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‘मितव्ययिता’ मतलब कंजूसी नहीं

गोवर्धन दास बिन्नाणी ‘राजा बाबू’
बीकानेर(राजस्थान)
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हमारी संस्कृति में मितव्ययिता व दानशीलता का बहुत महत्व है। मितव्ययिता हमें जीवन में सादगी,संयम,अनावश्यक खर्चों पर नियंत्रण सिखाती है,तो दानशीलता हमें सिखाती है कि सद्कार्य के लिए आवश्यकता के समय पर जो भी संभव हो,जितना भी संभव हो,अवश्य दें।
याद रखें मितव्ययी का मतलब कंजूस नहीं होता है,बल्कि अनावश्यक खर्च न कर सोच-समझ कर खर्च करनेवाला ही होता है। इसी तरह दानी के मन में बदले में उपकार पाने की भावना नहीं होती है,बल्कि समाज सेवा या राष्ट्र सेवा की भावना होती है। इन्हीं सब गुणों से सम्पन्न वैश्य यानी बनिए होते हैं,जबकि कुछ लोगों ने इन्हें मुनाफाखोर बतला कर बदनाम किया है। मतलब यही है कि हर समुदाय में कुछ अपवाद होते हैं,जिसका यह मतलब कभी नहीं होता कि सभी उसी तरह के हैं। याद रखें,बनिए यदि मितव्ययी नहीं होते तो बड़े-बड़े दानवीरों में उनका नाम कहाँ से आता। इतिहास में अनेक ऐसे उदाहरण है जिससे यह सिद्ध होता है कि बनिए अपने नश्वर शरीर के मौज-मस्ती में फालतू खर्च न कर मितव्ययिता बरत सेवा,दान, उत्सव,देशहित में सदा अग्रणी भूमिका निभाते हैं,जो इन उदाहरणों से एकदम स्पष्ट है-

एक मराठा सैनिक आपा गंगाधर ने ८०० साल पहले पुरानी दिल्ली के चाँदनी चौक क्षेत्र में प्रसिद्ध गौरी शंकर मंदिर निर्मित किया था। एक बार बड़े वैश्य व्यापारी लाला भागमल जी को पता चला कि क्रूर,निर्दयी औरंगजेब ने इस मंदिर को तोड़ने का आदेश अपने सिपाहियों को दिया है तो उन्होंने औरंगजेब से सीधा पूछा-बताइए,कितना जजिया कर चाहिए ??? कीमत बोलिए,लेकिन मन्दिर को कोई हाथ नहीं लगाएगा,मन्दिर की घण्टी बजनी बन्द नहीं होगी!!

जबाब में औरंगजेब ने औसत जजिया कर से १०० गुना ज्यादा जजिया कर हर महीने माँगा था। तब वैश्य व्यापारी ने माथे पर शिकन लाए बिना हर महीने उतना जजिया कर औरंगजेब को दान के रूप में दिया था। इस तरह लाला भागमल ने उन आततायी से मन्दिर को बचाया। इस घटना के कई दशक बाद इसी गौरी-शंकर मंदिर का जीर्णोद्धार सेठ जयपुरिया नाम के शिव भक्त ने १९५९ में कराया था। इस तरह मराठा सैनिक के समय से लेकर आज तक मन्दिर की घण्टियाँ बज रही हैं।

हल्दी घाटी के युद्ध में पराजित महाराणा प्रताप जब परिवार के साथ जंगलों में भटक रहे थे,तब दानवीर वैश्य भामाशाह ने मातृ-भूमि की रक्षा के लिए महाराणा प्रताप के लक्ष्य को सर्वोपरि मानते हुए अपनी सम्पूर्ण धन-संपदा अर्पित कर दी। इसके चलते महाराणा प्रताप में नया उत्साह उत्पन्न हुआ और उन्होंने पुन: सैन्य शक्ति संगठित कर मुगल शासकों को पराजित कर फिर से मेवाड़ का राज्य प्राप्त कर लिया था।

महाराणा प्रताप जब महल छोड़कर जंगल चले गए थे,व अकबर के विरुद्ध नई सेना का गठन करना था,उस समय भी बनिया समाज के भामाशाह जी ने अकूत धनराशि से महाराणा को भरपूर सहयोग किया था।
उपरोक्त घटनाओं को बताने का यही मतलब है कि,ऐसे अनेक उदाहरण इतिहास में उपलब्ध हैं और इनसे स्पष्ट होता है कि,सनातन धर्म की नींव बचाने के लिए वैश्यों-बनियों की समर्पण,त्याग व धार्मिकता का कोई सानी नहीं। इसी कारण से समस्त हिन्दू धर्म वैश्य समाज का सदैव ऋणी रहेगा।
इसी क्रम में यह भी कि प्रायः सभी तीर्थ स्थानों में आपको किसी भी वैश्य द्वारा स्थापित धर्मशाला मिलेगी ही। इन कारणों से कह सकते हैं कि वैश्य समाज धर्म-कर्म,समाज कल्याण के साथ साथ राष्ट्र उन्नति के लिए कुछ भी करने को सदैव तत्पर रहते हैं।

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