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माँ सर्वोपरि

गोवर्धन दास बिन्नाणी ‘राजा बाबू’
बीकानेर(राजस्थान)
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माँ बिन…!

दुनिया में ऐसा कोई बिरला ही होगा, जो अपनी जननी को नमन न करता हो। कारण भी स्पष्ट है अर्थात बिना माँ के वह इस इहलोक में पदार्पण कर ही नहीं सकता है।
माँ काली हो, कुरुप हो, दिव्यांग हो या खूबसूरत, कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि माँ का दूध पिए बिना कोई पुष्ट होता ही नहीं है। अर्थात पनपने में माँ का दूध सर्वोत्तम माना गया है। इसलिए ही जब भी सरहद पर माँ अपने पुत्र को भेजती है तो, एक ही सीख देती है-
“१ इंच पीछे मत हटना, भले ही कट जाना पड़े।” अर्थात दूध की लाज रखना।
माँ बालक की पहली न केवल गुरु होती है, बल्कि पहली दोस्त भी। यही कारण है कि, उस बालपन में जो शिक्षा मिलती है, वही सबसे उच्च कोटि की शिक्षा मानी गई है। अर्थात माँ हमेशा अपने बच्चे का उज्जवल भविष्य कैसे बने, उसी का ध्यान रख शिक्षा प्रारम्भ करती है। और दोस्त होने के नाते हर विपत्ति में उसी तरह साथ खड़ी मिलती है, जैसा गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामायण के किष्किन्धाकाण्ड में वर्णन किया है-
‘जे न मित्र दु:ख होहिं दुखारी।
तिन्हहि बिलोकत पातक भारी॥
निज दु:ख गिरि सम रज करि जाना।
मित्रक दु:ख रज मेरु समाना॥’

हाँलाकि, बालपन के बाद बच्चे संगी-साथी के साथ माँ की सीख को नजरंदाज कर गलत रास्ता अपना लेते हैं। फिर आगे चलकर कुख्यात अपराधी भी बन जाते हैं। उसी राह पर चलते एक समय ऐसा भी आता है, जब वह किसी भी कारण अपनी माँ की शरण आता है। इसी तथ्य को उजागर करते हुए आदि शंकराचार्य जी ने एक श्लोक के माध्यम से जो सन्देश दिया है, उसका भावार्थ यही है कि “पूत कपूत हो सकता है, लेकिन माता कभी कुमाता नहीं हो सकती।”

संसार में माँ के समान कोई है ही नहीं, इस तथ्य को कोई अस्वीकार कर ही नहीं सकता।

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