-फरोख्त, पर्चे आदि भरने, काटने में रोमन व अंग्रेजी का दबदबा। अंग्रेजी की अतिशय दृश्यता और प्रयोग में गौरव बोध। राज्य और केन्द्र में तत्संबंधी भाषाओं के लिए केवल ऊपरी प्रयास और प्रयोग न करने पर किसी कानूनी कार्रवाई का अभाव। भारत के विद्यालयों में भारतीय भाषाओं से दोयम बर्ताव। भारतीय भाषाओं के शिक्षकों के व्यक्तित्व संबंधी हीनता। शिक्षकों और लोकनायकों में भाषा का रोल मॉडल बनने का अभाव।
हिन्दी व हिन्दीतर भारतीय भाषा समाज में अपराध की हद तक अवसरवादिता है। लोग हिन्दी के लिए वेतन पाते हैं, पर अपने सरकारी काम भी अंग्रेजी में करने में उन्हें झिझक नहीं होती। रेलवे वाले डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा से मिलन हुआ। उन्होंने बताया कि, हिन्दी वाले लोग रोमन से हिन्दी टाइप करते हैं (मजे की बात यह कि इसे लोग फोनेटिक की बोर्ड कहते हैं, जबकि फोनेटिक की बोर्ड डीओई वाला इन्स्क्रिप्ट की बोर्ड है)। इन्स्क्रिप्ट में १ कुंजी-विन्यास सीखकर भारत की हर भाषा लिखी जा सकती है। यह जानते हुए भी जो लोग उसे नहीं सीखते या अपनाते, वे अपनी भाषा के अनुरागी कैसे हो सकते हैं ? विचार- शून्यता और तज्जनित यथास्थितिवाद हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या है। इसे कहते हैं-मस्तराम मस्ती में, आग लगे बस्ती में।

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुम्बई)

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