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‘मैं तो राम बनूँगा…’

राधा गोयल
नई दिल्ली
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यादों का झरोखा…..

कितना प्यारा लगता है ना अपना बचपन याद करना। वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी…धागे से बाँधकर कागज़ की नाव को तैराना…पहलदूज खेलना,रस्सी कूदना, गिट्टे और स्टापू खेलना,छुपम-छुपाई,लंगड़ी टांग…।
जिस दिन इकन्नी मिल जाती थी,उस दिन तो हम अपने-आपको शहंशाह समझते थे। उस इकन्नी में एक सप्ताह तक न जाने क्या-क्या खाते थे। खट्टी रेती,कटारे,कमरख, चूरन,इमली और न जाने क्या क्या…।
दवात में स्याही डालकर नेज़े से घुमा घुमाकर गाढ़ा करते थे। गाना गाते रहते थे-
काले कौए पानी ला,पानी ला गुड़धानी ला। उन दिनों तख्ती को मुल्तानी मिट्टी से पोतकर लिखना पड़ता था। मुल्तानी मिट्टी से पोतकर,उसे हिला हिलाकर,गाने गा-गाकर सुखाते थे-
सूख सूख पट्टी चंदन गट्टी,धरम पुराना कौवा काना।
छठी कक्षा से एबीसीडी सीखनी शुरू की। घर में किसी को अंग्रेजी नहीं आती थी। पड़ौस के एक चाचा जी को आती थी। उनके ऑफिस से आते ही उनकी जान खाती थी और उनसे डाँट भी बहुत खाती थी कि जरा चाय-वाय पी लूँ,तब सीख लियो। शाला में भी अध्यापिका की जान खाती थी। कभी समझ नहीं आता था यदि ‘सीएचओ’ का मतलब ‘चोपड़ा’ है तो ‘सीएचई’ का ‘चेमिस्ट्री’ क्यों नहीं है ? या तो वह केमिस्ट्री है तो कोपड़ा होना चाहिए,क्योंकि दोनों में ही वाॅवेल है। हमेशा इन सवालों पर डाँट ही पड़ती थी। प्रश्नों का उत्तर कभी नहीं मिला। फिर मन को ही मारना पड़ता था,किंतु दिल में उत्कंठा बनी रहती थी कि ऐसा क्यों है ? जब इन शब्दों के आगे वाॅवेल है तो उच्चारण अलग-अलग क्यों है ? यह तो खैर आज तक भी समझ नहीं आया…।
जब बड़े हुए तो आगे पढ़ने पर बंदिश लगा दी गई-सिलाई सीखो,घर के काम सीखो,इसके अलावा कुछ करने की जरूरत नहीं है। कविताएँ लिखने का शौक था,किंतु उस पर भी बंदिश लगा दी गई। घर में भी बात करती थी तो कविताओं के रूप में। आपस में बहन-भाई लड़ते थे तो फौरन कविता बना देती थी। फिर वे रोते थे और कहते थे- “देखो! ये जीजी हमारे ऊपर कविता लिखती है।”
“अरे भाई! क्या हम गाना भी नहीं गा सकते ? क्या अपने घर के अंदर भी गाना गाने पर बंदिशें हैंv?
फिर मैंने एक नया शौक पाल लिया। गर्मियों में बच्चों की २ महीने की छुट्टियाँ होती हैं। मुझे बचपन से ही विद्यालय में नाटक करने का बहुत शौक था। अपने शौक को पुनर्जीवित किया। कॉलोनी के बच्चों को रामलीला व नाटक का अभ्यास करवाती थी। हमारे पिताजी का कमरा तीसरे माले पर था जिसे सब शांति भवन कहते थे। पिताजी सुबह ७-३० बजे दुकान चले जाते थे और रात को आते थे। तब तक के लिए उनका वह कमरा खाली रहता था। मैं फटाफट घर के काम निपटा कर बच्चों को नाटक का अभ्यास कराती थी। हमारी माँ भी खुश रहती थी और पड़ोसी भी बहुत खुश रहते थे क्योंकि छुट्टियों में बच्चे उनका दिमाग नहीं चाटते थे,बल्कि नाटक और मुझसे मुफ्त में पढ़ने में व्यस्त रहते थे। कई बार तो ऐसी- ऐसी नौटंकी करते थे कि बस पूछो मत। मानो नाटक में झूठ-मूठ केला खाना है, लेकिन सचमुच ही खा लेते थे। फिर दूसरा बोलता था ‘अरे भाई! क्या सारे केले तू ही खा लेगा ? अरे सचमुच थोड़ी खाना है। झूठ-मूठ खाने का अभिनय करना है।’ लेकिन अभिनय करने वाला भी खाने में पूरा उस्ताद। दूसरों को जबरदस्ती उससे छीनना पड़ता था। जब बच्चों को नाटक का अभ्यास हो गया तो रामलीला का अभ्यास शुरू किया,ताकि रामलीला के दिनों में वे मंचन कर सकें। सभी को अपनी बहनों के बेकार दुपट्टे लाने के लिए कहा। गत्ते से तलवारें, धनुष-बाण वगैरह बनाए। बाजार से भी गदा खरीदीं। कुछ साड़ियाँ,चूड़ियाँ,दुपट्टे व श्रंगार का सामान घर में से इकट्ठा किया व कुछ पड़ोसियों से लिया। रामलीला के दिनों में मैंने रामलीला का मंचन कराया। सभी को मैं ही तैयार करती थी। मेरा छोटा भाई बहुत सुंदर था,उसे सीता बनाया। मेरा बड़ा भाई बड़ा रौबदार था,उसको रावण का पात्र दिया।आज भी कई लोग उसे रावण के नाम से ही बुलाते हैं,क्योंकि उसकी आवाज बड़ी रौबदार है। एक भाई लक्ष्मण बना,पड़ोस का एक लड़का राम बना। इसी तरह से सबको अलग-अलग किरदार दिए गए। दिन कैसे निकल जाता था,पता ही नहीं लगता था, बल्कि इस चक्कर में मेरा काम फटाफट हो जाता था। यदि मैं बर्तन साफ करती तो एक बच्चा फटाफट बर्तन धोकर रसोई में रख देता था। एक बच्चा घर में पोंछा लगा देता था। मेरी माँ भी खुश और बच्चे भी खुश,तो बच्चों की माताएँ बड़ी खुश क्योंकि सबके सिर से बला टली हुई थी वरना तो छुट्टियों में बच्चे कितना भेजा चाटते हैं,यह माँओं से बेहतर कौन जान सकता है ?
जब रामलीला का दिन आया तो सब कुछ ठीक-ठाक हो रहा था। जिस लड़के को ताड़का बनाया था,उससे कुछ लड़कों को खुन्नस थी। ताड़का वध के बाद जब वह मंच पर गिरा तो बच्चों ने उसके सीने पर मुक्के मार-मार कर रोना शुरू किया ‘चची ताड़का! हाय-हाय। चची ताड़का! हाय! हाय! चची ताड़का हाय- हाय!’ उसका सचमुच में मार- मार यह हाल कर दिया कि उस बेचारे को उठ कर भागना पड़ा।
जो लड़का हनुमान बना था,वह रावण के सामने जाने की हिम्मत ही नहीं कर पा रहा था। बड़ी मुश्किल से मुझे धक्का दिया तो सीधा जाकर रावण के चरणों में गिरा। रावण ने बड़ी जोरदार आवाज में कहा,’तुम कौन हो और कहाँ से आए हो?’ बेचारा हकलाते हुए बोला,- ‘जी जी जी जी जी जी जी! मैं नानू हलवाई हूँ और विनय नगर से आया हूँ।’ जल्दी से पर्दा गिराना पड़ा।
जैसे-तैसे रामलीला पूरी हो गई। बच्चों ने की थी,इसलिए सबको बहुत पसंद आई और सबने बच्चों का उत्साह बढ़ाया। एक खाली प्लाॅट पड़ा हुआ था,उसी पर रामलीला का मंचन किया था और कॉलोनी के लोग ही देखने आते थे। हमने किसी तरह का प्रचार नहीं किया,घर में से ही तख्त लाकर मंच बना दिया था।
अगले साल फिर रामलीला होनी थी। इस बार सचमुच का युद्ध छिड़ गया। ३ दिन रामलीला ठीक-ठाक होती रही,लेकिन चौथे दिन रावण अड़ गया कि ‘मैं तो राम बनूँगा। मैं रावण क्यों बनूँ। मेरा नाम इन लोगों ने रावण रख दिया है।’
जो लड़का पिछली बार राम बना था,वह राम बनकर ज्यादा जँच रहा था,लेकिन रावण खुद राम बनना चाहता था और राम का चरित्र निभाने वाले लड़के से रावण का पात्र निभाने के लिए कह रहा था। सीता के लिए कोई पंगा नहीं था। राम और रावण के पात्र को लेकर सचमुच का संग्राम मेरे ही घर में छिड़ गया। गदा टूट गईं,धनुष बाण टूट गए।
आखिरकार झल्लाकर मैंने ही कहा ‘अब यहाँ से सब दफा हो जाओ। कोई रामलीला-वामलीला नहीं होनी,क्योंकि सारे अस्त्र-शस्त्र तुमने पहले ही तोड़ डाले हैं। अब नए कहाँ से आएंगे और न ही यह संभव है कि जो राम का रोल कर रहा है…वह रावण का रोल करे और जो रावण बना है…राम का रोल करे,इसलिए आज के बाद कभी रामलीला नहीं होगी।’
सन् १९७० में मेरा विवाह हो गया था तो रामलीला का मतलब ही नहीं था। सारे बच्चे रो-रोकर दिन में कह रहे थे ‘हाय दीदी! हमारा तुम्हारे बिना बिल्कुल दिल नहीं लगेगा। हम तो तुम्हारे साथ तुम्हारे ससुराल में ही चलेंगे। शुक्र है कि सुबह-सुबह विदाई हो गई थी और बच्चे सोए हुए थे। आज भी पुराने पड़ोसी उन बातों को बहुत याद करते हैं।

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