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यह क्या हो रहा ?

हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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बड़े खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि, यह आज समाज में हो क्या रहा है ? मुद्दा आज सता पक्ष और विपक्ष की तू-तू, मैं-मैं का नहीं है। मुद्दा तो है देश की बहू-बेटियों की अस्मत का। वह चाहे माँ, पत्नी या बहू हो या फिर बेटी,
दु:ख यह है कि क्यों की जा रही है उसकी अनदेखी ?
यह भयानक मंजर हमने मीडिया में बड़े स्तर पर ‘निर्भया’ मामले के समय देखा था। पूरा देश उस आक्रोश में उबल गया था। विपक्ष ने हवा को तूल दी और सत्ता पक्ष ने कड़े कानून बनाने एवं दोषी को तुरन्त कड़ी सजा दिलाने का आश्वासन दिया। हम सब जानते हैं कि, दोषियों को सजा दिलाने तक का सफर कैसा और कितना लम्बा रहा ? ऐसा नहीं है कि, इससे पूर्व बहू-बेटियों के साथ बलात्कार नहीं हुए थे, पर यह मामला पहली बार मीडिया में राष्ट्रव्यापी स्तर पर इस तरह से भटका था कि, पूरे देश की आत्मा ही जैसे जाग उठी थी। सवाल यह है कि, क्या फिर ऐसी वारदातें होना बंद हो गई ? उप्र के हाथरस की घटना हम कहां भूले हैं ? रात के अंधेरे में ही दाह संस्कार हमें याद है। क्या पश्चिम बंगाल में हुई हिंसात्मक घटनाएं देश को शर्मसार नहीं करती ? हाल ही में राजस्थान में नाबालिग लड़की के साथ शादी और उसके ससुर, नंदोई और जेठ द्वारा पति की सहमति से सामूहिक बलात्कार करना भी सामने आया। अब मणिपुर में महिलाओं के साथ एक घिनौना कुकृत्य दिन-दहाड़े समाज द्वारा पुलिस की मौजूदगी में किया जाना। इधर हिमाचल में समाज के ही सामने युवतियों के साथ छेड़छाड़ और मार-पीट।
मित्रों, शर्मिंदगी राजनीतिक दलों की कारगुजारी और बयानबाजी पर नहीं, बल्कि समाज की कुत्सित सोच पर होती है। आखिर क्यों, समाज इस कदर खुदगर्ज, मूकदर्शक तथा भीरू होता जा रहा है कि, हकीकत को अपनी आँखों से देख कर भी वह अपना मुँह मोड़ कर वहां से इस कदर से निकल जाता है, जैसे उसने कुछ होते हुए ही नहीं देखा ? सवाल सत्ताधीशों से भी है कि, वे भी अपनी शक्ति का दुरुपयोग आखिर क्यों करते हैं ? शायद यह हमारी कानून व्यवस्था और न्याय प्रणाली की कमजोरी को भी दर्शाता है। कानून में कई हथकंडे और लम्बे दौर तक चलती न्यायिक प्रक्रिया तथा कई मामलों में राजनीतिक संरक्षण अपराधियों के हौंसलों को बुलन्द करता रहता है कि, क्या होगा। जो भी होगा, देखा जाएगा, अदालत में निपट लेंगे।
सबसे बड़ी चिन्ता तो समाज की पढ़ी-लिखी स्त्रियों के समुदाय की होती है कि, वे अपने साथ हो रहे अन्याय में स्वयं ही एकजुट नहीं हैं। वे खेमों में और राजनीतिक दलों में विभाजित हो कर कई बार पक्ष-विपक्ष में वाद-विवाद प्रतियोगिता करती हुई नजर आती हैं। निवेदन उन सभी माताओं-बहनों से है कि, ऐसे मुद्दों में न ही तो हमें राजनीतिक दल-दल में मतों के नफे- नुकसान में पड़ना चाहिए, न ही समाज को बांटने वाली विचारधारा का समर्थन करना चाहिए। ऐसे मुद्दों पर राजनीति, जाति, धर्म, सम्प्रदाय इत्यादि समाजगत कुत्सित भाव-बोधों से ऊपर उठ कर राष्ट्र की मानव समाज वाली भावना से काम करना चाहिए।बेटी या औरत कोई भी हो और किसी भी जाति-धर्म-सम्प्रदाय इत्यादि की हो, वह हमारे देश की मातृ शक्ति है। उसके शील की रक्षा करना हमारा सामूहिक दायित्व है। माना कि, कई मुद्दों पर महिलाएं भी गलत हो सकती हैं, पर जो घटनाएं ऊपर गिनाई हैं, ये महिलाओं के साथ घोर अन्याय और समाज की कुत्सित मानसिकता की उदाहरण हैं।
यह बात याद रखना कि, दूसरों के घरों में लगी आग को बुझाने में जो लोग मदद नहीं करते, बल्कि उससे अपनी रोटियाँ सेंकने का काम करते हैं, उन्हे यह कभी भी नहीं भूलना चाहिए कि हमारे घर भी यहीं नजदीक हैं। कहीं यह आग भड़क कर हमारे घर को भी न लील जाए।
आज किसी दूसरे की बहू-बेटी के साथ किसी दूसरे के उन्मत बेटों ने गलत किया है और कल को यही घटना हमारी बहू-बेटियों या माँ-पत्नियों के साथ भी हो सकती है और हमारे बेटे भी उन्मत हो कर ऐसी घटनाओं को मिलकर अंजाम दे सकते हैं। इसलिए समाज को अपने दायित्व को समझना होगा।सामाजिक संचार और फिल्मी दुनिया को ऐसे आपराधिक दृश्यों का बहिष्कार करना चाहिए, जो युवा पीढ़ी को गलत करने के विचार देते हों। जातिवाद, धर्मवाद और संप्रदायवाद के नाम पर समाज में नफरत फ़ैलाने वाले हर जाति-धर्म और सम्प्रदाय के व्यक्तियों को कड़े से कड़े कानून बनाकर कड़ी सजा का प्रावधान करने की मांग करनी चाहिए। फिर वह आग चाहे मत के लिए भड़काई जाए या अन्य कारण से। एक भड़काए या फिर पूरा समुदाय। सामूहिक सजा का प्रावधान किया जाना चाहिए। यह भीड़ तन्त्र तो फिर समाज की कानून व्यवस्था को ठेंगा दिखाता ही रहेगा, यदि इस अ-व्यवस्था पर अंकुश न लगाया गया तो।

हमें समझना होगा कि, समाज में मात्र एक ही धर्म कुदरत ने बनाया है, जो है मानव धर्म। २ ही जाति हैं-एक स्त्री और दूसरी पुरुष। उनमें किसी को कोई छूत भी नहीं लगती और न ही कोई अन्य बाधा है। दोनों जातियों को एक-दूसरे की कुदरती नितान्त आवश्यकता है। उन्हें कुदरत के नियम का पालन करके अपने जाति-धर्म का ईमानदारी और सामाजिक मर्यादाओं से पालन करना चाहिए। न ही कोई लड़ाई होगी, न ही तो कोई झगड़ा दंगा-फसाद। आज पढ़े-लिखे समाज में हमें मिल-बैठकर अपने कई निजी स्वार्थों को राष्ट्र हित में छोड़ देने चाहिए। माताओं को अपने साथ होने वाले अत्याचारों के खिलाफ एकजुट होकर सामने आना होगा और पुरुष समाज को भी इसमें महिलाओं का साथ देना चाहिए, क्योंकि नारी किसी भी समाज या राष्ट्र का सम्मान होती है।