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मनोहरी पावन सावनी मन औ आँगन

डॉ. आशा गुप्ता ‘श्रेया’
जमशेदपुर (झारखण्ड)
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पावन सावन-मन का आँगन…

सावन! श्रावण! श्रावण ? ओ अच्छा सावन। क्या सावन ? हाँ जी, मैं सावन की ही बात कर रही हूँ। और सावन का सुंदर दृश्य आँखों के सामने आ ही गया। और देखिए! लोगों की अलग- अलग प्रतिक्रियाएं, सावन लग गया है जी। आप जानते हैं ना, हमारी भारतीय संस्कृति में युगों से सावन का विशेष महत्व सदा रहा है।
सुनिए, चलिए बातें करें सावन की। श्रावण याने घनघोर घटा, रिमझिम बरखा की फुहारें, पावन मनभावन ये ऋतु सावन। न जाने इस मौसम का नाम सुनते ही एक गुदगुदी, एक सुखद एहसास मन में कहाँ से आ जाता है। सखी! देखो, वहाँ मयूर अपने सतरंगी पंखों को फैलाए नृत्य कर रहा है। मानो प्रकृति ने उसके पैरों में थिरकन के घुंघरू पहना दिए हों। मृगों की कुलांचें, रंगीन फूलों की हँसी, झींगुर का गुंजन! वो देखिए, हर वृक्ष, हर पौधे ने चमकते हरे रंग के पत्तों से स्वयं को सजा लिया है। ये हरितिमा मन को छू रही है न ? धरणी की तृष्णा बुझ रही है, तो हर्ष क्यों न हो। नदियाँ लहरा रहीं हैं, उन्मुक्त सागर प्रीतम से मिलन को वेग से दौड़ रहीं हैं। ताल-तलैया भर रहे हैं। सारी कायनात मुस्कुरा रही है। कृषक और उनकी गृहिणी मिलकर मधुर गीतों के संग खेतों में धान रोप रहे हैं। भीषण गर्मी के ताप के बाद ये सावन तन औ मन को न लुभाए, ये कैसे हो सकता है। बच्चे, बडे़, बुजुर्ग सभी प्रसन्न हैं। ऐसा लग रहा है, जग के वृन्दावन में श्री कृष्ण ने अपने अधरों से लगी मुरलिया पर मधुर तान छेड़ी है। इस पर राधिका मोहित न हो, गोपियाँ उल्लसित न हो, सवाल ही नहीं उठता। सावन है, मनमोहन कृष्ण है, राधा है, तो हास-परिहास है, लय, गीत, नृत्य है। प्रेम स्नेह रस पगे मन प्राण, हर प्राणी, हर स्वांस। मनुहार भी तो है, पर हाय रे! ये प्रियतम को क्या हो गया है! “चिठ्ठी न कोई संदेश, गये कौन से देश।” हाय रे ये कैरियर, ये नौकरी! मोबाइल एसएमएस, वीडियो कॉल का युग है, फिर भी ये हाल। और प्रियतमा यहाँ घटाओं से, हवाओं से, प्रकृति से बार-बार पूछ रही है,-मोरे पिया कहाँ, मोरे पिया कहाँ! ये सावन आने की खबर पाकर भी वो दूर क्यों चले जाते हैं ? अब रूठे पिया को मनाऊँ कैसे ? जा मोरे प्यारे बदरा जा मेरा संदेशा तो पहुंचा। कालिदास का मेघदूत ये मेघा। काली घटा छाए, जिया मचल जाए ऐसे में वो जो आ जाएं। उफ! ये नखरे।
“अरे मेहँदी नही रचाई ?” सावन में हाथों में मेहँदी न लगे, ऐसा हो नहीं सकता। मेहँदी, खनखनाती हरी चूड़ियाँ और सावन का अटूट नाता है। नन्ही परी की हथेलियाँ, नवयौवना, हर उम्र की कलाइयाँ और हथेलियाँ मेहँदी से रची नजर आएँगी। सावन के साथ झूला झूलने और कजरी का रिवाज युगों से है। देखिए जगह-जगह झूले लगा सखियां कजरी गा रहीं जी। हरियाली तीज, हिंडोलात्सव, हरेली, श्रावणी तीज, मंगला गौरी पूजा और नागपंचमी अनेक त्योहार तो सावन में ही होते हैं। इन त्योहारों से वातावरण में पवित्रता, उमंग, उत्साह और सकारात्मकता का संचार होता है।

सुंदर ऋंगार सावनी, लाल धानी है चुनरी,
ऋतु उमंग सुखदायी, उमा आई देखो सखी री!
भगवती झूला झूल रही, प्रियतम शिव को बुलाईं,
गौरीशंकर युगल अनुपम, सखियाँ झूला मुसकाईं।

अब तो आप समझ गए होंगे सावन की ये उमंग। सावन की हरियाली और हरे किसलय पर मोती जैसी बरखा की फिसलती बूंदें, क्या सुंदर दृश्य है। हरा रंग स्फूर्ति प्रदान करता है व सकारात्मक विचारों का संचार करता है। यह सृजन व सम्पन्नता का भी सूचक है, तो क्यों न हम सब सावन का हृदय से स्वागत करें। इधर परमपिता परमगुरु शिवजी-गौरी शंकर-भोलेनाथ जी की आराधना विशेष रूप से रोज हो रही है। जगह-जगह रूद्राभिषेक हो रहे हैं। कांवरिया भीगते, शिव जी के भजन गीत गाते मीलों पैदल यात्रा करके प्रभु को पवित्र गंगा जल चढ़ा रहें हैं। ऐसी श्रद्धा-भक्ति को सादर कोटिश: नमन। भक्तों पर प्रसन्न होईए हे महादेव, प्रसन्न होईए माते भवानी। सबकी मनोकामना पूरी करिए। इस जगत का कल्याण कीजिए हे शिव-पार्वती जी।
हाँ जी, हमारे भारतवर्ष की स्वतंत्रता की छिहत्तरवीं वर्षगांठ भी तो सावन में ही है। ये असीम सौभाग्य और गौरव का समय है। पिछले वर्ष ही हम भारतीयों ने गरिमामय पचहत्तरवें स्वतंत्रता दिवस के अमृतोत्सव दिवस और पूरे वर्ष को देशभक्ति से ओत-प्रोत उत्साह-समर्पण से मनाया। हमारे देश भारत के तिरंगे को कोटि कोटि नमन है। हमारा राष्ट्रीय ध्वज यूँ ही सदा लहराता रहे।
सावन ऋतु में भाई-बहन के अनुपम स्नेह-प्रेम का प्रतीक रक्षाबंधन त्योहार से आनंदित करता है। रंग-बिरंगी राखियाँ सजने लगी हैं। देखकर लगता है, सारी खरीद लूँ। हे विष्णुजी, कहाँ आप क्षीर सागर में विश्राम कर रहे हैं ? राखी बंधवाने अवश्य आ जाईएगा, आपकी राह देख रही हूँ। तो आइए, हम सब इस सावन में कृष्ण की बाँसुरी की धुन के संग दिल में लेकर उमंग, प्रकृति के झूले में झूलते हुए तन और मन से भीगें। अधरों पे सजे हँसी, सावन कजरी गाएं और फिर लग जाएँ अपने-अपने कर्मों में, अपने जीवन में। अगला सावन तो फिर सालभर बाद ही आएगा ना….।
झर-झर झरती सावनी बूंदें, उठती मृदुल हिलोर,
उल्लसित मन बदन पीहू कहे पपीहा नाचे मोर।
गीतों के तालों पे डोले, मन मौसम की शहनाई,
दौड़ चली पीड़ाएं कल की, फिजाओं की तन्हाई।
प्रकृति की ये जादूगरी, तन-मन को छूती चली,
सांवरिया से मिलन को बलखाती सलोनी चली॥

उमंगों की नुपूर पहने, बोले पपीहा- सावन आ गया,
सखी रे सुन, सखे जरा सुन, देखो सावन आ गया॥

परिचय- डॉ.आशा गुप्ता का लेखन में उपनाम-श्रेया है। आपकी जन्म तिथि २४ जून तथा जन्म स्थान-अहमदनगर (महाराष्ट्र)है। पितृ स्थान वाशिंदा-वाराणसी(उत्तर प्रदेश) है। वर्तमान में आप जमशेदपुर (झारखण्ड) में निवासरत हैं। डॉ.आशा की शिक्षा-एमबीबीएस,डीजीओ सहित डी फैमिली मेडिसिन एवं एफआईपीएस है। सम्प्रति से आप स्त्री रोग विशेषज्ञ होकर जमशेदपुर के अस्पताल में कार्यरत हैं। चिकित्सकीय पेशे के जरिए सामाजिक सेवा तो लेखनी द्वारा साहित्यिक सेवा में सक्रिय हैं। आप हिंदी,अंग्रेजी व भोजपुरी में भी काव्य,लघुकथा,स्वास्थ्य संबंधी लेख,संस्मरण लिखती हैं तो कथक नृत्य के अलावा संगीत में भी रुचि है। हिंदी,भोजपुरी और अंग्रेजी भाषा की अनुभवी डॉ.गुप्ता का काव्य संकलन-‘आशा की किरण’ और ‘आशा का आकाश’ प्रकाशित हो चुका है। ऐसे ही विभिन्न काव्य संकलनों और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में भी लेख-कविताओं का लगातार प्रकाशन हुआ है। आप भारत-अमेरिका में कई साहित्यिक संस्थाओं से सम्बद्ध होकर पदाधिकारी तथा कई चिकित्सा संस्थानों की व्यावसायिक सदस्य भी हैं। ब्लॉग पर भी अपने भाव व्यक्त करने वाली श्रेया को प्रथम अप्रवासी सम्मलेन(मॉरीशस)में मॉरीशस के प्रधानमंत्री द्वारा सम्मान,भाषाई सौहार्द सम्मान (बर्मिंघम),साहित्य गौरव व हिंदी गौरव सम्मान(न्यूयार्क) सहित विद्योत्मा सम्मान(अ.भा. कवियित्री सम्मेलन)तथा ‘कविरत्न’ उपाधि (विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ) प्रमुख रुप से प्राप्त हैं। मॉरीशस ब्रॉड कॉरपोरेशन द्वारा आपकी रचना का प्रसारण किया गया है। विभिन्न मंचों पर काव्य पाठ में भी आप सक्रिय हैं। लेखन के उद्देश्य पर आपका मानना है कि-मातृभाषा हिंदी हृदय में वास करती है,इसलिए लोगों से जुड़ने-समझने के लिए हिंदी उत्तम माध्यम है। बालपन से ही प्रसिद्ध कवि-कवियित्रियों- साहित्यकारों को देखने-सुनने का सौभाग्य मिला तो समझा कि शब्दों में बहुत ही शक्ति होती है। अपनी भावनाओं व सोच को शब्दों में पिरोकर आत्मिक सुख तो पाना है ही,पर हमारी मातृभाषा व संस्कृति से विदेशी भी आकर्षित होते हैं,इसलिए मातृभाषा की गरिमा देश-विदेश में सुगंध फैलाए,यह कामना भी है