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मन के मनके एक सौ आठ

शशि दीपक कपूर
मुंबई (महाराष्ट्र)
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रचना का हस्ताक्षर-भाग ५…..

आलोचक महाशय कुछ दिनों बाद आज फिर हमसे मुलाकात करने आए। आलोचक को यह कविवर भा गए थे,क्योंकि कविवर आलोचक की बात को बीच-बीच में काटते नहीं थे,जिरह भी नहीं करते थे। कुल मिलाकर नौसिखिया कविवर को पाकर आलोचक भी चित्त से प्रसन्नचित्त थे। अन्यथा तो अनुभव कर चुके थे कैसी-कैसी बहसें होती हैं संगोष्ठियाँ में,प्रत्येक अपने ही सिर के बाल नोंच-नोंच एक-दूसरे के हाथ में दे रहा होता है।
ख़ैर,एक दूसरे के प्रति सम्मान व्यक्त कर पूछने लगे, ‘जो बातें मैंने तुमको पहले समझाई थी कविवर,क्या आपने उन बातों पर अमल किया है या नहीं ?’ मगर कविवर आज आलोचक से साहित्य के विषय में बात न करना चाहते थे।
कविवर ने उत्तर दिया, ‘मान्यवर,आपके द्वारा दिए हुए मार्गदर्शन ही का अनुसरण कर रहा हूँ,लेकिन ‘अभ्यास करत-करत जड़मति होत सुजान’ उक्ति की पटरी पर धीमी गति से चल रहा हूँ। मुझसे किसी चमत्कारिकता की आप भूल न करें।’
‘सही पथ पर हो,जब तक रचनाकार अपनी प्रकृति से परिचित नहीं होता,तब तक उससे किसी रचना के रूप-रंग-ढंग की अपेक्षा करना व्यर्थ होता है।’ आलोचक ने हल्की शिष्ट मुस्कान से देखते हुए कहा।
आलोचक ने अपनी बात पर ओर पुष्ट करते हुए कहा, ‘रचना पात्रों के स्वभाव को पहचानना भी उतना महत्वपूर्ण माना यानि कि श्वांस चलित स्वभाव एवं अश्वांस चलित पात्र स्वभाव अर्थात् “प्रकृति-पर्यालोचन के सिवा कवि को मानव-स्वभाव की आलोचना का भी अभ्यास करना चाहिए। मनुष्य अपने जीवन में अनेक प्रकार के सुख-दुख आदि का अनुभव करता है। उसकी दशा कभी एक-सी नहीं रहती,अनेक प्रकार के विकार तरंग उसके मन में उठा ही करते हैं। इन विकारों की जाँच,ज्ञान और अनुभव करना सबका काम नहीं। केवल कवि ही इसके अनुभव करने और कविता द्वारा औरों को इनका अनुभव कराने में संम्भव होता है।
…जिस कवि को मनोविकारों और प्राकृतिक बातों का यथेष्ट ज्ञान नहीं,वह कदापि अच्छा कवि नहीं हो सकता।“
कविवर ठहरे स्वभाव से मसखरे,उन्होंने आलोचक के इन वक्तव्यों को मसखरेपन की चाशनी में डुबो कर कहा, ‘आलोचक महोदय जी! इतना चिंतन करने के पश्चात मैं साहित्य नहीं,विज्ञान या इतिहास ही रच सकता हूँ, एक-एक तत्व की मीन-मेख कर रचना! रचना मेरे स्वाभाविक गुण के दायरे से बाहर की बात है।’
आलोचक को यकायक मन में विचार आया कि कहीं इन कविवर महाशय के शब्द-चयन में कुछ गड़बड़ी हो।
वे कविवर से पूछने लगे, ‘लगता है कविता के भावानुसार शब्द-चयन में कोई चूक तो करते हो।‌ “कविता की प्रभावोत्पादकता बनाने के लिए उचित शब्द-स्थापना की भी बड़ी ज़रूरत है। किसी मनोविकार के दृश्य के वर्णन में ढूँढ-ढूँढ कर ऐसे शब्द रखने चाहिए जो सुननेवालों की आँखों के सामने वर्ण्य-विषय का चित्र-सा खींच दें। मनोभाव चाहे कैसा ही अच्छा क्यों न हो,यदि वह तदनुकूल शब्दों में न प्रकट किया गया तो उसका असर यदि जाता नहीं रहता तो कम ज़रूर हो जाता है। इसीलिए कवि को चुन-चुन कर ऐसे शब्द रखने चाहिए,और इस क्रम से रखने चाहिए जिससे उसके मन का भाव पूरे तौर पर व्यक्त हो जाए। उसमें कसर न पड़े। मनोभाव शब्दों ही के द्वारा व्यक्त होता है। …जो सुकवि है,उन्हें एक-एक शब्द की योग्यता ज्ञात रहती है। वे खूब जानते हैं कि किस शब्द में क्या प्रभाव है। अतएव, जिस शब्द में उनका भाव प्रकट करने की एक बाल-भर भी कमी होती है उसका वे कभी प्रयोग नहीं करते…।”
कविवर,तुम ठहरे मुक्कमल अंग्रेज़ी परिवेश के आधुनिक व्यक्ति,तुम्हें अब अगर अंग्रेज़ी विचारकों की उक्तियों से न समझाऊँ,तो तुम भी सोच में पड़ जाओगे! भला किस निकम्में आलोचक से पाला आज पड़ गया है। अंग्रेज़ी कवि या रचनाकार जो भी हैं,उनकी भी वही मान्यताएँ हैं हमारे जैसे विद्वानों की भाँति ही हैं।
कविवर के मुख मण्डल पर आभा चहक उठी, ‘अच्छा! अब अंधा क्या दो रेवड़ियाँ खाए।’
महाशयवर!,“अंग्रेज़ी के प्रसिद्ध कवि मिल्टन ने कविता के तीन गुण वर्णन किये हैं। उनकी राय में कविता सादी हो,जोश से भरी हुई हो, असलियत से गिरी हुई न हो।”
आलोचक आगे इसी तथ्य को विस्तार से समझाते हुए कहते हैं कि ‘शब्द चयन सरल-सौम्य गुण युक्त हो तो चाँदनी-सा आकर्षण स्वत: मन के घनघोर विचार प्रवाह को पाठक मन पर बिखेर देता है। और,हाँ…” भाव और विचार ऐसे सूक्ष्म और छिपे हुए न हों कि उनका मतलब समझ में न आवे,या देर से समझ में आवे।”

(प्रतीक्षा कीजिए अगले भाग की…)

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