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मन के मनके एक सौ आठ

शशि दीपक कपूर
मुंबई (महाराष्ट्र)
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रचना का हस्ताक्षर-भाग ३…..

आलोचक महोदय कवि के समक्ष आज फिर उपस्थित हो गए। वह भी क्या करते ? उनसे कविवर की अर्थ सिकुड़ अर्थात धन की कमी न देखी जा रही थी। आलोचक कभी कविवर के घर की जालों से भरी छत देखते,तो कभी कई बरस पहले एशियन पेंट की सबसे कम दाम से पुती कमरे की दीवारों को देख घृणित हो जाते।
आज कविवर अपनी स्टडी टेबल पर टेबल लैंप की रोशनी से कागज़ कलम के बीच शब्दों से उलझे बैठे थे।
आलोचक कविवर के पास पड़ी कुर्सी पर बैठ पूछा , “क्या तुम अपनी रचना में क़ाफ़िया और वज़न का प्रयोग करते हो ?”
कविवर ने सिर हिलाकर, ‘हाँ’ की स्वीकृति दी।”
आलोचक ने कहा, ‘क्या तुम्हें मालूम है ? “इससे तो पद्य में ‘चित्ताकर्ष’ उत्पन्न होता है,कविता संगीतात्मक भी बन जाती है।” मुझे आश्चर्य होता है! इसका प्रयोग करने के पश्चात भी,तुम्हारी व्यथा वही रही।’
कुछ सोच आलोचक फिर चहक उठा, ‘वह क्या है ? न, “क़ाफ़िये और वज़न को पहले ढूँढकर कवि को अपने मनोभाव तदनुकूल गढ़ने पड़ते हैं।”
कवि ने कहा, ‘मैं जब भी ऐसा करता हूँ,बात बनती ही नहीं.. प्रधान बात गौण हो जाती है। गौण बात प्रधान बन जाती है। ऐसी स्थिति में मैं अपने भाव स्पष्ट करने में असफल हो जाता हूँ। रचना फल से चूक जाता हूँ।”
स्पष्ट उत्तर न पाकर कवि ने अधमन से आलोचक से कहा, ‘बहुत उम्दा’ रचनाएँ काफ़िया और वज़न ने हमें दीं हैं। कविवर खुद को कोसते हुए,शायद मुझमें ही कोई कमी है जो दाल में कंकर की तरह पड़ी है। और मैं उसे कंकर नहीं दाल समझ चखता जा रहा हूँ। मानता हूँ…मानता हूँ…और मुझे ही! उसे सूक्ष्म आँख से खोजना होगा…कहीं कुछ तो कमी है मेरे भावाभिव्यक्ति या शब्द चयन या भाषा-शिल्प में…।
आलोचक अपने मकसद में मन ही मन प्रसन्न हो, कविवर की पीठ पर शाबाशी देते हुए कहने लगा, हाँ! हाँ! सही है तुम्हें “स्वंय ही आत्म-विलोचन से दुरुस्त करना पड़ेगा।”
“ परंतु…, महाशय! इस संबंध में अभ्यास करना कतिपय न भूलें,बेहतर है।” आलोचक ने इस बात पर ध्वनितगत दवाब देकर कहा।
कवि ने कुछ सोचते हुए कहा, “हूँ…हूँ…हूँ।”
आलोचक थोड़ा तिलमिलाए,कहने लगे, “अरे ! बरखुरदार उठो,कुछ ढंग से बातचीत करो। कब से ? हम ही केवल बकबकाए जा रहे हैं!….ऐं! ….“
कविवर स्वप्न मुद्रा छोड़ कुर्सी से उठ गए,मन ही मन यह सोचने लगे, ‘नींद बहुत की अब तक,रचना गढ़ने का यह सुनहरा अवसर हाथ से न जाने देंगें,आज कम नींद करें तो क्या हर्ज है! …’
कविवर ने क्षमा माँगते हुए,निवेदन किया, ‘नहीं…नहीं…मान्यवर,आप कहीं मत जाइए। मुझे केवल इतना बताइए कि संपादक मेरी रचनाएँ छापने से क्यूँ मना कर देते हैं,जबकि मेरी र र र च च च ना…।”
आलोचक भुनभुनाया, ‘पहले जितने नियम बताए हैं उन्हें स्मरण कीजिए! उनका पालन रचना में कीजिए महाशय! जब फिर कभी पुकारोगे,मैं तुम्हारी मदद के लिए आऊंगा।’
कविवर आलस से घिसे-पिटे उठे और कलम चलाने से ज्यादा साहित्यकारों की रचनाओं को पढ़ मन शुद्धि करने में जुट गए।

(प्रतीक्षा कीजिए अगले भाग की…)

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