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मुकदमों के बोझ से जटिल होता जीवन

ललित गर्ग
दिल्ली
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लोकतंत्र के ४ स्तंभों में से १ न्याय पालिका इन दिनों काफी दबाव में है। उस पर मुकदमों का अंबार लगा हुआ है। देश के सर्वोच्च न्यायालय से लेकर विभिन्न अदालतों में मुकदमों का बोझ इस कदर हावी है कि, न्याय की रफ्तार धीमी से धीमी होती जा रही है। अदालतों पर बढ़ते बोझ की समस्या की तस्वीर आँकड़ों के साथ पेश की जाए तो आम आदमी न्याय की आस ही छोड़ बैठेगा। साफ है कि, एक ओर तो न्यायपालिका पर मुकदमों का बोझ लदा है, दूसरी ओर उसके जरूरत भर न्यायाधीश भी नहीं हैं। देश की न्याय प्रक्रिया को यदि दुरुस्त करना है तो एकसाथ दो मोर्चों पर काम करने की जरूरत है। देश के छोटे-बड़े सभी न्यायालयों में लगभग ५ करोड़ मुकदमे पैंडिंग हैं। कई तो ३०-३० वर्षों से चल रहे हैं। संबंधित मर-खप गया, कई विदेश चले गए, कई को लापता घोषित कर दिया गया। न्याय में विलम्ब करना न्याय से इन्कार करना होता है। न्यायाधीशों पर भी अंगुली उठती है। भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे हैं। हजारों छोटे-बड़े न्यायालयों में न्यायधीशों की योग्यता पर भी चर्चा सुनते-पढ़ते हैं।
न्यायालय के कार्यों में राजनीतिक हस्तक्षेप की बात आम है। निष्पक्ष होकर न्याय करने वाले भी कभी-कभी प्रभावित हो जाते हैं। जो फैसले निचली अदालतें करती हैं, उनमें से कई ऊंची अदालतों में जाकर उलट जाते हैं।
देश में लंबित मुकदमों की संख्या कम होने की बजाय लगातार बढ़ती जा रही है-न केवल निचली अदालतों में, बल्कि उच्च और सर्वोच्च न्यायालय में भी। निचली अदालतों में लंबित मुकदमों का बोझ कहीं अधिक तेजी से बढ़ रहा है। ५ साल पहले निचली अदालतों में लंबित मुकदमों की संख्या २.९ करोड़ थी, अब ४.४ करोड़ पर पहुंच गई है। यह स्थिति गहन चिंता का विषय बननी चाहिए, क्योंकि इससे यही पता चलता है कि न्यायिक व्यवस्था चरमरा रही है। यह तथ्य चकित करने वाला है कि, केंद्र सरकार ही ६.३ लाख मुकदमों में पक्षकार है। जब केंद्र सरकार इतने अधिक मुकदमे लड़ रही है तो फिर सहज ही समझा जा सकता है कि, राज्य सरकारें भी बड़ी संख्या में मुकदमे लड़ रही होंगी। वास्तव में इस एक कारण से भी लंबित मुकदमों की संख्या बढ़ती जा रही है। एक हालिया आँकड़े के अनुसार हर तरह के न्यायालयों में लंबित मुकदमों की संख्या ५ करोड़ से अधिक पर पहुंच गई है।
देश में सबसे ज्यादा मुकदमे राजस्व से जुड़े हुए हैं। गाँवों में जमीन के बंटवारे या सीमा निर्धारण को लेकर देश की निचली अदालतों में अंबार लगा हुआ है। इस तरह के मुकदमों के निपटारे में ग्राम पंचायत की कहीं कोई भूमिका तय हो तो, शायद कोई स्थाई समाधान संभव हो सकता है। लाख प्रयासों के बावजूद देश की अदालतों में मुकदमों का अंबार कम होने का नाम ही नहीं ले रहा है। इनमें से करीब ८७ फीसदी मुकदमे देश की निचली अदालतों में लंबित हैं तो करीब १२ फीसदी मुकदमे राज्यों के उच्च न्यायालयों में लंबित चल रहे हैं। देश की सर्वोच्च अदालत में १ प्रतिशत मुकदमे लंबित हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि, मुकदमों का अंबार लगा हुआ है तो दूसरी ओर सभी पक्ष इसे लेकर चिंतित भी हैं। लंबित मुकदमों की बढ़ती संख्या का एक कारण न्यायाधीशों और संसाधनों की कमी बताई जाती है। निःसंदेह, यह एक कारण है, लेकिन एकमात्र कारण नहीं कहा जा सकता। क्या इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण और कुछ हो सकता है कि, सरकारें अपने ही लोगों को मुकदमेबाजी में उलझाए रहें ? लंबित मुकदमों के निस्तारण में देरी से केवल लोगों का न्यायिक तंत्र पर भरोसा ही कमजोर नहीं होता, बल्कि प्रगति भी बाधित होती है, क्योंकि करोड़ों लोग काम-धंधे पर ध्यान देने के बजाय अदालतों के चक्कर लगाते हैं और समय के साथ धन की भी बर्बादी करते हैं।
मुकदमों का बोझ बढ़ते चले जाने का एक और प्रमुख कारण है कानून प्रक्रिया का जटिल होना। तारीख पर तारीख का सिलसिला। न जाने कितने मामले ऐसे हैं, जिनका निस्तारण २-४ वर्ष में हो जाना चाहिए, पर वे दशकों तक लटके रहते हैं। यही स्थिति उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में भी है। ५ करोड़ मुकदमे लंबित रहने का मतलब है कि इससे कहीं ज्यादा लोग न्याय के लिए प्रतीक्षारत हैं, क्योंकि कई मामलों में एक से अधिक लोग अदालती कार्रवाई का सामना कर रहे होते हैं। यह एक तरह से न्यायिक व्यवस्था की ओर से किया जाना वाला उत्पीड़न है। खेद की बात यह है कि, इस उत्पीड़न में सरकारें भी शामिल हैं। नीति-नियंताओं की ओर से इस तरह की जो बातें रह-रहकर की जाती हैं कि लंबित मुकदमे एक बड़ी समस्या हैं और न्याय में देरी अन्याय है, उनसे देश की जनता तंग आ चुकी है, क्योंकि तमाम चिंता जताए जाने के बाद भी नतीजा ‘ढाक के तीन पात’ वाला है। आखिर उस चिंता का क्या मूल्य-महत्व, जो समस्या के समाधान में सहायक न बने ?
हमारे देश में कानून बनाना आसान है लेकिन उन कानूनों की क्रियान्विति समुचित ढंग से क्रियान्वयन न होना, एक बड़ी विसंगति है। इसका कारण है-जनसंख्या के अनुपात में कम न्यायाधीशों का होना, न्यायाधीशों की नियुक्ति पर गतिरोध, पुलिस के पास साक्ष्यों का वैज्ञानिक ढंग से संग्रहण हेतु प्रशिक्षण का अभाव आदि। न्यायपालिका में भ्रष्टाचार एवं उसकी जवाबदेही की कोई व्यवस्था नहीं है। न्यायिक प्रक्रिया का अपेक्षाकृत महंगी होना तथा विचाराधीन कैदियों के अधिकारों का हनन आदि भी कानून की विसंगतियां है। इनके निवारण हेतु न्यायिक बैकलाग एवं देरी की समस्या से निपटने के लिए ब्रिटेन एवं सिंगापुर की तर्ज पर मुकदमों के निपटारों के हेतु समय सीमा निश्चित की जानी चाहिए। फास्ट ट्रैक कोर्ट एवं वैकल्पिक विवाद निपटान प्रणाली को बढ़ावा देना चाहिए। न्यायपालिका में भ्रष्टाचार को कम करने एवं पारदर्शिता तथा जवाबदेहिता को बढ़ाने के लिए ठोस एवं क्रांतिकारी कदम उठाए जाने अपेक्षित हैं। न्याय प्रक्रिया को सर्वसुलभ एवं समावेशी बनाने का प्रयास किया जाए एवं वकालत का माध्यम भारतीय भाषाओं को बनाया जाए तो कुछ ही वर्षों में भारत की कानून प्रक्रिया में युगांतरकारी एवं क्रांतिकारी बदलाव देखने को मिल सकते हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पहल पर ही सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी वेबसाइट कई भारतीय भाषाओं में कर दी है।
मुकदमों के इस अंबार को कम करने के लिए कोई ऐसी रणनीति बनानी होगी, जिससे अदालतों का भार भी कम हो, न्यायिक प्रक्रिया लंबी भी ना चले और लोगों को समय पर न्याय भी मिले। हालांकि लोक अदालत के माध्यम से मुकदमों में कमी लाने की सार्थक पहल अवश्य की गई है, पर लोक अदालतों में लाखों प्रकरणों से निबटने के बावजूद हालात में ज्यादा बदलाव नहीं आया है। दरअसल लाखों की संख्या में इस तरह के मुकदमे हैं जिन्हें निपटाने के लिए कोई सर्वमान्य समाधान खोजा जा सकता है। मुकदमों की प्रकृति के अनुसार उन्हें विभाजित किया जाए और फिर समयबद्ध कार्यक्रम बनाकर उन्हें निपटाने की कार्ययोजना बने तो समाधान कुछ हद तक संभव है।
समाज एवं राष्ट्र की व्यवस्थाओं में कानूनों के माध्यम से सुधार की बजाय व्यक्ति-सुधार एवं समाज-सुधार को बल दिया जाना चाहिए। इसके लिए पूर्व न्यायाधीशों, पूर्व प्रशासनिक अधिकारियों, वरिष्ठ वकीलों व गैर-सरकारी संगठनों या सामाजिक कार्यकर्ताओं की टीम बनाई जा सकती है, जो इस तरह के मामलों को सुलझा सकें, जिससे न्यायालयों का समय भी बचे और वादी प्रतिवादी का धन और समय बचने के साथ ही सौहार्द भी बना रह सके।